भारतीय सेना ने चीन के सीने पर बैठकर मूंग दलने की तैयारी कर ली है। भारतीय सेना की तैयारियों को देखकर लगता है कि गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में जो कहा था उसको पूरा करने की ओर कदम बढ़ा दिए गये हैं। दरअसल, भारतीय सेना चीन के किसी हिस्से पर कब्जा करने के लिए नहीं तैयारी नहीं कर रहा अपनी सीमाओं की सुरक्षा को पुख्ता कर रही है। साथ ही चीन को यह संकेत दिए जा रहे हैं कि 1962 के युद्ध में अक्साई चिन को अब खाली करना पड़ सकता है। हालांकि कहने में यह बात आसान लगती है लेकिन व्यवहारिक तौर पर है बहुत कठिन। क्योंकि चीन ने बॉर्डरऔर रिहाईशी इलाकों में काफी इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर लिया है। चीन तिब्बत और अक्साई चिन में रहने वालों को घर बैठे हजारों युआन हर महीने देता है।
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दरअसल, चीन अपने इलाके में बॉर्डर के गांवों में रहने वालों को भरण-पोषण भत्ता नहीं देता बल्कि वो उन्हें इस बात की रिश्वत देता है कि वो भारत की खुशहाली और आजादी की खबरें मिलने पर बगावत न कर बैठें। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का चीन के भीतर और बॉर्डर एरिया दोनों के लिए अलग-अलग नीतियां हैं। अक्साई चिन और तिब्बत में एक ओर पीएलए के अफसर लोकल एडमिनिस्ट्रेशन के साथ मिल कर एक ओर स्थनीय निवासियों को रिश्वत देकर जुबान और दीमाग पर ताला लगाने का काम करते तो वहीं जो लोग आजादी की सोचते भी हैं तो उनके साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार करते हैं। इतना सब कुछ होने के बाद भी हालिया सालों में चीन की चिंता का कारण भारत में स्थाई और मजबूत सरकार है।
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इस सरकार के इरादे न केवल मौजूदा एलएसी की सुरक्षा करना ही नहीं बल्कि 1914 में अस्तित्व में आयी मैकमेहोन सीमा के अनुरूप बॉर्डर की बहाली की ओर अग्रसर होना है। मोदी और शी जिनपिंग की मुलाकातों के समय ही कहा गया था कि चीन की कथनी और करनी अलग होती है। भारत से रवाना होकर नेपाल पहुंचते ही शी जिनपिंग के तेवर बदले हुए थे। उन्होंने नेपाल को भारत से दूर करने के मकसद से पिटारा खोलकर रख दिया। हालांकि चीन कहीं भी बिना लालच कोई निवेश नहीं करता। नेपाल में भी निवेश करने के पीछे उसकी क्या मंशा थी वो भी जग जाहिर हो चुकी है। बहरहाल, चीन को चिंता यह सता रही है कि कहीं गुलाम कश्मीर को पाकिस्तान के कब्जे से मुक्त कराने से पहले अक्साई चिन को न छीन ले। चीन की चिंता इसीलिए भी बढ़ी हुई हैं क्यों कि भारत की रक्षा तैयारियां जल-थल-नभ के साथ-साथ अब अंतरिक्ष में भी चीन से कम नहीं है।
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एनडीए की दूसरी बार सरकार बनी तो यह तय हो गया था अगर चीन ने सीमा पर कोई हरकत की तो भारत आगे बढ़कर उसका माकूल जवाब देगा और भारत-चीन सीमा को मैकमेहोन लाइन के अनुरूप ही निर्धारित करने की कोशिश करेगा। भारत इस समस्या को सुलझाने के लिए एक ओर जहां सभी परंपरागत चैनलों का उपयोग कर रहा है तो वहीं सैन्य शक्ति को चीन की तुलना में इक्कीस कर रहा है। भारत और बर्मा ने मैक मोहन लाइन को मानकर बॉर्डर के सभी डिस्प्यूट हमेशा के लिए खत्म कर दिए। दरअसल, 1913-14 में शिमला में भारत (ब्रिटिश भारत), चीन और तिब्बत के बीच एक सीमा समझौता हुआ था।
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तिब्बतियों को यह पहले ही डर था कि चीन उनकी जमीन पर जबरन कब्जा कर सकता है इसलिए दलाई लामा ने ब्रिटिशर्स हस्तक्षेप करने और चीन से रक्षा का अनुरोध किया। तिब्बत के इसी आग्रह पर लंदन से सर मैक मेहोन दिल्ली आये और शिमला में भारत-तिब्बत और चीन के बीच समझौता सम्मेलन शुरू हुआ। ब्रिटिशर्स भी चाहते थे कि भारत और चीन के बीच तिब्बत एक बफर स्टेट की तरह बना रहे। इसलिए भारत तिब्बत और चीन की भौगोलिक सीमाएं खींच दी गयीं। कालांतर में ही चीन ने इस लाइन को मानने से इंकार कर दिया।
