अर्थव्यवस्था

भारत मूकदर्शक नहीं, अब पक्षपाती अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों पर भारत की नज़र

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी-पीएम) के सदस्य संजीव सान्याल ने  महुआ वेंकटेश के साथ एक साक्षात्कार में इंडिया नैरेटिव को बताया कि वैश्विक रेटिंग एजेंसियां भारत के प्रति स्पष्ट रूप से पूर्वाग्रह रखती हैं। व्यापक आर्थिक मुद्दों पर बोलते हुए सान्याल ने यह सुनिश्चित करने के लिए पीछे छोड़ देने की आवश्यकता को रेखांकित किया ताकि निवेश और व्यापार प्रवाह प्रभावित न हों। प्रस्तुत है इस  साक्षात्कार का अंश:

 

प्रश्न: अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने भारत की रैंकिंग में जो पक्षपात दिखाया है, उसके बारे में आप मुखर रहे हैं. भारत की रेटिंग- चाहे वह भूख की हो या ख़ुशी की,यह पाकिस्तान जैसे देशों से भी कम रही है, यह स्थिति लगातार ऐसी ही बनी रहती है।ऐसे में आपको क्या लगता है कि इस मुद्दे को कैसे उठाया जा सकता है ?

सान्याल: मैंने इस पर कई वर्किंग पेपर लिखे हैं। ये अवधारणा-आधारित सूचकांक कुछ थिंक टैंकों के संकीर्ण नैरेटिव एजेंडे से संचालित किए जा रहे हैं। स्पष्ट रूप से सामाजिक आर्थिक मापदंडों पर मुश्किल डेटा के बावजूद पूर्वाग्रह हैं, जो अन्यथा दिखा रहे हैं। मैंने उनके डेटा में इस तरह के संरचनात्मक पक्षपात पर प्रकाश डाला है। समस्या ऐतिहासिक रूप से रही है, लेकिन कुछ साल पहले तक किसी ने भी इस कार्यप्रणाली को चुनौती नहीं दी थी।

भारतीय नीति निर्माताओं ने अतीत में इस क्षेत्र की उपेक्षा की है।

 

प्रश्न: क्या इन वैश्विक रैंकिंग को गंभीरता से लेना महत्वपूर्ण है ?

बिल्कुल। इस तरह की बात सोची जाती रही है कि अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग का कोई ठोस प्रभाव नहीं पड़ेगा। परन्तु यह सच नहीं है। उनका प्रभाव पड़ता है,यह प्रभाव न केवल संप्रभु रेटिंग पर पड़ता है,बल्कि इनमें से अधिकांश ईएसजी (पर्यावरण, सामाजिक और शासन) मानदंड विश्व स्तर पर लागू किए गए हैं, इसलिए उनका वास्तविक वैश्विक प्रभाव है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हम इस धारणा को पीछे छोड़ दें और सुनिश्चित करें कि सही डेटा के आधार पर सही नैरेटिव प्रस्तुत की गयी है। समस्या का एक हिस्सा यह है कि पहले किसी ने इस कार्यप्रणाली को समझने की कोशिश ही नहीं की।

 

प्रश्न: इन वैश्विक रेटिंग एजेंसियों द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों में विसंगति क्यों होती है ?

अब हम गंभीरता से इस कार्यप्रणाली को समझने की कोशिश कर रहे हैं। हमने पाया है कि उनमें से कई तो बेहद अविश्वसनीय डेटा पर आधारित हैं। कुछ सूचकांक तो सिर्फ़ 25 लोगों की राय पर आधारित होते हैं। कुछ मामलों में यह इससे भी कम होता है।

पहली बार अब हम इन संख्याओं को चुनौती दे रहे हैं, उन पर सवाल उठा रहे हैं। क्योंकि उनका वास्तविक जीवन पर प्रभाव पड़ता है- निवेश, सॉवरेन रेटिंग, व्यापार प्रवाह पर असर पड़ता है। इसलिए हमें इस प्रक्रिया में ख़ुद को और अधिक शामिल करने की आवश्यकता है। वरना यह नव उपनिवेशवाद के एक रूप को प्रतिबिंबित करेगा।

हाल ही के एक पेपर में प्रोफ़ेसर शमिका रवि ने दिखाया है कि कैसे विभिन्न सरकारी योजनाओं ने लोगों की मदद की है और इसमें अल्पसंख्यक भी शामिल हैं। कोई भी डेटा पर विवाद नहीं कर रहा है। अगर आंकड़ों पर कोई विवाद ही नहीं है, तो कोई पूरी तरह से अलग निष्कर्ष पर कैसे पहुंच सकता है ?

