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Jammu Kashmir: आत्मरक्षात्मक नहीं, आक्रामक होने का अवसर! घाटी में अल्पसंख्यकों की हो घर वापसी

J&K Target killing: कश्मीर घाटी में सरकार एवं सुरक्षा बलों द्वारा की जा रही आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों के बावजूद नए साल की शुरुआत अत्यंत दुखद और दर्दनाक रही। राजौरी जिले के ढांगरी गांव में हुई आतंकवादी घटना में दो मासूम बच्चों सहित छह नागरिकों की निर्मम हत्या कर दी गयी। इस आतंकी हमले में कई लोग गंभीर रूप से घायल भी हुए हैं। सर्वाधिक परेशान करने वाली बात यह है कि हत्या से पहले मृतकों के आधार कार्ड देखकर उनकी धार्मिक पहचान सुनिश्चित की गई थी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि हत्याओं का आधार धर्म-विशेष के लोगों (अल्पसंख्यकों) के प्रति घृणाभाव था। यह घटना कश्मीर में की जा रही लक्षित हत्याओं (टार्गेटेड किल्लिंग्स) (J&K Target killing) का ही विस्तार लग रही है। कश्मीर घाटी के बाद जम्मू संभाग में इस प्रकार की वारदात को अंजाम देना आतंकियों के बढ़ते दुस्साहस का प्रमाण है। इस घटना ने न सिर्फ हिन्दू और सिख (J&K Target killing) समाज में दहशत पैदा कर दी है, बल्कि सरकार और सुरक्षा एजेंसियों को भी खुली चुनौती दी है।

महबूबा मुफ्ती का आतंक से प्रेम
जम्मू-कश्मीर में क्रमशः बढ़ती आंतकी घटनाओं के विरोध में कई राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने आगे आकर आतंकवादियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की माँग की है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि महबूबा मुफ़्ती इस घटना को ‘भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति’ से जोड़कर आतंक और आतंकवादियों को क्लीन चिट दे रही हैं। वे नज़रबंदी से बाहर आने के बाद से लगातार केंद्र सरकार और सुरक्षा एजेंसियों पर हल्ला बोल रही हैं। आतंकियों और अलगाववादियों की सबसे बड़ी हिमायती और हमदर्द महबूबा स्थानीय समाज को भड़काने और विभाजित करने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देती हैं। उपरोक्त घटना का गंभीर संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार को आतंकियों से निपटने की अपनी रणनीति की समीक्षा करने की आवश्यकता है। अब आत्मरक्षात्मक होने की जगह आक्रामक होने का अवसर आ गया है। सरकार को आगे बढ़कर आतंकियों, उनके आकाओं, हिमायतियों और हमदर्दों की कमर तोड़नी चाहिए। आग में घी डालने वाले और आतंकियों को शह देने वाले महबूबा मुफ़्ती जैसे जहरीले साँपों का फन कुचलने का यही समय है। ऐसे लोगों का सही स्थान भारत की संसद या जम्मू-कश्मीर की विधानसभा नहीं बल्कि जेल है। उलजलूल और भड़काऊ बयान जारी करने वाले ऐसे लोगों को तत्काल प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। आतंकवादी संगठनों को बढ़ावा और सहयोग देने वाले नेताओं और कर्मचारियों की पहचान करते हुए उनका सफाया किया जाना चाहिए। ये राष्ट्रद्रोही जिस थाली में खा रहे हैं, उसमें ही छेद कर रहे हैं। राष्ट्र को छलने वाले इन गद्दारों को छलनी करने का यही समय है। आतंकवाद को समूल नष्ट करने और कश्मीरी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आक्रामक आतंकवाद विरोधी अभियानों की आवश्यकता है।