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चीन ने भारत की आजादी के तीन साल बाद ही 1950 में सैन्य शक्ति के बल पर तिब्बत को सैन्य शक्ति के बल पर चीन में शामिल होने को मजबूर कर दिया। चीनी शासकों का उद्देश्य तिब्बत को केवल अपना हिस्सा ही नहीं बल्कि तिब्बत से दलाई लामा सहित उनके बौद्ध धर्म और अनुयाईयों को जड़ मूल से खत्म करना था। ठीक वैसा ही प्रयास जैसा वो आजकल शिन जियांग में उइगर मुसलमानों के साथ कर रहा है। दलाई लामा ने लगभग 9 साल चीन के अत्याचारों को सहन किया और अंत में 1959 में भारत आगये और हिमाचल के धर्मशाला में निर्वासित तिब्बती सरकार का गठन किया। ध्यान रहे, तिब्बत शिमला समझौते से पहले और बाद में भी कहने को तो चीन का स्वाययत्त प्रदेश था लेकिन उसकी स्थिति लगभग एक स्वतंत्र राष्ट्र जैसी थी। तिब्बत के दुनिया के देशों में अपने डिप्लोमेटिक मिशन थे। तिब्बत का अपना शासन, राजस्व व्यवस्था और संचार व्यवस्था थी। उनकी अपनी डाक व्यवस्था थी। माओत्से तुंग ने धीरे-धीरे दलाई लामा पर दबाब बढाया। जबरन एक 17 सूत्री समझौता किया और फिर तिब्बत में सिविल मिलटरी एडमिनिस्ट्रेटर नियुक्त कर दिया। और आखिर में क्या हुआ सभी को मालूम है। दलाई लामा ने धर्मशाला में तिब्बत की निर्वासित सरकार के गठन का ऐलान किया।
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तिब्बत पर कब्जा करने के बाद भी माओ के मंसूबे ठण्डे नहीं हुए। अब उसकी निगाह भारत पर थी। भारत की तत्तकालीन सरकारें सजग नहीं थीं। दूरदर्शिता भी संभवतः कम थी। उसी परिणाम यह हुआ कि 1962 में चीन ने हमला कर दिया। भारत की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार नहीं थीं। उस समय की सरकार ने वायुसेना को युद्ध में उतरने की इजाजत नहीं दी और नतीजा था भारत के 42 हजार वर्ग किलोमीटर पर कब्जा कर लिया। इतना ही नहीं चीन तो अरुणाचल के बड़े हिस्से को भी अपना का हिस्सा बताता है। एक सच यह भी दूसरी बार जब चीन ने भारत पर चढ़ाई की कोशिश तो कारार जवाब मिला।
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माओ के बाद विस्तारवादी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पहले डोकलाम पर कब्जे की कोशिश की। लगातार 73 दिन तक भारतीय सेना पीएलए की आंखों में आंखे डाले खड़ी रही। हार कर शी जिनपिंग को अपनी सेनाएं पीछे बुलानी पड़ी। इस बार फिर शी जिनपिंग की सेनाओं ने पूर्वी लद्दाख में एलएसी को हड़पने की कोशिश तो मुंह तोड़ जवाब मिला है। अब शी जिनपिंग अक्साई चिन को बचाए रखने के लिए भारत के खिलाफ पाकिस्तान को मजबूत कर रहा है। पाकिस्तान के लिए परमाणु मिसाइल से लेकर एडवांस फ्रिगेट बनाकर देने का मकसद है कि भारत पाकिस्तान से भिड़ा रहे ताकि उसका ध्यान अक्साई चिन की तरफ से हटा रहे।
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भारत की मौजूदा सरकार शी जिनपिंग की इस शतरंजी चाल को बेहतर समझ चुकी है। इसलिए भारत के प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री से लेकर फौज के जनरलों ने डुअल फ्रंट वॉर की पुख्ता तैयारी की है बल्कि धडल्ले से ऐलान भी कर दिया है कि भारतीय सेना चीन और पाकिस्तान दोनों से एक साथ जंग जीतने को तैयार है। भारतकी सेना और सरकार के बारे में शी जिनपिंग का अनुमान गलत साबित हो रहा है।  भारत ने चीन से तनाव के बीच एलएसी पर अपनी सभी निर्माण और विकास कार्यों को तेज कर दिया है। ऐसी खबरें भी मिल रही हैं कि चीन में शी जिनपिंग के खिलाफ माहौल बन रहा है।
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चीन के लोग सड़कों पर प्रदर्शन करने लगे हैं। सीमाई इलाकों में पीएलए को स्थानीय लोगों से सहयोग नहीं मिल रहा है। भारत से युद्ध की स्थिति में चीन के कब्जे वाले इलाकों के निवासी भारत के पक्ष में खड़े होने की खबरें हैं। इसलिए भारतीय सेना बीजिंग के एक गलत फैसले का इंतजार कर रही है। ताकि अक्साई चिन को वापस लेकर चीन के सीने पर मूंग दली जा सके। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि शी जिनपिंग को मालूम है कि अगर भारत से जंग हुई तो न केवल अक्साई चिन से हाथ धोना पड़ेगा बल्कि तिब्बत सहित कुछ स्वाययत्तशासी प्रदेश भी कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ झण्डा बुलंद कर आजादी का ऐलान कर सकते हैं।.
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