बीजेपी आलाकमान की रणनीति दूरगामी है। शिवसेनिकों की सहानुभूति से ही बीएमसी पर कब्जा संभव है। आगे लोक सभा चुनावों की तैयारी भी है। इसलिए महाराष्ट्र के सीएम की कुर्सी पर शिवसेनिक शिंदे को बैठाना मजबूरी नहीं जरूरी था। और, क्या-क्या कारण है- जानने के लिए पढ़ें यह खास रिपोर्ट-
'हैदराबाद में फड़नवीस'
महाराष्ट्र में शिंदे युग की शुरूआत हो गई है। कैबिनेट ने फैसले शुरू कर दिए हैं। फैसलों पर अमल भी शुरू हो गया है। लेकिन अभी तक एक सवाल बार-बार लोगों के मन में कौंध रहा है कि 120 विधायकों साथ में होने के बावजूद बीजेपी ने मुख्यमंत्री शिंदे को क्यों बनाया। यह सवाल आज फिर हैदराबाद कार्यकारिणी से शुरू हो गया है। इस कार्यकारिणी में देवेंद्र फड़नवीस का एक विजेता की तरह स्वागत होने वाला था। परिस्थितियां बदली हुई हैं। कहा जा रहा है कि कार्यकारिणी के पाण्डाल से फड़नवीस के कटआउट और पोस्टर भी गायब हैं। भाजपा के आम कार्यकर्ताओं में फिर उत्सुकता जाग गई है।
शिंदे मुख्यमंत्री क्यों?
अखबारों, टीवी चैनलों और यू ट्यूब और ब्लॉग्स पर देश के जाने-माने पत्रकारों से लेकर आम नामा निगारों तक ने अपनी-अपनी नजर से इस सवाल का जबाब और कारण बताने की कोशिश की है। बीजेपी के नेता और प्रवक्ताओं ने भी पार्टी लाइन पर तर्क समझाए हैं। किसी ने कहा है कि बीजेपी ने शिंदे को मुख्यमंत्री इसलिए बनाया ताकि लोगों में यह संदेश न जाए कि पार्टी सत्ता की भूखी है। कर्नाटक और मध्यप्रदेश में ऑपरेशन लोटस की तरह महाराष्ट्र में ऑपरेशन लोटस की पटकथा का क्लाइमेक्स इसलिए बदला गया ताकि शिवसेना का पॉवर सेंटर मातोश्री से निकालकर आम मुबंईकरों के बीच लाया जाए। शिंदे को मुख्यमंत्री इसलिए बनाया कि महाराष्ट्र के लोगों को भरोसा रहे कि बीजेपी खाटी मराठा मानुष का सम्मान करती है। फडनवीस को उपमुख्यमंत्री इसलिए बनाया ताकि बीजेपी कार्यकर्ताओं में किसी तरह का रोष न पनपे।
क्लाईमेक्स पर सस्पेंस!
लगभग 10 दिन तक चले ड्रामे के बाद जब कहानी के पटाक्षेप का समय आया तो बीजेपी आला कमान ने एक और सस्पेंस डाल दिया। महाराष्ट्र के राजभवन में शपथ ग्रहण से पहले अचानक राष्ट्रीय अध्यक्ष मीडिया के सामने आते हैं और वो जो संदेश देते हैं वो फड़नवीस की तारीफ नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष कठोर चेतावनी दी थी। पर्दे के पीछे क्या चल रहा था। यह किसी को नहीं मालूम। और शायद कभी मालूम न भी चले। लेकिन एक बात जो अभी तक समझ में नहीं आई वो यह कि अगर फड़नवीस को महाराष्ट्र की कमान नहीं सौंपनी थी तो फिर ढाई साल से ऑपरेशन की कमान उनके हाथ में क्यों थी?
न उद्धव की शिवसेना चाहिए न उद्धव के उद्दण्ड शिवसेनिक!