घाटी में खतरे के खौफ़नाक बादल मंडरा रहे हैं
जम्मू-कश्मीर में ‘अल्पसंख्यकों’ (गैर-मुस्लिमों) की हत्या से जुड़ी यह कोई पहली घटना नहीं है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार आतंकवादियों ने पिछले साल कश्मीर में कम-से-कम 29 नागरिकों की हत्या की है। ये लोग गैर-स्थानीय मजदूर और गैर-मुस्लिम सरकारी कर्मचारी हैं। साथ ही, घाटी में तैनात सुरक्षा बलों पर ग्रेनेड हमले सहित लगभग 12 हमले किये गए। पिछले महीने ही घाटी में आतंकवाद से जुड़ी तीन बड़ी घटनाएं सामने आयीं थीं। घाटी में खतरे के खौफ़नाक बादल मंडरा रहे हैं, क्योंकि कुछ आतंकवादी समूह ‘हिटलिस्ट’ जारी कर पा रहे हैं। कुछ समय पहले ही खतरनाक आतंकी संगठन लश्कर-ए-तोयबा की कुख्यात शाखा ‘द रेज़िस्टेंस फ्रंट’ (TRF) ने कश्मीरी विस्थापितों के लिए प्रधानमंत्री विशेष पैकेज के तहत नियुक्त सरकारी कर्मचारियों और राष्ट्रवादी पत्रकारों के नाम और कार्यस्थल वाली तीन ‘हिटलिस्ट’ क्रमशः जारी कीं। इन सूचियों ने आतंकवादियों के साथ कुछ सरकारी कर्मचारियों की मिलीभगत को प्रमाणित किया है। यह सूची जारी करने वाले आतंकियों और उन्हें मुहैय्या कराने वाले सरकारी कर्मचारियों को अभी तक नहीं पकड़ा जा सका है। इसीप्रकार अभीतक ढांगरी के हत्यारों का भी कोई सुराग हाथ नहीं लगा है। इससे जम्मू-कश्मीर जैसे अत्यंत संवेदनशील स्थान पर कार्यरत ख़ुफ़िया एजेंसियों की लापरवाही और अक्षमता जाहिर होती है। ख़ुफ़िया तंत्र को तत्काल अधिक सघन,सजग, सक्रिय, सक्षम और साधनसम्पन्न बनाने की आवश्यकता है।

आतंकी अपना रहे नये हथकंडे
पिछले साल सीमापार से होने वाली घुसपैठ को कम करने और आतंकवादियों को मार गिराने में भारतीय सेना को उल्लेखनीय सफलता मिली है। लेकिन इसके बावजूद एक-के-बाद-एक होने वाले इन क्रूर हमलों ने इस काम को और मुस्तैदी से करने की जरूरत रेखांकित की है। सरकार ने हवाला फंडिंग की कमर तो तोड़ दी है। परन्तु नशीले पदार्थों की तस्करी से आतंकियों को संजीवनी मिलती दिख रही है। उस पर अंकुश लगाना आवश्यक है। आतंकियों के रहनुमा पाकिस्तान पर निरंतर दबाव बढ़ाते हुए प्रत्येक अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसके आतंकी चेहरे को उजागर करने की भी आवश्यकता है। इन हमलों और हत्याओं से अल्पसंख्यकों का भयभीत होना स्वाभाविक है। भयभीत लोगों का पलायन सुरक्षा बलों और सरकार के शान्ति और विकास के प्रयासों को निष्फल कर सकता है।

‘रलिब,चलिब,गलिब’ को दोहराने की कोशिश
जिस दुस्साहस के साथ इस नरसंहार को अंजाम दिया गया, वह कश्मीर के बाद अब जम्मू संभाग में साम्प्रदायिक नफरत और आतंक के फैलाव को दर्शाता है। अपराधियों द्वारा पहले खुली धमकी देना और फिर अल्पसंख्यकों को चिह्नित करके निशाना बनाना पाकिस्तान प्रायोजित साजिश का हिस्सा है। यह ‘रलिब,चलिब,गलिब’ को दोहराने की कोशिश है। साम्प्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा देते हुए शांति, सौहार्द और सह-अस्तित्व के भारतीय विचार को कुचला जा रहा है। राजौरी की घटना ने 90 के दशक जैसे हालात की वापसी और भयावह पलायन की आशंका पैदा कर दी है। अनुच्छेद 370 और 35 ए की समाप्ति के बाद जम्मू-कश्मीर के अल्पसंख्यक समुदायों ने तीन दशक के निर्वासन दंश से उबरना शुरू किया था और घाटी में अपनी जड़ों को खोजना शुरू कर दिया था। वे अपने घर-द्वार और खेत-खलिहान की सुध लेने लगे थे। आतंकियों और उनके आकाओं को भला यह कैसे सुहाता? इन टारगेट किलिंग्स ने ‘घर वापसी’ की योजनाओं को पलीता लगाने का काम किया है।

जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना और उनका मनोबल बढ़ाना जरूरी
लोग एक ऐसे सुरक्षित और संरक्षित वातावरण में रहने-बसने की आकांक्षा रखते हैं, जहाँ वे बिना किसी डर के स्वतंत्र रूप से अपने दैनंदिन कार्यकलापों को पूरा कर सकें। इसीलिए उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना राज्य का प्राथमिक कर्तव्य है। अगर विस्थापित कश्मीरियों को घाटी से पलायन के लिए विवश किया गया तो आतंकियों और उनके आकाओं के मंसूबे पूरे हो जायेंगे। यह समय मैदान छोड़ने तथा आतंकवादियों द्वारा किये जा रहे नरसंहारों के आगे घुटने टेकने का नहीं, बल्कि जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और उनका मनोबल बढ़ाने का है। टीआरएफ जैसे आतंकवादी संगठनों की धमकियों का गंभीरता से संज्ञान लेने, उनके संचालकों की पहचान करने तथा उन्हें बेरहमी से कुचलने का समय आ गया है। केंद्र सरकार को श्रीलंका से सबक सीखने की आवश्यकता है। ईंट का जवाब पत्थर से देकर ही श्रीलंका में लिट्टे का सफाया किया गया था। फिर भारत सरकार कब तक निर्दोष नागरिकों के नरसंहार की मूकदर्शक बने रहना चाहती है? क्या हमारे सुरक्षा बलों के पास शस्त्र, साहस और संकल्प नहीं है? सिर्फ इच्छाशक्ति के अभाव और छद्म मानवाधिकार संगठनों की परवाह के चलते ही आतंकी कश्मीर में निर्दोष नागरिकों का खून बहा रहे हैं।

आतंक को उखाड़ फेंकने के लिए पूरी ताकत लगाने की जरूरत
उल्लेखनीय है कि पीओजेके वासियों पर जुल्मोसितम ढाने वाला पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र संघ आदि अन्याय वैश्विक मंचों पर जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन का रोना रोता रहता है। दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि एमनेस्टी इंटरनैशनल,ह्यूमन राइट्स वाच,रेडक्रॉस, माइनॉरिटी राइट्स ग्रुप, ऑक्सफेम और एक्शन ऐड जैसे पश्चिमी जगत के तमाम मानवाधिकार संगठन पीओजेके में पाकिस्तान की क्रूरताओं और सीओजेके में चीन की हरकतों को अनदेखा करते हैं। पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों-हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई और पारसी आदि के साथ-साथ शिया और अहमदिया मुसलमानों पर बेइंतिहा ज्यादतियां हो रही हैं। इसीप्रकार चीन के शिनजियांग प्रान्त में उइगर मुसलमानों पर जारी अत्याचारों की सुध न तो ‘मुसलामानों का सबसे बड़ा हमदर्द और हितैषी’ पाकिस्तान ले रहा है, न ही अन्याय मानवाधिकार संगठन आवाज़ उठा रहे हैं। यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् भी पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर में जारी दमन-उत्पीड़न का गंभीर संज्ञान नहीं ले रही है। यह चुनिन्दा चुप्पी मानवता को लज्जित करती है। अब भारत सरकार और सुरक्षा एजेंसियों को इन भाड़े के भोंपुओं से बेपरवाह होकर अपना काम करना चाहिए और अपने निर्दोष नागरिकों की रक्षा के लिए पूरी ताकत और संसाधन झोंक देने चाहिए।

