बहुत ज्यादा चकाचौंध, बहुत कम रोशनी। हाल के बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों को अधिकांश मीडिया की नजर से देखने पर ज्यादातर में यही मिलता है।
ताकतवर एल्गोरिद्म के इस युग में यह निश्चित है कि कोई भी व्यक्ति सटीक गणना करेगा। लेकिन राज्य के बाकी हिस्सों की तुलना में बिहार के उत्तर-पूर्व में <strong>ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (AIMIM)</strong> की पांच सीटों पर जीत के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। यह पूरी तरह से समझ में आता है। क्योंकि इस नतीजे ने परंपरागत वोट बैंक से जुड़े राजनेताओं को बड़ा झटका दिया और पेशेवर चुनावी पंडितों के चौंका दिया।
इसकी तुलना में राष्ट्रीय जनता दल, लेफ्ट और कांग्रेस के "महागठबंधन" की हार इन दलों के लोगों के लिए केवल एक हैरानी की बात थी। जिसे मतदाताओं की राय भरने वाली आत्म-स्नेही लॉबी ने बढ़ावा दिया, जिनको गलती से मतदाता सर्वेक्षक कहा जाता है। लेकिन ज्यादातर विश्लेषक,  चाहे राजनीतिक वर्ग से हों या मीडिया से, उन्होंने सीमांचल के महत्वपूर्ण संदेश को समझने में चूक की है कि उत्तर में कांग्रेस का आखिरी मुस्लिम गढ़ ढह गया।
अररिया, किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया, मधेपुरा, सहरसा और सुपौल जिलों में फैला सीमांचल-कोशी इलाका, नेपाल के दक्षिण और बंगाल और बांग्लादेश के पश्चिम के नदी मार्गों में स्थित है। क्षेत्र की आबादी में मुसलमान 36.4% हैं। आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियां 21.7% के साथ अगला सबसे बड़ा ब्लॉक हैं। महादलित और अनुसूचित जनजाति 11.4% हैं, यादव 11.1%, अन्य पिछड़ी जातियाँ 8.3%, और सवर्ण या ("अगड़ी" जातियां) सिर्फ 5.3% हैं।
इसका मतलब यह नहीं है कि चुनाव के समय ये ब्लॉक्स हमेशा एकजुट हो जाते हैं। मुस्लिम आसानी से बोली और जातीयता के आधार पर विभाजित हो सकते हैं। वे इस बात पर एकमत हो सकते हैं कि वे किसके खिलाफ मतदान करेंगे। लेकिन जरूरी नहीं कि वे किसे वोट देंगे, इस पर भी एकमत हो जाएं। ईबीसी, ओबीसी, सवर्ण और परिभाषा के अनुसार महादलित और अनुसूचित जनजाति भी संगठित हैं।
यादव एकमात्र ऐसा मतदान समूह हो सकता है जो पर्याप्त (लेकिन कभी भी सर्वसम्मत) पहचान की एकजुटता चुनाव में प्रदर्शित करता है। जैसे कि शेष राज्य में राजद के लिए एक आधार वोट बैंक के रूप में व्यवहार करता है। हालांकि, यह कभी-कभी इसके लिए नुकसान का काम कर सकता है। जब अलग पार्टी के यादव उम्मीदवार जाति पहचान के आधार पर अधिक शक्तिशाली चुंबक बन जाते हैं।
इन ब्लाकों के अस्तित्व का मतलब यह है कि सही परिस्थितियों और राजनीतिक गति को देखते हुए वे चुनावी रूप से एकरूप हो सकते हैं। यह मिश्रण किशनगंज बेल्ट में हुआ है।
कोई भी आंकड़ा एक समान प्रसार का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। यह केवल अधिक वर्गीकृत जमीनी हकीकत के बजाय एक वर्गीकृत औसत है। सीमांचल में कुल मुस्लिम अनुपात 36% हो सकता है, लेकिन किशनगंज क्षेत्र में मुस्लिमों की आबादी लगभग 65% है। जिससे यहां पर मुसलमानों को कहीं अधिक राजनीतिक और चुनावी लाभ मिलता है।
<strong>ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (AIMIM)</strong> ने किशनगंज से सटे विधानसभा क्षेत्रों में पांच विधानसभा सीटें जीतीं। इन जीतों के बारे में आकस्मिक कुछ भी नहीं था। <strong>AIMIM</strong> को अमौर में 51.2%, बहादुरगंज में 49.8%, कोचाधामन में 49.4%, बैसी में 38.3% और अररिया में 34.2% वोट मिले। इसने अमूर और कोचाधामन में नीतीश कुमार की जेडीयू को हराया, जोकीहाट में आरजेडी, विकासलाल इंसां पार्टी (एनडीए का घटक) को बहादुरगंज में और बैसी में बीजेपी को हराया।