 

प्रश्न : अब हम अर्थव्यवस्था पर नज़र डालते हैं। इस साल अल नीनो की स्थिति पैदा होने का ख़तरा है। हम कितने तैयार हैं ?

हम देखेंगे कि यह किस क़दर आता है। ज़ाहिर है, एल नीनो वर्षा को अनिश्चितता की स्तर प्रदान करता है। अब तक आईएमडी (भारत मौसम विज्ञान विभाग) के अनुमानों से यही पता चलता है कि यह यथोचित रूप से सामान्य के क़रीब होगा। यह एक उभरती हुई स्थिति है। लेकिन, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे पास पर्याप्त खाद्य भंडार है। बफ़र स्टॉक को लेकर कोई समस्या नहीं है। अल नीनो जैसे झटकों से हम पहले की तरह कमज़ोर नहीं होंगे। लेकिन निश्चित रूप से जैसा कि मैंने कहा है कि ये अनिश्चित चीज़ें हैं। हम कड़ी नज़र रख हुए हैं। अगर इस तरह की स्थिति आती है,हम इसका जवाब देने के लिए तैयार हैं।

 

प्रश्न: क्या इस ख़तरे से बाजरे के उत्पादन पर और ज़ोर दिया जायेगा ?

हां, हम बाजरा पर फोकस कर रहे हैं। लेकिन, यह कुछ ऐसा है, जो हम संरचनात्मक रूप से कर रहे हैं। हम बाजरा को बढ़ावा इसलिए देना चाहते हैं, क्योंकि उनका उच्च पोषण मूल्य है। बाजरा आधुनिक गेहूं और चावल की क़िस्मों की तुलना में स्वास्थ्यवर्धक है। ध्यान रहे कि मैं ऐतिहासिक क़िस्मों के बारे में बात नहीं कर रहा हूं। दूसरा, निश्चित रूप से ये अनाज मौसम के उतार-चढ़ाव के प्रति अधिक लचीले होते हैं। यह कृषि विविधता को बनाये रखने में भी मदद करेगा और किसी भी झटके से पार पाने के प्रयासों को बढ़ावा देगा। तो, बाजरा पर ज़ोर दिए जाने का अल नीनो से कोई लेना-देना नहीं है।

 

प्रश्न: अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने हाल ही में भारत के विकास अनुमानों को कम कर दिया है। हालांकि IMF ग्रोथ प्रोजेक्शन RBI के अनुमान से काफ़ी कम है, इस पर आपका क्या कहना है ?

दुनिया में स्पष्ट रूप से बहुत अनिश्चितता है, चाहे वह युद्ध के कारण हो या यूरोप और उत्तरी अमेरिका में वित्तीय प्रणालियों में आये दबाव के कारण। और हां, पूर्वी एशिया में भी तनाव है। इसके अलावा हम अब भी कोविड के झटके से उबर रहे हैं। इन सभी का मतलब यही है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में काफी मंदी है।

नतीजतन, बहुपक्षीय एजेंसियों ने स्वाभाविक रूप से वैश्विक विकास दर पर अपने पूर्वानुमानों को कम कर दिया है।

इस लिहाज़ से भारत की विकास दर काफ़ी मज़बूत बनी हुई है। वास्तव में न केवल विश्व विकास दर, बल्कि लगभग सभी अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में बहुत अधिक है। मुझे अब भी लगता है कि लगभग 6.5 प्रतिशत (विकास दर) हासिल किया जा सकता है। यह वर्तमान वैश्विक संदर्भ में एक विश्वसनीय प्रदर्शन है।

 

प्रश्न: लेकिन, भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा है कि भारत ख़तरनाक रूप से हिंदू विकास दर के क़रीब पहुंच रहा है। आपका क्या कहना है ?

सबसे पहले तो इस शब्द का प्रयोग लगभग 3.5 प्रतिशत की विकास दर के लिए किया जाता था। मुझे नहीं लगता कि कोई भी समझदार आर्थिक भविष्यवक्ता भारत की विकास दर को इसके क़रीब होने की बात कर रहा है। बुरी वैश्विक स्थिति के बावजूद हम उससे काफ़ी ऊपर हैं। दूसरे, यह शब्द अपने आप में एक संदिग्ध शब्द है। मुझे आश्चर्य है कि लोग आज भी इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। आख़िरकार, इसका इस्तेमाल 1970 के दशक में नेहरूवादी समाजवाद की विफलता से ध्यान हटाने और इसे भारत की सांस्कृतिक जड़ों पर दोष देने के लिए किया गया था। इसलिए यह आश्चर्य की बात है कि 21वीं सदी में इस तरह के शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इस शब्द के इस्तेमाल से मैं काफी स्तब्ध हूं।

Mahua Venkatesh

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