कारण- बहुत छोटा लेकिन चुभने वाला है। वो यह है कि उद्धव के नेतृत्व में शिवसैनिक बीजेपी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों के साथ ‘वो सब करते’ थे जो महाराष्ट्र के किसी भी आम और खास के साथ करते थे। बाला साहेब के जमाने में ऐसा नहीं था। शिवसेनिक अपने सहयोगी दलों के समर्थकों को शिव सेनिको के समान ही सम्मान देते थे। यह बहुत गंभीर कारण है। इस पीड़ा को देवेंद्र फड़नवीस ने उस दौरान भी सहा जब वो खुद सीएम थे। शिव सैनिकों की शिकायतें उनके पास आती थीं, वो उद्धव से शिकायतों का जिक्र करते थे। मगर उद्धव ने उन शिकायतों का कोई निराकरण नहीं किया। न ही शिवसेनिकों को कम से कम बीजेपी के कार्यकर्ता या समर्थकों के ‘शोषण’ से कभी रोका। देवेंद्र फड़नवीस ने शिवसेना के साथ पांच साल तलवार की धार पर चलकर निकाले थे।
मराठा राजनीति के लिए शिव सेना में समानांतर शक्तिशाली नेतृत्व जरूरी
इसलिए बहुत जरूरी था कि शिवसेना में उद्धव के समानांतर पॉवर सेंटर को डेवलप किया जाए। जो न केवल हिंदुत्व की विचारधारा को लेकर चले बल्कि बीजेपी का पोषण भले ही न करे लेकिन शोषण न करे। शिंदे की शक्ल में बीजेपी ने उद्धव का विकल्प तो खोज लिया लेकिन शिवसेना में उसकी स्वीकारोक्ति भी बहुत जरूरी थी। क्यों कि शिवसेना से अलग होने वालों की लम्बी फेहरिश्त है, लेकिन कोई भी समानान्तर नेतृत्व बनकर नहीं उभर सका। यहां तक कि बाला साहेब की ट्रू-कॉपी राज ठाकरे भी समानान्तर नेतृत्व नहीं बन सके। इसलिए जरूरी था कि शिवसेना के समानान्तर नेतृत्व शिवसेना में खड़ा किया जाए। बीजेपी के सामने सबसे आसान तरीका था कि विधानमण्डल दल से समानान्तर नेतृत्व खड़ा कर दिया जाए तो उसकी राह आसान होगी। इसलिए 40 विधायकों सहित शिंदे को उभारा गया। लेकिन अब समस्या यह थी कि अगर शिंदे उप मुख्यमंत्री रहते तो मराठा मानुष शिंदे को शिवसेना का नेतृत्व नहीं मानता। इसलिए शिवसेना में ठाकरे परिवार से बाहर उभरे नेतृत्व को भरपूर पॉवर देने के लिए अंतिम समय में शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया गया।
वंशवाद से शिवसेना को मुक्त कराना शिवसेनिकों के दिल की इच्छा
शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का यह ऐसा फैसला था जिसकी भनक एनसीपी-कांग्रेस तो क्या बीजेपी में भी तीन-चार लोगों को छोड़कर किसी को नहीं थी। बीजेपी को उम्मीद है कि मुख्यमंत्री की शक्ल में महाराष्ट्र के विधायक-सांसद ही नहीं पूरा 32 फीसदी मराठा मानुष शिंदे को शिवसेना के नेतृत्व के रूप में स्वीकार कर लेगा। ध्यान रहे, उद्धव पहले भी अपनी जगह पर आदित्य को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। यह किसी को स्वीकार नहीं था। शरद पवार, सोनिया गांधी ही नहीं बल्कि एनसीपी और कांग्रेस के स्थानीय नेताओँ को भी काबिले कबूल नहीं था। कुछ इसी तरह के हालात शिवसेना में भी थे। मराठा मानुष वंशवाद को दल में भले ही स्वीकार कर लेता मगर सत्ता में वंशवाद शिवसेनिकों को पच नहीं रही थी।
फड़नवीस, शिवसेना ही नहीं एनसीपी की फॉल्ट लाइन भी पहचानते हैं
फड़नवीस ने शिवसेना की इसी फॉल्ट लाइन को पहचान लिया और ढाईसाल की कड़ी मेहनत के बाद शिवसेना में समानान्तर पॉवर सेंटर को खड़ा कर दिया। इस कवायद के बाद भी फड़नवीस को काफी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। बीजेपी के एक थिंकटैंक का कहना है कि शीर्ष नेतृत्व ने फड़नवीस को समझाया है कि वो किंग मेकर तो हमेशा रहेंगे लेकिन ढाई साल के शासन में एंटी इनकमबेंसी डेवलप हुई तो उसका ठीकरा किसके सिर रखा जाएगा?उस समय बीजेपी के पास एक तर्क रहेगा कि सत्ता के शीर्ष पर शिवसेनिक है,वो तो सिर्फ सहयोगी हैं। इसके अलावा शिवसेना के बाद एनसीपी में शरद पवार, अजित पवार और सुप्रिया सुले से शक्तिशाली नेतृत्व को उभारना है। मतलब शिवसेना के बाद एनसीपी को वंशावाद से बाहर निकालना है। इस काम को भी देवेंद्र फड़नवीस जैसे कुशल कूटनीतिज्ञ ही कर सकते हैं। मुख्यमंत्री पद के झमेले में पड़कर फड़नवीस इस जिम्मेदारी को शायद ही ठीक से निभा पाते। पार्टी के लिए इतने बड़े बलिदान के बदले पार्टी नेतृत्व उन्हें क्या दे पाएगा- यह तो फड़नवीस के अलावा कोई नहीं जानता होगा। हम लोग तो पृथक विदर्भ राज्य के मुख्यमंत्री की कल्पना ही कर सकते हैं।