बहादुरगंज में <strong>AIMIM</strong> के 85,472 के मुकाबले कांग्रेस को 29,818 वोट मिले, और अमौर में <strong>AIMIM</strong> के 94,108 के खिलाफ 31,475। पांच साल पहले से इसकी तुलना करें। 2015 में कांग्रेस को बहादुरगंज में 53,533 और अमौर में 100,353 वोट मिले थे। दोनों विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने एक क्षेत्रीय पार्टी के साथ गठबंधन किया। काफी समय पहले से वह युग नहीं रहा जब कांग्रेस अपने दम पर मुकाबला कर सकती थी। लेकिन जैसा कि अब कोई संदेह नहीं है कि कांग्रेस का मुख्य वोट बैंक इस चुनाव में ध्वस्त हो गया। पार्टी की अन्य जगहों पर प्रदर्शन से भी  पुष्टि होती है। कांग्रेस ने 70 सीटों में से केवल 19 सीटें जीतीं, या कहें कि 14% से कम की स्ट्राइक रेट रही। एक साल पहले यह एकमात्र लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र था, जिसे कांग्रेस ने जीता था। जिससे भविष्य में इसके मतदाताओं का घटता समर्थन और भी अधिक साफ है।
वास्तव में किशनगंज, बिहार और उत्तर प्रदेश की एकमात्र लोकसभा सीट है, जिसे कांग्रेस ने 2014 और 2019 में लगातार हार के बावजूद जीता था। जबकि राहुल गांधी भी 2019 में अमेठी से हार गए थे। कांग्रेस ने 2009 से किशनगंज में कब्जा किया है। पिछले तीन दशकों में धीमी गति से यह चलन है कि जहां भी मुसलमानों को कांग्रेस के बदले एक विश्वसनीय विकल्प दिखाई देता है, वे पार्टी को छोड़ देते हैं। जिसे उन्होंने 1952 से चुनावी तौर पर अपनाया।
कांग्रेस से मुस्लिम वोट का हटना 1967 में शुरू हुआ और विविधताओं के साथ चरण-वार ढंग से जारी रहा है। बंगाल में सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा पहला गठबंधन था, जिसने मुस्लिम वोट को कांग्रेस से अलग कर दिया। फिर तीन दशकों से अधिक समय तक इसे अपने कब्जे में रखा। जब तक कि ममता बनर्जी ने इसे अपने पाले में नहीं कर लिया।
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ऐसा करने वाले दूसरे राजनीतिक नेता थे। उनकी पार्टी अभी भी मुस्लिम समर्थन पर भरोसा कर सकती है। असम में यह एक क्षेत्रीय नेता बदरुद्दीन अजमल के पास गया, जो देवबंद के पूर्व छात्र थे। वह जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिंद के प्रदेश अध्यक्ष हैं और अब अखिल भारतीय यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के प्रमुख हैं। 2019 के आम चुनाव में अजमल ने अपने वोट कांग्रेस को हस्तांतरित कर दिए। लेकिन पता चला कि इसका कोई लाभ उनको नहीं मिला था। या तो कांग्रेस के पास कोई वोट बैंक नहीं था जिसे वह उन तक पहुंचा सकती थी, या ऐसा नहीं चाहती थी।
युवा मुसलमानों के उत्साह से प्रेरित किशनगंज में निर्णायक बदलाव <strong>AIMIM</strong> की ओर है। मुस्लिम युवाओं ने एक ऐसी पार्टी का साथ दिया है जो अपनी मुस्लिम पहचान के बारे में उसी तरह हीनता से ग्रस्त नहीं है जिस तरह कि राजद अपनी यादव साख को लेकर। <strong>AIMIM</strong> यह कहती है कि वह मुसलमानों के लिए एक इस्लामी पार्टी है।
