जनता का समर्थन 'राष्ट्र के नाम' है

गुरुवार 24 सितंबर को रिपब्लिक मीडिया के साथ दो घटनाएं एक साथ घटित हुईं। एक, रिपब्लिक टीवी के साथ जुड़े एक रिपोर्टर पर मुंबई में दूसरे मीडिया चैनलों के रिपोर्टरों ने ही हमला कर दिया। दूसरी घटना ये हुई कि बीएआरसी की रेटिंग में लगातार छठे सप्ताह हिन्दी और अंग्रेजी चैनलों में रिपब्लिक मीडिया समूह के दोनों चैनल नंबर वन की पोजीशन पर बने रहे।

लंबे समय से हिन्दी टीवी चैनलों के नंबर एक पायदान पर खड़े आज तक को रिपब्लिक भारत ने बीते छह हफ्तों से दूसरे नंबर पर ढकेल रखा है। दोनों चैनलों के बीच दर्शकों का अंतर इतना अधिक है कि आजतक कहीं दूर-दूर तक रिपब्लिक भारत को छूता नहीं है। सवाल ये है कि एक ही दिन घटित इन दोनों घटनाओं को मीडिया जगत को किस तरह से देखना चाहिए?

एनडीटीवी से टीवी पत्रकारिता में कदम रखनेवाले अर्णब गोस्वामी ने वहां से हटने के बाद टाइम्स नाऊ ज्वाइन कर लिया था। नवबंर 2016 में इन आरोपों के बाद उन्होंने टाइम्स नाऊ छोड़ दिया था कि अर्णब गोस्वामी न्यूज रूम में मीडिया नैतिकता का पालन नहीं करते। जब वो टाइम्स नाऊ में थे तो उनका न्यूजआवर शो ही नंबर वन डिबेट शो नहीं होता था बल्कि अंग्रेजी चैनलों में टाइम्स नाऊ भी लगातार नंबर वन की पोजीशन पर बना रहता था।

लेकिन टाइम्स नाऊ छोड़ने के बाद अर्णब गोस्वामी ने ऐलान किया कि वो अपना अंग्रेजी और बाद में हिन्दी चैनल लेकर आयेंगे। उन्होंने अपने टीवी चैनल का नाम रिपब्लिक घोषित किया लेकिन विवाद के बाद उसके साथ टीवी जोड़कर रिपब्लिक टीवी बना दिया। इस घोषणा के करीब छह महीने बाद मई 2017 में रिपब्लिक टीवी अंग्रेजी का प्रसारण शुरु हुआ। इसके करीब दो साल बाद फरवरी 2019 में अर्णब गोस्वामी ने रिपब्लिक भारत नाम से हिन्दी चैनल भी लांच किया।

रिपब्लिक नेटवर्क में राज्यसभा सांसद रहे राजीव चंद्रशेखर के एशियानेट न्यूज नेटवर्क ने प्राथमिक निवेश किया। इसके अलावा अर्णब गोस्वामी, शिक्षा व्यवसाई मोहनदास पई और एशियन हर्ट इंस्टीट्यूट के डॉ रमाकांत पांडे ने भी इस चैनल में पूंजी निवेश किया है। मतलब इस मीडिया वेन्चर में किसी बड़े व्यावसायिक घराने से पूंजी निवेश नहीं करवाया गया। जिन लोगों ने पूंजी निवेश किया वो सीधे-सीधे अर्णब की पत्रकारिता पर निवेश कर रहे थे। और आज सितंबर 2020 में अर्णब गोस्वामी ने साबित कर दिया कि उनके जैसी पत्रकारिता ही भारत देखना और सुनना चाहता है। इसलिए आज अर्णब गोस्वामी के दोनों ही चैनल अपने अपने वर्ग के नंबर वन चैनल हैं।

सवाल यह है कि अर्णब गोस्वामी गोस्वामी ने ऐसा क्या किया कि 10-20 साल से स्थापित हिंदी और अंग्रेजी के चैनलों को उन्होंने साल दो साल में ही पीछे धकेल दिया?

