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चित्तौड़गढ़ का साका-जौहर! धधकते अग्निकुण्ड में कूद पड़ीं मां-बहन-बेटियां, मलेच्छों के हाथों से परछाई को भी छूने न दिया

चित्तौड़गढ़ का साका-जौहर

हिंदुस्तान की मिट्टी को उठा कर देखें तो यहां के कण-कण में महापुरुषों के बलिदान की बीज नजर आएगी। हिंदुस्तान ने कई लड़ाईयां लड़ी, यहां की मिट्टी में जितना पुरुषों का बलिदान है उतना ही महिलाओं का भी। आज हम बात करेंगे जब चित्तौड़ का पहला साका-जौहर हुआ था। ये 1303 ईस्वी की कहानी है जब इस्लामी फ़ौज के आगे मुट्ठीभर हिन्दू सैनिक शत्रु-संख्या की परवाह किए बगैर मरने और मारने के उद्देश्य से उन पर टूट पड़े थे। इसी दौरान चित्तौड़ का पहला साका-जौहर हुआ था। क्योंकि, अफगानिस्तान से आए बर्बर, कामुक हत्यारों ने महिलाओं के पास कोई विकल्प नहीं छोड़ा था। मेवाड़ की महिलाओं ने आक्रमणकारियों के सामने किसी भी तरह के समर्पण करने से इनकार करते हुए जौहर किया था। आईए जानते हैं इतिहास के इसे पन्ने के बारे में जो हर हिंदुस्तानी के हृदय में तब तक जीवित रहेगा, जब तक आखिरी हिंदू जीवित है।

आज हम बात करेंगे इतिहास की उस घटना की, जब चित्तौड़ का पहला साका-जौहर हुआ था। 18 अगस्त 1303 ईस्वी, चित्तौड़ का पहला साका-जौहर। जब टिड्डीदल की भांति बहुत बड़ी संख्या में इस्लामी फ़ौज किसी छोटे राज्य पर आक्रमण करती थी तब अपने धर्म, अपने मंदिर, अपने आराध्य की रक्षा के लिए मुट्ठीभर हिन्दू सैनिक शत्रु-संख्या की परवाह किए बगैर मरने और मारने के उद्देश्य से उन पर टूट पड़ते थे, उस शौर्य को साका कहा जाता है। पुरुष योद्धा निश्चिंत होकर युद्ध कर सकें और यदि वे वीरगति को प्राप्त हो जाएं तो जीते-जी स्वयं की पवित्रता बनाए रखने व हिन्दू बने रह कर ही पंचतत्व में विलीन होने की प्रतिज्ञा, जौहर आधार था।

इसमें स्त्रियां स्वयं के शरीर को पवित्र अग्नि को समर्पित कर देती थी। चूंकि मेवाड़ इस्लामी सत्ता के विरोध का सबसे बड़ा केंद्र था, इसलिए सबसे अधिक साका-जौहर राजस्थान में हुए। वरन् मध्यकालीन इतिहास पूरे भारतवर्ष के ऐसे साका-जौहरों से भरा पड़ा है। भारत में इस्लाम के आक्रमण के साथ ही बलपूर्वक धर्म बदलने, गुलाम बनाने व स्त्रियों के शीलभंग करने की प्रथा ने प्रवेश किया। साका-जौहर मुस्लिम फ़ौज के उन अमानवीय कृत्यों के विरुद्ध हिन्दुओं का एक प्रमुख शस्त्र था।

गज़नी के महमूद ने जब सोमनाथ पर आक्रमण करने के लिए कूच किया, तब भीमदेव सोलंकी से पहले उसका सामना राजस्थान की गोगागढ़ रियासत के चौहानों से हुआ। कन्हैयलाल माणिकलाल मुंशी ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'जय सोमनाथ' में उस समय हुए साका-जौहर का उल्लेख किया है।

'गोगाराणा की यशगाथा' अध्याय में वे लिखते हैं कि केसरिया पगड़ी बाँध कर जब गोगारणा गज़नी की सेना से युद्ध करने चले तब झरोखों में कुंकुम-अक्षत लिए खड़ी वीरांगनाओं को उन्होंने सम्बोधित किया – "क्यों लड़कियों! हमारे साथ कैलाश आने की हिम्मत है या नहीं? और वे हँसे, मानो विवाह मंडप में कुटुम्बियों को निमंत्रित कर रहे हों!"

