छठ पूजा को बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और नेपाल की तराई के भोजपुरी और मैथिली इलाके का सबसे बड़ा लोक-पर्व होने का सम्मान हासिल है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है कि छठ पूजा में किसी मुहूर्त या कर्मकांड की बजाय श्रद्धा और उपासना की भूमिका सबसे ज्यादा है। हिंदू धर्म अपनी परंपरा में प्रकृति संरक्षण के विचार के बहुत करीब है और शायद जाने-अनजाने में प्रकृति के लिए श्रद्धा रखता है।
कार्तिक महीने में दीवाली के छठवें दिन भोजपुरी जनमानस पूरे धूमधाम से छठ पर्व को मनाता है, जिसकी शुरुआत दो दिन पहले ही <strong>नहाय खाय</strong> से होती है। इसके नाम से ही जाहिर है कि व्रत रखने से पहले उपासक अच्छे तरीके से शारीरिक स्वच्छता के नियमें का पालन करते हैं और केवल एक बार सादा भोजन करते हैं। नहाय खाय से छठ व्रत रखने वाले खुद को अगले कठोर व्रत के लिए तैयार करते हैं।
इसके अगले दिन उपासक पूरे दिन निर्जल व्रत रखकर केवल सूर्यास्त के बाद खीर और रोटी का प्रसाद ग्रहण करते हैं, जिसे <strong>खरना</strong> कहते हैं। इसके बाद शुरू हो जाता है उपासकों का 36 घंटे का कठोर निर्जल व्रत। छठ व्रत रखने वाले लोग कार्तिक मास की षष्ठी को डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं। उसकी अगली सुबह उगते सूरज की पूजा के बाद उनका कठोर व्रत खत्म होता है। नवरात्रि की तरह की छठ पूजा भी एक वर्ष में दो बार मनाई जाती है। लेकिन चैत्र छठ को भी चैत्र नवरात्रि के समान ही थोड़ा कम महत्व मिलता है।
ऐसा लगता है कि सूर्य उन प्राकृतिक शक्तियों में सर्वप्रथम थे जिनको मनुष्यों ने देवता का पद प्रदान किया। भारत के अतिरिक्त विश्व की कुछ अन्य प्राचीन सभ्यताओं जैसे मिस्र और मेसोपोटामिया आदि में भी सूर्य पूजा का प्रचलन पाया गया है। हिंदू धर्म में उपयोग किए जाने वाले कुछ प्रतीक चिह्नों जैसे चक्र-स्वास्तिक आदि को भी सूर्य पूजा से जोड़कर देखा जाता है। गुप्त काल में सूर्य की प्रतिमा 7 अश्वों के साथ बनाई जाने लगी।
वैदिक काल तक सूर्य की प्रतिमा की कल्पना नहीं की गई थी, इसलिए सीधे उसकी पूजा की जाती थी और वही परंपरा छठ पूजा में भी चली आ रही है। उत्तर वैदिककालीन साहित्य- उपनिषदों और धर्म सूत्रों में भी सूर्य पूजा का उल्लेख मिलता है। परंपरागत वैदिक कालीन प्रकृति पूजा को हिंदू धर्म में विविध धार्मिक परंपराओं और कर्मकांडों का अभिन्न अंग बनाने के कई उदाहरण हैं। ऋग्वैदिक काल में आकाश के सबसे प्रमुख देवता के रूप में सूर्य का उल्लेख किया गया है। उन्हें सर्वदर्शी बताया गया है। उनकी स्तुति ऋग्वेद के पूरे 10 शूक्तों में की गई है। सूर्य का ही एक रूप धरती पर अग्नि को माना गया है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र भी सूर्य भगवान को ही समर्पित है। आज भी साधारण हिंदू स्नान के बाद सूर्य को अर्घ्य देना अपना प्रथम कर्तव्य मानते हैं।
उत्तर वैदिक काल में अनेक ऋग्वैदिक देवताओं का महत्व घटने लगा। वरुण, इंद्र आदि के स्थान पर विष्णु और शिव जैसे देवताओं की पूजा प्रचलित हो गई। उसके बाद कृष्ण और राम जैसे ईश्वर के मानवीय अवतारों की पूजा जोर पकड़ने लगी। इन सबके बावजूद जनमानस में प्रकृति पूजा की परंपरा किसी भी तरह कम नहीं हुई। नदी या जल देवता की पूजा की परंपरा को हम हिंदुओं के सबसे बड़े समागम कुंभ मेला का स्रोत मान सकते हैं। जिसमें धर्म से संबंधित कर्मकांडों को जोड़ कर हिंदू धर्म का एक अनिवार्य अंग बना दिया गया।
<img class="wp-image-18105" src="https://hindi.indianarrative.com/wp-content/uploads/2020/11/छठ-पूजा2-1024×725.jpg" alt="Devotees offering prayers to the Sun at the time of Chhath Puja" width="416" height="295" /> छठ पूजा के समय सूर्य को अर्घ्य देते हुए श्रद्धालुसभी सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों के बावजूद भारतीय लोकमानस में सूर्य पूजा कभी भी उस हिसाब से अप्रचलित नहीं हुई, जैसे इंद्र और वरुण की पूजा हुई। कोणार्क से लेकर मोढेरा तक फैले सूर्य मंदिर इसका प्रमाण हैं। छठ का महापर्व उसी सूर्य पूजा की वैदिक कालीन परंपरा की निरंतरता का एक अनोखा उदाहरण है।
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपनी भारत यात्रा के दौरान बनवाए जा रहे एक सूर्य मंदिर का उल्लेख किया है। भारत में कुषाण वंश के शासन काल में सूर्य पूजा को और ज्यादा महत्व दिया गया। उन्होंने अपने सिक्कों पर सूर्य का चिह्न अंकित करवाया। तुर्क इतिहासकार अलबरूनी ने उल्लेख किया है कि मुल्तान में सूर्य का एक प्राचीन और विशाल मंदिर था। जिसमें हर साल बहुत विशाल उत्सव होता था। बाद में तुर्क हमलावरों ने इसे नष्ट कर दिया। कश्मीर में ललितादित्य ने तो भगवान सूर्य की उपासना के लिए मार्तंड मंदिर भी बनवाया था।
बहरहाल कभी केवल भोजपुरी और मैथिली भाषी इलाकों में सीमित रही छठ पूजा अब प्रवासियों के साथ देश के कोने-कोने में पहुंच गई है। दिल्ली, चंडीगढ़ और मुंबई जैसी जगहों पर भोजपुरी प्रवासी छठ पर्व बड़े धूमधाम से मनाते हैं और अपनी प्राचीन परंपराओं को किस तरह से कायम रखा जा सकता है, इसका संदेश देश को ही नहीं पूरी दुनिया को देते हैं।.
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