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वैचारिक विरोध का व्यावहारिक युद्ध था दिल्ली दंगा

वैचारिक विरोध का व्यावहारिक युद्ध था दिल्ली दंगा

कम्युनिस्टों के बारे में यह तय कर पाना मुश्किल है कि भारत में वो किससे लड़ रहे हैं? क्यों लड़ रहे हैं? उनके युद्ध का उद्देश्य क्या है? 2020 में ये सवाल सुनकर आपको शायद भरोसा न हो कि जब राजनीतिक रूप से कम्युनिस्ट दल केरल तक सिमटकर रह गये हैं, तब इस सवाल का मतलब क्या है?

मतलब है और बहुत गहरा मतलब है। कम्युनिस्ट एक राजनीतिक आवाज के रूप में भले ही समाप्त हो गये हैं लेकिन बौद्धिक और गैर सरकारी संगठन व्यवस्था में वो इतने ताकतवर हैं कि बीते 6 सालों से बिखरे हुए वामपंथी बुद्धिजीवी बहुत संगठित तरीके से मोदी सरकार से मोर्चा ले रहे हैं। उस मोर्चे का सबसे भीषण और निकृष्ट स्वरूप था-दिल्ली का दंगा। जिसे कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों, उनके एनजीओ समूहों, मीडिया में मौजूद उनके साथियों और जमीन पर इस्लामिस्ट गिरोहों के साथ अंजाम दिया गया।

दिल्ली दंगों को आप करीब से देखकर अगर समझने का प्रयास करेंगे तो वही सवाल सामने होगा, जहां से इस लेख की शुरुआत हुई है। क्या सिर्फ एक ऐसी सरकार से लड़ने के लिए इतना वीभत्स तरीका अपनाया गया, जिसे वो स्वीकार नहीं करते? अगर इस सवाल के जवाब में मान भी लें कि वो नरेन्द्र मोदी सरकार को किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं करना चाहते तो सवाल उठता है कि इस सरकार से उनकी ऐसी शिकायत क्या है जिसकी वजह से वो सरकार विरोधी हो गये?

सरकार से शिकायत का सवाल होता तो नरेन्द्र मोदी का यह विरोध गुजरात से नहीं शुरू होता। थोड़ा सा और अतीत में जाएं तो पायेंगे कि ऐसा ही विरोध तो अटल बिहारी वाजपेयी का भी होता था। एक उदार व्यक्तित्व के धनी अटल बिहारी वाजपेयी से कम्युनिस्टों की घृणा का कारण क्या था? चाहे नरेन्द्र मोदी हों या अटल बिहारी वाजपेयी, कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी, रंगकर्मी, साहित्यकार, फिल्मकार, वकील और गैर सरकारी संगठन वाले-सब इनके खिलाफ एकजुट इसलिए हो जाते हैं क्योंकि वो हिन्दुत्व की बात करते हैं। कम्युनिस्ट इकोसिस्टम का विरोध न वाजपेयी से रहा है और न ही नरेन्द्र मोदी से है। उनका विरोध उस हिन्दुत्व से है जो भारत के बहुसंख्यक हिन्दुओं को राजनीतिक रूप से अपने धर्म, समाज, संस्कृति और व्यक्तित्व के पहचान की शक्ति देता है।

वरना क्या कारण था कि दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में सक्रिय एक गैर रजिस्टर्ड संस्था 'पिंजरातोड़' दिल्ली दंगों में इतना बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता? 2016 में पिंजरातोड़ संस्था का जन्म कुछ कम्युनिस्ट पृष्ठभूमि वाली छात्राओं ने इस उद्देश्य से दिया था कि वो कैम्पस में पितृ सत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठायेंगी। इस गिरोह की मुखिया थी देवांगना कलीता।

