'महा'रण में कंगना रणौत

सुशांत सिंह राजपूत आत्म/हत्या मामले में सोशल मीडिया पर जिन लोगों ने लगातार संघर्ष किया उसमें एक नाम अभिनेत्री कंगना रणौत का भी है। उन्होंने न केवल महाराष्ट्र पुलिस की कार्यशैली पर सवाल उठाया बल्कि पूरे मामले को सीबीआई को सौंपने के लिए भी अभियान चलाया। तो क्या ये उनकी गलती थी, इसलिए महाराष्ट्र सरकार और शिवसेना ने उनसे युद्ध का ऐलान कर दिया?

ये कारण तो हैं, लेकिन ये इकलौता कारण नहीं है जो शिवसेना ने कंगना रणौत पर राजनीतिक और प्रशासनिक हमला किया है। सुशांत सिंह राजपूत मामले में जिस ड्रग्स कार्टेल का कोण सामने आ रहा है, उसमें एक बात तो साफ है कि बिना राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण के ऐसे कार्टेल संचालित नहीं होते हैं। सोशल मीडिया पर जिस "बेबी पेंग्विन" के शामिल होने का शक जाहिर किया जा रहा है, वह सीधे शिवसेना के "पवित्र परिवार" को शक के घेरे में लाता है। ऐसे में महाराष्ट्र पुलिस से जांच निकलकर सीबीआई के हाथ में जाने भर से शिवसेना का बैखलाना स्वाभाविक है। लेकिन इस बौखलाहट की एक राजनीतिक वजह और है। वह है शिवसेना की हिन्दुत्ववादी राजनीति पर मंडराता संकट।

बीते एक दशक से भाजपा और शिवसेना के बीच बड़े छोटे होने की रस्साकसी चल रही है। बाल ठाकरे के जिन्दा रहते ये विवाद सतह पर नहीं आया, लेकिन 2012 में बाल ठाकरे के निधन के बाद ये जंग सतह पर आ गयी। 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होकर उभरी और उसने मुख्यमंत्री पद पर अपना दावा किया। लंबे समय तक हुई उठापटक में आखिरकार भाजपा को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गयी और शिवसेना का समर्थन भी, लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव में ऐसा नहीं हो सका।

एनसीपी नेता शरद पवार ने प्रयास करके शिवसेना को अपने साथ मिला लिया और मुख्यमंत्री की कुर्सी भी दे दी। इसे शिवसेना ने अपनी जीत के तौर पर देखा और 122 सीट पाने के बाद भी भाजपा विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होकर रह गयी। लेकिन भाजपा को सबक सिखाने के लिए शिवसेना ने जो समझौता किया वह राजनीतिक रूप से उसके अपने ही डेथ वारंट पर हस्ताक्षर था।

कांग्रेस और एनसीपी के साथ जाने के लिए उसे अपने हिन्दुत्व के मुद्दे को अघोषित रूप से छोड़ना पड़ा और राम मंदिर भूमि पूजन से भी शिवसेना ने अपनी दूरी ही बनाये रखी और खुलकर एक बयान तक नहीं दिया। जाहिर तौर पर भले ही शिवसेना ये कहे कि हिन्दुत्व पर उसे किसी से प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है लेकिन व्यावहारिक तौर पर अब वह कट्टर हिन्दुत्ववादी पार्टी नहीं दिख सकती। इसलिए उसने अपने उसी पुराने मुद्दे को फिर से हाथ में उठाया है जिसके जरिए शिवसेना की राजनीतिक शुरुआत हुई थी।

साठ और सत्तर के दशक में मुंबई की मिलों पर कम्युनिस्ट कामगार संगठनों का कब्जा था। इससे कांग्रेस नेतृत्व भी परेशान था और उद्योगपति भी। कांग्रेस खुलकर कामगारों के खिलाफ खड़ा नहीं होना चाहती थी लेकिन वह यूनियनबाजी से भी मुक्ति चाहती थी, ताकि मिल मालिक बिना किसी परेशानी के कारोबार कर सकें।

कांग्रेसी नेताओं की शह पर माधव देशपांडे ने मराठी अस्मिता की रक्षा के लिए "उठा अणि एक ह्वा" उठो और एक हो, अभियान की शुरुआत की। 1966 में मार्मिक कार्टून पत्रिका के संपादक बाल ठाकरे ने भी स्थानीय लोगों के लिए शिवाजी के नाम पर शिवसेना के गठन का ऐलान किया और बाद में माधव देशपांडे की संस्था का शिवसेना में विलय हो गया। एक तरह से कांग्रेस ने शिवसेना को उभारने में मदद की ताकि वामपंथी ट्रेड यूनियनों को समाप्त किया जा सके।