घाटी में अल्पसंख्यकों की हो घरवापसी
घाटी में अल्पसंख्यकों की घरवापसी और विकास के लिए सुरक्षित आश्रयस्थलों का निर्माण किया जाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर के आतंकवादग्रस्त जिलों में सर्वसुविधासम्पन्न बड़े-बड़े रिहायशी और व्यावसायिक परिसर बनाये जाने चाहिए। इन परिसरों में न सिर्फ कश्मीरी विस्थापितों को भूखंड आबंटित किये जाएं, बल्कि सेना और अर्ध-सैनिक बलों के पूर्व-कर्मियों को भी रियायती दर पर भूखंड आबंटित किये जाने चाहिए। इन परिसरों में किसी भी भारतीय को रियायती दर पर भूखंड खरीदने का अधिकार दिया जाना चाहिए। इसीप्रकार कश्मीर में बड़े-छोटे उद्योग स्थापित करने वालों और अपना रोजगार शुरू करने वाले दुकानदारों, रेहड़ी-ठेले वालों आदि को रियायती ब्याज पर ऋण और सब्सिडी दी जानी चाहिए। उन्हें काम-धंधे/व्यवसाय के मुफ्त बीमे के अलावा जीवन बीमा की सुविधा भी दी जानी चाहिए। आसानी से लाइसेंस मुहैय्या कराते हुए सस्ते दाम पर शस्त्र उपलब्ध कराये जाने चाहिए। इससे इन परिसरों में बसने वाले लोग अपनी सुरक्षा के लिए सिर्फ सुरक्षा बलों पर ही निर्भर नहीं रहेंगे। पिछली सदी के आखिरी दशक में आतंक अपने चरम पर था। उस वक्त लालकृष्ण आडवाणी जी के प्रयासों से प्रत्येक गाँव के स्थानीय नागरिक समाज को जोड़कर विलेज डिफेंस कमेटियों (वी डी सी) का गठन किया गया था। एकबार फिर जम्मू-कश्मीर में इन कमेटियों का पुनर्गठन करने की आवश्यकता है। इन्हें साधनों, संसाधनों और सुविधाओं से भी लैस किया जाना चाहिए। ये कमेटियां आतंकियों को मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम होंगी और स्थानीय समाज की विश्वास बहाली और सक्रिय भागीदारी का आधार भी बनेंगी। यह अकारण नहीं है कि ढांगरी में आतंकियों द्वारा खेले गए खूनी खेल के बाद जोर-शोर से विलेज डिफेंस कमेटियों के गठन की माँग उठ रही है। उल्लेखनीय है कि ऐसी ही वीडीसी के सदस्य रहे कपड़ा दुकानदार बालकृष्ण उर्फ़ बाला ने अगर उस दिन अपनी राइफल न उठाई होती तो मृतकों की संख्या दर्जनों में हो सकती थी। दुर्भाग्यपूर्ण है कि महबूबा जैसे विषाक्त-बुद्धियों को वी डी सी के गठन में भी साम्प्रदायिकता नज़र आ रही है।

घाटी में अल्पसंख्यकों के लिए मुसलमानों को भी होना चाहिए खड़ा
जब तक सभी समुदायों का योगदान न हो, तब तक स्थिरता और शान्ति स्थापित नहीं हो सकती है। स्थानीय शांतिप्रिय मुसलमानों को भी विश्वास में लिया जाना चाहिए, क्योंकि उनका समर्थन और सहयोग उनके अल्पसंख्यक भाइयों-बहनों को खून के प्यासे आतंकवादियों से बचाने में मददगार होगा। मादर-ए-वतन भारत के दुश्मनों के नापाक मंसूबों को नाकाम करने के लिए जम्मू-कश्मीर की बहुसंख्यक जनता यानि कि मुसलमानों को भी अल्पसंख्यकों के साथ खड़े होकर शान्ति और साम्प्रदायिक सद्भाव का झंडा बुलंद करते हुए विकास और बदलाव की नयी इबारत लिखनी चाहिए।

(लेखक- प्रो. रसाल सिंह जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं)

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आईएन ब्यूरो

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