"जो व्यक्ति या समाज स्वतंत्र रहने के लिए स्वयं की बलि देने को स्वीकार कर लेता है, वह भय से मुक्त हो जाता है। उसकी चेतना भौतिक जगत के नियमों का अतिक्रमण कर के मुक्त हो जाती है। मृत्यु ऐसे समाज के लिए बच्चों का खेल बनकर रह जाती है। यही घटना साका-जौहर का मूल आध्यात्मिक आधार थी। चित्तौड़ के हमारे महिमाशाली पूर्वज अपने गौरवशाली जीवन तथा उससे भी गौरवशाली मृत्यु के द्वारा हमें समझा गए कि स्वतंत्रता और आत्म सम्मान जीवन से कहीं अधिक मूल्यवान है।"

चित्तौड़ के रक्षक योद्धा अपना हृदय कठोर कर, पथराई आंखों से अपनी पत्नियों, मांओं, बहनों एवं पुत्रियों को एक जुलूस के रूप में, मोक्ष के पथ पर जाते हुए देख रहे थे। पतियों ने अपनी पत्नियों की मांग अंतिम बार भरी। जिन स्त्रियों के आलिंगन में प्रेम की चरम अनुभूतियां छुई थीं, उनसे अंतिम बार आंखें मिलीं। हर पुरुष असहाय भी था और निश्चिंत भी। असहाय, क्योंकि अपनी स्त्री को जलने भेज रहा था, निश्चिंत इसलिए कि अब कोई दुर्गंध से युक्त म्लेच्छ उसकी स्त्री को नहीं छू सकता था।

बापों ने बेटियों के माथे चूमे होंगे! अंतिम बार अपनी लाडली के तन की सुगंध से अपनी आत्मा को तरंगित किया होगा! नन्हे बच्चों को मांओं से बांधते समय झूठी दिलासा दी होगी कि मैं भी पीछे-पीछे आ रहा हूं। पुरुषों व गुरुओं ने अपना हृदय पाषाण कर, सब संवेदनाओं से रिक्त कर लिया होगा कि यदि दुर्बलता की एक लकीर भी चेहरे पर दिखी तो हमारी नारियों की अंतिम यात्रा कष्टपूर्ण हो जाएगी। और यह सौ, दो सौ, पांच सौ लोगों की नहीं, पूरे चित्तौड़ के सहस्त्रों लड़ाकों व उनके परिवारों की भावदशा थी।

आत्मसम्मान की रक्षा व बर्बरता के प्रति अस्वीकार की हठ के सम्मुख जीवन, संबंध, करुणा, प्रेम, ममता… सब गौण व निरर्थक हो गया था। हमारे इन अद्भुत पूर्वजों से जो क्रूरतम शक्तियां भी नहीं छीन सकती थीं, वह था 'आत्मगौरव'। उस दिन जौहर की उठती ज्वाला में जो अब सुरक्षित था। अग्नि की ज्वाला में अपना जीवित शरीर समर्पित कर देना किसी भी प्रकार से सरल नहीं है। काल व वार्धक्य से एक दिन जो शरीर चुक ही जाना था, हिन्दू वीरांगनाओं ने उस दिन स्वेच्छा से राख कर दिया।

सभी जातियों की महिलाएँ, चाहे वे किसी भी आयु की हों या उनके वस्त्र कैसे भी हों, सभी ने जौहर के उस गौरवशाली दिन, सिर उठा के, स्वेच्छा से स्वयं को अग्नि को समर्पित कर दिया। अत्यंत सुन्दर रानी पद्मिनी ने अपने सुन्दर शरीर, गौरवर्णी त्वचा को जलते हुए, फफोलों में बदलने का पीड़ादायक मार्ग चुना, क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान से आए इन बर्बर, कामुक हत्यारों ने उनके पास कोई विकल्प नहीं छोड़ा था। जौहर, मेवाड़ की उन महान स्त्रियों के साहसी अस्वीकार का एक उदाहरण है, जिन्होंने तातारी आक्रमणकारियों के सामने किसी भी तरह के समर्पण से मना कर दिया।

यह उन स्त्रियों का दृढ़ संकल्प ही था, जिसके कारण आक्रांता उन्हें छूना तो दूर, उनके शरीर को देख भी नहीं पाए। यही कारण है कि चित्तौड़ की महान रानी पद्मिनी ने, लगभग 20000 विश्वासपात्र दासियों, सखियों एवं चित्तौड़ की साधारण नारियों के साथ उन क्रूर व्यभिचारी आक्रांताओं के मुंह पर द्वार बंद कर दिया, जिनके आचार-विचार-व्यवहार में सुंदरता एवं शुचिता का कोई मूल्य नहीं था। हिन्दू स्त्री शक्ति ने मुस्लिम पुरुषों की कुरूप वासना को एक भयानक उपक्रम से अस्वीकार कर, तिरस्कृत कर दिया।

जौहर की आत्माहुति से देवीस्वरूपा महारानी पद्मिनी ने भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष को सदा के लिए जड़वत कर दिया। जौहर की ज्वाला से उड़ते अंगारों ने इन बर्बर शक्तियों के साथ सह अस्तित्व की सभी संभावनाओं को भस्म कर दिया। यह स्पष्ट हो गया था कि ये मतांध तातार हमें बलपूर्वक अपने अधीन करना चाहते हैं और हम यह होने नहीं देंगे।

उस पवित्र दिन हुए जौहर ने, आने वाली पीढ़ियों को भी यह संदेश दिया कि लुटेरों के इस झुण्ड से लड़ने के लिए उन्हें भी बलिदान देना होगा, जैसा महारानी पद्मिनी ने किया और सम्मान के साथ अमरत्व को प्राप्त हो गईं। चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी इस देश के महान लोगों के हृदय में तब तक जीवित रहेंगी, जब तक आखिरी हिंदू जीवित है।