शिवसेना के निशाने पर मुख्य रूप से दक्षिण भारतीय थे। लेकिन कालांतर में मराठी अस्मिता को इस तरह से उठाया गया कि उत्तर प्रदेश और बिहार से जानेवाले प्रवासी कामगार भी निशाने पर आ गये। लेकिन रामजन्मभूमि आंदोलन और नब्बे के दशक में पहली बार भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने के बाद शिवसेना ने धीरे-धीरे अपनी छवि को हिन्दुत्ववादी बनाया और प्रवासी उत्पीड़न से अपने आप को अलग कर लिया।

लेकिन शिवसेना की समस्या ये है कि वह पूरे महाराष्ट्र की भी पार्टी नहीं है। उसका प्रभाव मुख्य रूप से मुंबई, पुणे नाशिक, कोंकण और मराठवाड़ा के कुछ जिलों में ही है। शिवसेना को जितनी सीटें मिलती हैं उनमें अधिकांश मुंबई, ठाणे और कोंकण से ही मिलती हैं। लेकिन लगातार शिवसेना में होती फूट और बाल ठाकरे के निधन के बाद शिवसेना इन इलाकों में भी राजनीतिक रूप से उतनी मजबूत नहीं रह गयी है, जितनी नब्बे के दशक तक थी। इसके उलट भाजपा का विस्तार पूरे महाराष्ट्र में है और मुंबई से लेकर विदर्भ तक उसकी राजनीतिक पकड़ है।

नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक उभार के बाद बीजेपी महाराष्ट्र में और भी मजबूत हुई है। 2019 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना से सीटों के बंटवारे के बाद भी उसे 122 सीट और सर्वाधिक 28 प्रतिशत वोट मिले थे। यही शिवसेना की बैखलाहट का कारण है। मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने की चाहत में हिन्दुत्व का मुद्दा उसके हाथ से निकल चुका है। ऐसे में पर-प्रांतीय का मुद्दा उठाकर वह एक बार फिर मराठी वोटों को बटोरकर रखना चाहती है।

कंगना राणावत पर हमला करके वह एक तरफ जहां अपने मराठी माणुस वाली मानसिकता को मजबूत कर रही है, तो वहीं मुंबई के फिल्म उद्योग को संदेश भी दे रही है कि फिल्म इंडस्ट्री में अगर किसी को रहना है तो उसे मातोश्री के दरवाजे पर दस्तक देना होगा। अभी तक शाहरुख खान जैसे सितारों के साथ भी शिवसेना इसी तरह का व्यवहार कर चुकी है और बाद में समझौता करके उनकी रेड चिली कंपनी का विज्ञापन सामना के विशेषांक में छाप दिया था।

शिवसेना की ओर से कंगना पर हमला भी एक साथ दो शिकार करने के लिए किया गया है। एक तो मराठी वोट बैंक को संदेश देने के लिए और दूसरा फिल्म उद्योग पर नियंत्रण बनाये रखने के लिए। लेकिन महाराष्ट्र के इस राजनीतिक रण में कंगना राणावत अकेली नहीं है। केन्द्र सरकार को कंगना राणावत के जान-माल की पूरी चिंता है। इसलिए तत्काल उन्हें वाई प्लस कैटेगरी की सुरक्षा उपलब्ध करा दी गयी है।

इसलिए इस महा रण में अगर किसी को खतरा है तो वो शिवसेना को ही है। क्योंकि शिवसेना विपक्ष में नहीं बल्कि सत्ता में है। ऐसे में अगर हिन्दी फिल्म उद्योग का एक धड़ा भी बाहर जाने पर विचार करना शुरू कर देता है तो इसका दूरगामी परिणाम होगा। वैसे भी हाल में ही व्यापार सुगमता की जो लिस्ट जारी हुई है, उसमें टॉप टेन में महाराष्ट्र का नाम नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि इस बार शिवसेना का ये महा रण शिवसेना सहित पूरे महाराष्ट्र को भारी पड़ जाए।

<strong>(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं, विचार व्यक्तिगत हैं।)</strong>.

डॉ. शफी अयूब खान

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