<strong>AIMIM </strong>की जड़ें विभाजन से पहले वाली रियासत हैदराबाद में हैं। जहां इसकी स्थापना 1927 में आखिरी निज़ाम मीर उस्मान अली खान के खामोश इशारे से हुई थी। 1944 में कासिम रिज़वी नामक एक वकील ने इसका नेतृत्व संभाला और हैदराबाद के भारत में एकीकरण के खिलाफ एक आंदोलन शुरू किया। रजाकारों को अपने हमलावर बल के रूप में इस्तेमाल करके इसने जल्द ही हिंसक रूख अपना लिया। रिजवी को 1948 के बाद जेल में डाल दिया गया और फिर वह पाकिस्तान चले गए।
रिजवी का उत्तराधिकारी अब्दुल ओवैसी था। ओवैसी ने पार्टी को एक पारिवारिक संगठन में बदल करके एक भारतीय राजनीतिक परंपरा का पालन किया है। दाढ़ी, शेरवानी और टोपी की पूर्ण रूढ़िवादी पोशाक पहने अब्दुल ओवैसी के पोते असदुद्दीन ओवैसी अब इसके निर्विवाद नेता हैं। उन्होंने तेलंगाना से एमआईएम के संगठन का विस्तार किया, जहां वह एक मान्यता प्राप्त राज्य पार्टी है। यह महाराष्ट्र में औरंगाबाद और मुंबई और बिहार के सीमांचल में बढ़ रही है। वह अगले साल होने वाले बंगाल विधानसभा चुनावों में अकेले या गठबंधन में उन लोगों के साथ लड़ने की योजना बना रहे हैं जो उन्हें एक भागीदार के रूप में स्वीकार करेंगे। उनके सहयोगी उनके विरोधियों की तुलना में अधिक सावधान हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि उन्हें राजनीतिक वैधता देने का अर्थ है कि मुस्लिम वोट जीवन भर के लिए उनके पास जा सकते हैं।
महाराष्ट्र में मुस्लिम मूड अस्थिर है, जो ओवैसी के लिए अच्छी खबर हो सकती है। उनके मध्य प्रदेश और राजस्थान के कुछ शहरी निर्वाचन क्षेत्रों जैसे भोपाल और जयपुर में भी हालात का अंदाजा लगाने की संभावना है। तेलंगाना में ओवैसी का के. चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ एक समझौता है। केरल कोई मुद्दा नहीं है, क्योंकि वहां के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व समान विचारधारा वाले मुस्लिम लीग द्वारा किया जाता है।
आम तथ्य यह है कि कांग्रेस को उन जगहों से विस्थापित किया जा रहा है, जहां यह अभी भी कायम है। ऐसे स्थानों पर भी वह अब तेजी से हाशिए पर जा रही है। केरल में अभी भी कांग्रेस तुलनात्मक रूप से जीवित हो सकती है। लेकिन जब राहुल गांधी लोकसभा में अपने लिए जगह सुरक्षित करने के लिए केरल जाते हैं, तो वह मुस्लिम लीग की दया पर ऐसा करते हैं।
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि उन्हें अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ सीटें साझा करने में कोई दिलचस्पी नहीं है, जो तर्कसंगत है। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में एक विरासत की स्मृति के अलावा कुछ नहीं करती है। बिहार में अब इस बारे में एक अच्छा तर्क दिया जा रहा है कि राजद जीत के ज्यादा करीब पहुंच सकती थी। अगर उसने उन 70 सीटों पर चुनाव लड़ा होता, जो उसने कांग्रेस के सामने समर्पित कर दिया। इस समय तमिलनाडु में केवल DMK अभी भी कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने के लिए तैयार है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की बेचैनी और यहां तक कि गुस्से के कई कारण हैं। जो महसूस करते हैं कि उनकी पार्टी का नेतृत्व किए जाने के बजाय उसे गुमराह किया जा रहा है। बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हार ने कांग्रेस की संभावनाओं के बारे में उनकी आशंकाओं की पुष्टि की है। यदि आपका एकमात्र कार्य कहीं भी जगह मिलने पर बेख्याली में चलते जाना है, तो छोटे नुकसानों के तबाही में बदलने का खतरा है।.
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