एक लाइन में कहें तो इसका उत्तर है ये मीडिया का राष्ट्रवादी काल है। अर्णब गोस्वामी की पत्रकारीय यात्रा को देखेंगे तो पायेंगे कि वो सदैव से ही आक्रामक और मुखर रहे हैं। इसलिए उन्होंने रिपब्लिक टीवी को भी वही स्वरूप दिया, मुखर और आक्रामक। पहले से मौजूद मीडिया मुगलों के बीच जगह बनाना अर्णब के लिए इतना भी आसान नहीं था। उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। उनके पत्रकारों को कुछ सेकुलर नेताओं ने धक्के मारकर बाहर निकलवा दिया। सोशल मीडिया पर कम्युनिस्ट और इस्लामिस्ट समर्थकों द्वारा भी हमले किये गये। उन्हें उत्पाती और अराजकतावादी करार दिया गया लेकिन अर्णब और उनकी टीम अपने रास्ते पर अडिग होकर डटी रही।

दिल्ली दंगों में पहली बार रिपब्लिक भारत को बड़ी उछाल मिली जब रिपब्लिक टीवी ने सीधे दंगाइयों और उनके समर्थकों पर हमला बोला। दिल्ली दंगों के मुख्य आरोपी ताहिर हुसैन को लेकर जितना आक्रामक रुख रिपब्लिक नेटवर्क ने अख्तियार किया, उतना किसी और चैनल ने नहीं। दिल्ली दंगों की रिपोर्टिंग के दौरान ही आज तक और इंडिया टुडे टीवी ने तुष्टीकरण करना शुरू कर दिया। इंडिया टुडे टीवी के प्रबंध संपादक राजदीप सरदेसाई का पक्षपात दिल्ली दंगों की रिपोर्टिंग पर साफ नजर आया, और पूरे टीवी टुडे समूह की पत्रकारिता पर संदेह पैदा हो गया।

दिल्ली दंगों के बाद पालघर में दो साधुओं की हत्या के मामले में भी अर्णब गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी ने इतना आक्रामक रुख अपनाया कि सोनिया गांधी को इस घटना के लिए सीधे जिम्मेवार ठहरा दिया। इसका नतीजा ये हुआ कि कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और नेताओं ने अलग अलग राज्यों में उनके ऊपर सौ से अधिक एफआईआर दर्ज करवा दिया। मुंबई पुलिस ने भी अर्णब से कई कई घण्टे पूछताछ की। लेकिन इन सबसे अर्णब गोस्वामी पीछे हटने की बजाय आगे बढ़े। उन्होंने सिर्फ चैनल का घोषवाक्य ही राष्ट्र के नाम नहीं किया बल्कि उन्होंने अपनी पत्रकारिता को भी राष्ट्र के नाम कर दिया।

हाल फिलहाल में सुशांत सिंह राजपूत की आत्म/हत्या मामले में रिपब्लिक टीवी ने एक तरह से अकेले ही स्टैण्ड लिया और आज भी बॉलीवुड के अलग-अलग गैंग को चुनौती दे रहे हैं। अर्णब गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी के साहस ने उनकी और उनके चैनल की विश्वसनीयता बढ़ाई है।

राजनीति में इसी साहस और आक्रामकता का परिचय 2012-13 में नरेन्द्र मोदी ने दिया था। जब गुजरात से निकलकर उन्होंने दिल्ली पर अपना दावा किया था। उनको रोकने की लाख कोशिश हुई, उन्हें तरह-तरह से परेशान किया गया। लेकिन आखिरकार राष्ट्र ने मोदी को स्वीकार किया और उन्हें उम्मीद से बढ़कर बहुमत दिया। कुछ ऐसा ही समर्थन इस समय पत्रकारिता में अर्णब गोस्वामी और उनकी आक्रामक राष्ट्रवादी पत्रकारिता को मिल रहा है। जिन्हें समझना हैं वो समझ सकते हैं कि भारत में राजनीति का ही नहीं बल्कि पत्रकारिता का भी राष्ट्रवादी काल आरंभ हो चुका है। इससे अलग होकर कोई एनडीटीवी होना चाहे तो ये उसका चुनाव है, जनता का समर्थन 'राष्ट्र' के नाम है।.

डॉ. शफी अयूब खान

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