मिथिला की सीमा पर बसा सिमरिया धर्म, अध्यात्म व साहित्य का संगम स्थल है। एक तरफ जहां इसे मोक्षधाम के रूप में प्रसिद्धि मिली है वहीं यह साहित्यकारों की तीर्थ स्थली के रूप में जाना जाता है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर सिमरिया में पैदा हुए और देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर में साहित्य जगत में स्थापित हुए। वहीं, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाय तो सिमरिया मिथिलावासियों के लिए एक पवित्र तीर्थस्थली के रूप में है।
हर साल कार्तिक मास मेला का भव्य आयोजन होता है जहां कल्पवासी महीने भर मोक्षदायिनी गंगा में स्नान करते हैं और भगवत भक्ति में तल्लीन रहते हैं। मिथिलावासी के साथ-साथ देश के विभिन्न कोने से श्रद्धालु कल्पवास मेला में पहुंचकर पर्णकुटीर में निवास करते हैं तथा भक्ति सागर में डुबकी लगाते हैं।
जब श्री राम जब माता जानकी को लेकर अयोध्या जा रहे थे तो सीता जी की डोली सिमरिया में ही रखी गई थी।
बेगूसराय की दक्षिण पूर्वी सीमा पर स्थित सिमरिया में वर्ष 2011 में अर्द्धकुंभ तथा वर्ष 2017 में महाकुंभ का आयोजन किया गया जिसमें श्रद्धालुओं ने गंगा में डुबकी लगाई। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान राम, लक्ष्मण और विश्वामित्र ने सिमरिया तट पर कार्तिक महीने के दौरान पूरा एक माह बिताया था। इसी मान्यता के मुताबिक श्रद्धालु हर वर्ष सिमरिया गंगा तट पर झोपड़ी बनाते हैं, जिसे पर्णकुटीर कहते हैं। इस अवधि के दौरान गंगा में एक डुबकी सभी पापों को नष्ट कर देती है। ऐसी मान्यता है कि राजा जनक के समय से कल्पवास की परंपरा सिमरिया गंगा नदी के तट पर है। गंगा अभी भी मिथिला निवासियों के लिए धार्मिक विश्वास का केंद्र है। सिमरिया के बारे में एक और मान्यता यह है कि भगवान राम जानकी के साथ विवाह उपरांत जब अयोध्या लौट रहे थे तो सिमरिया में ही रात्रि विश्राम किया था तथा तब से ही सिमरिया अध्यात्मिक केंद्र के रूप में जाना जाता है। कहते हैं कि सिमरिया मिथिलांचल का सीमावर्ती क्षेत्र है। श्री राम जब माता जानकी को लेकर जनकपुर से वापस अयोध्या की ओर जा रहे थे तो सीता जी की डोली सिमरिया में ही रखी गई थी जहां पर आकर राजा जनक ने सीता जी के पांव पखारे थे। यही वजह है कि सिमरिया को मिथिला का दक्षिणी सीमा के रूप में जाना जाता है।
सिमरिया में कल्पवास मेला को राजकीय दर्जा प्राप्त है।
सिमरिया में गंगा के उत्तरायण होने के कारण इसका काफी ज्यादा पौराणिक महत्व है हिंदू में उत्तरायण गंगा घाट पर स्नान करने का काफी महत्व है। सिमरिया के नाम को लेकर बताया जाता है कि सिमरिया मिथिलांचल और मगध का सीमा है। मिथिला में सीमा को सिमान और मगध में सीमा को अरिया कहा गया है। कहते हैं कि सीमा और अरिया को मिला कर इसका नाम सिमरिया कहा जाता है। वहीं, सिमरिया में आयोजित होने वाले कल्पवास मेला को राजकीय दर्जा प्राप्त है।
समुद्र मंथन के बाद यहीं शालीवन में किया गया था अमृत का वितरण।
स्वामी चिदात्मन जी महाराज और कई अन्य जानकारों का कहना है कि सैकड़ों वर्ष पूर्व भी सिमरिया गंगा तट पर कुंभ मेला के आयोजन के प्रमाण मिलते हैं। जानकार बताते हैं कि समुद्र मंथन के बाद यहीं शालीवन में देवताओं के बीच अमृत का वितरण किया गया था।अमृत परोसने के समय अमृत की कुछ बुंदे यहां गिर गयी थी। इसी कारण इस स्थल का नाम सामृता पड़ा। जो बाद में सिमरिया हो गया। यही कारण है कि यहां तुलार्क यानी कार्तिक मास में प्रतिवर्ष सूर्य चन्द्र योग होने के फलस्वरूप कल्पवास होता है।
राजा परीक्षित ने सिमरिया में ही महर्षि वेदव्यास से सुनी थी सप्त भागवत की कथा।
शास्त्र के जानकारों की मानें तो सतयुग, त्रेता एवं द्वापर में भी सिमरिया के कल्पवास मेला के आयोजन की चर्चा पाई जाती है। कहा जाता है कि राजा परीक्षित ने श्राप मुक्ति के लिए सिमरिया में एक माह तक कल्पवास किया था। यहीं उन्होंने महर्षि वेदव्यास से सप्त भागवत की कथा भी सुनी थी। इसे महाभारत के कर्ण की चिता स्थली तथा अनेक ऋषि-मुनियों की तपोभूमि भी बतायी जाती है। विभिन्न धार्मिक ग्रंथों एवं उपनिषदों के अनुसार कई विद्वान व चर्चित ऋषि मुनि भी अपने जीवन का अंतिम समय यहीं बिताया था। एक अन्य मान्यता के अनुसार राजा जनक के मिथिला राज्य का अंतिम हिस्सा सिमरिया गंगा तट तक था। विवाह के बाद अपने ससुराल अयोध्या जाते समय मिथिलावासियों ने माता सीता की अगुवाई सिमरिया गंगा तट तक की थी और बेटी की विदाई की परंपरा के तहत उन्हें यहीं रोककर जनकपुर के लोगों के द्वारा पानी पिलाया गया था।
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