जब नागरिकता संशोधन विधेयक पारित हुआ तो नेपथ्य में यह गिरोह तत्काल सक्रिय हो गया। शाहीन बाग में महिलाओं के प्रदर्शन में आगे करके पीछे से सारा संचालन पापुलर फ्रंट आफ इंडिया और कोआर्डिनेशन पिंजरातोड़ के पास था। लेकिन ये समूह इतने भर से संतुष्ट नहीं था। वह पूरी दिल्ली को रोक देना चाहता था। इसकी झलक शरजील इमाम के उस भाषण में मिलती है जो उसने शाहीन बाग प्रदर्शन के दौरान दिया था। तब उसने बहुत क्षोभ से कहा था कि इस तरह एक सड़क रोकने से वो हमारी बात नहीं सुनेंगे। हमें असम को भारत से काटने जैसा कुछ बड़ा प्लान करना पड़ेगा। शरजील इमाम तो गिरफ्तार हो गया क्योंकि वो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बनना चाह रहा था। जबकि जो शाहीन बाग में बैठकर दिल्ली को नोएडा से काट चुके थे, वो कम से दिल्ली को पूरे देश से काटना चाहते थे। इसमें पिंजरातोड़ समूह से जुड़ी लड़कियां देवांगना कलीता, शफूरा जरगर, नताशा नरवल मुस्लिम समूहों के साथ कोआर्डिनेशन कर रही थीं। ये तैयारियां जनवरी महीने में शुरु हो गयी थीं कि दिल्ली को बाकी देश से काट देना है।

दिल्ली दंगों की जांच के लिए गठित एसआईटी ने जो 17000 पृष्ठों की चार्जशीट दाखिल की है, उसमें उसने दंगे में प्रत्यक्ष रूप से शामिल लोगों के अपराध का प्रमाण ही सामने नहीं रखा है बल्कि ये पता लगाने का भी प्रयास किया है कि इन दंगों की साजिश कैसे और किन-लोगों ने रची। जिसमें  24-25 फरवरी को 50 से ज्यादा लोगों की जान चली गयी और सैकड़ों लोगों के घर जल गये, हजारों गाड़ियां और संपत्तियां बर्बाद कर दी गयीं।

क्या ये सचमुच केवल जाफराबाद में कपिल मिश्रा के पहुंचने भर से हुआ था या फिर इसकी लंबी तैयारी की गयी थी। कम से कम चार्जशीट में पुलिस की जांच-पड़ताल, मीडिया रिपोर्ट और समसामयिक घटनाएं ये बताने के लिए पर्याप्त हैं कि ये दंगा हिन्दुओं को सबक सिखाने के लिए किया गया था। दिल्ली दंगों में सक्रिय रूप से शामिल आम आदमी पार्टी के पार्षद ताहिर हुसैन पहले ही स्वीकार कर चुका है वो हिन्दुओं को एक सबक सिखाना चाहता था। इसीलिए चांद बाग में ही रहनेवाले आईबी के सिक्योरिटी सहायक अंकित शर्मा की निर्मम तरीके से चाकुओं से गोदकर हत्या कर दी गयी थी। उनके शव को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त करके पास से बहनेवाले नाले में डाल दिया गया था।

ताहिर हुसैन और उसके गुण्डे इस बात को जानते थे कि अंकित शर्मा के रहते दंगों को मनमुताबिक अंजाम तक पहुंचाना मुश्किल है। क्योंकि वो खुफिया विभाग से जुड़े थे, इसलिए सबसे पहले उनको रास्ते से हटाया गया। इससे बाद दो दिनों तक वहां हिन्दुओं पर निर्मम तरीके से हमला किया गया। अपने घरों में दुबके बैठे निरीह हिन्दू चोरी-छिपे वीडियो बनाने से अधिक कुछ नहीं कर पाये। इनका दोष सिर्फ इतना था कि ये हिन्दू थे और मोदी का समर्थन करते थे।

एक गरीब चायवाले की दुकान दंगों में जला दी गयी थी, उसने रोते-रोते टीवी मीडिया वालों से बताया था कि उसका दोष सिर्फ इतना था कि वो मोदी का समर्थन करता था। इसलिए दंगाइयों ने उसकी दुकान जला दी। निश्चय ही दिल्ली दंगा किसी कपिल मिश्रा के भाषण की तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं बल्कि देश में वैचारिक युद्ध लड़ रहे कम्युनिस्टों और इस्लामिस्टों का व्यावहारिक प्रदर्शन था। वही कम्युनिस्ट जो कांग्रेस की पीठ पर बैठकर बीते सत्तर साल से दिल्ली की नीति को नियंत्रित कर रहे थे। वो किसी ऐसी सरकार को कैसे स्वीकार कर सकते हैं जो कम्युनिस्टों के प्रिय इस्लामिक तुष्टीकरण को चुनौती देता हो? इसलिए दिल्ली दंगों के जरिए न केवल मोदी सरकार को बल्कि हिन्दुओं को भी एक "सबक सिखाने" की कोशिश की गयी कि हम अपने पर आ गये तो हमारे सामने तुम कुछ नहीं हो।

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