<strong>भारत का संविधान देश की सर्वोच्च किताब के रूप मेें अधिकृत है। इसे 26 नवंबर 1949 को अंगीकृत किया गया था। इसके बाद 26 जनवरी 1950 को भारत गणतंत्र हो गया। हम हर साल 26 नवंबर को संविधान को अपनाने की याद में 'संविधान दिवस' मनाते हैं। इस मौके पर यह बात समझने का प्रयास करते हैं कि जिस संविधान को लेकर हमारा इतना विश्वास है वो किन परिस्थितियों में बना। जो कितना देश की भावनाओं के अनुरूप है। ऐसे में मोदी सरकार देश को औपनिवेशिक कानूनों से छुटकारा दिलाकर एक और ऐतिहासिक काम कर सकती है। </strong>
जब भारत का संविधान बन रहा था उस समय देश बहुत कठिन दौर से गुजर रहा था। संविधान सभा ने जब काम करना शुरू किया था तब तक यह साफ नहीं हो पाया था कि देश के मुस्लिम-बहुल वाले इलाके भारतीय संघ के भीतर रहेंगे या नहीं। उसी दौरान जब पाकिस्तान बनना तय हो गया तो देश का विभाजन भी हुआ और भारत के तमाम हिस्सों में हिंसा और अराजकता छा गया।
इस माहौल में सविधान सभा काम चल रहा था। इसी दौर में देशी रियासतों की मौजूदा स्थिति भी साफ नहीं थी। वे देश के भीतर एकता और स्थिरता को लेकर डर पैदा कर रहे थे। ऐसे में देश का अधिकांश हिस्सा भयग्रस्त था, इस माहौल के बीच, संविधान सभा दबाव में काम करने को मजबूर था। तब के माहौल को देखते हुए संविधान निर्माताओं ने ब्रिटिश काल की औपनिवेशिक ब्यूरोक्रैसी को जस का तस अपना लिया। ताकि शांति और स्थिरता बनाने में प्रशासनिक कमजोरी नहीं आए।
<h2>औपनिवेशिक ब्यूरोक्रैसी 1935 के भारत सरकार अधिनियम की देन</h2>
औपनिवेशिक ब्यूरोक्रैसी 1935 के भारत सरकार अधिनियम की देन है। इस अधिनियम को भी संविधान सभा ने संविधान में शामिल किया जबकि 1935 में इस अधिनियम के आने पर घोर आलोचना की गई थी। उस समय इसे काला कानून तक की संज्ञा दी गई थी। इसके बावजूद इस अधिनियम को स्वतंत्र भारत के संविधान का अंग बना लिया गया। जो हमारे संविधान का 70 फीसद हिस्सा है। इस प्रकार 1935 का भारत सरकार अधिनियम, आजाद भारत के संविधान का मुख्य आधार बन गया।
हालांकि, संविधान सभा की चिंता ब्रिटिश काल के औपनिवेशिक ब्यूरोक्रैसी को लेकर लगातार बनी रही। एक वाकया उस समय का है जब संविधान सभा नागरिकों को बहुत सारी स्वतंत्रताएं और अधिकार देने की गारंटी पर बहस कर रहा था। यानी कि मौलिक अधिकार पर। दरअसल, ब्रिटिश व्यवस्था व्यक्तिगत अधिकारों की बात ज्यादा करता है। ऐसे में संविधान सभा के भीतर इस बात को लेकर संशय पैदा हो रही थी कि लोगों को मिलने वाली व्यक्तिगत स्वतंत्रताएं और अधिकार, जब आकंठ इच्छाएं बनकर जाहिर होंगी तो कहीं राज्य प्रशासनिक नियंत्रण प्राप्त करने में असफल न हो जाएं।
<h2>ब्यूरोक्रैसी ही आर्थिक व राजनीतिक प्रगति कर सकती है?</h2>
संविधान सभा के सदस्यों का मानना था कि भारत के लोगों का आर्थिक और राजनीतिक विकास राज्यों के भरपूर भागीदारी के बिना संभव नहीं हो सकता। जबकि औपनिवेशिक प्रशासन (कोलोनियल ब्यूरोक्रैसी) को लेकर दुनिया भर में धारणा थी कि कोलोनियल ब्यूरोक्रैसी ही किसी देश की आर्थिक और राजनीतिक प्रगति कर सकती है। वहीं कोलोनियल ब्यूरोक्रैसी केंद्र के हाथों में रहने वाली व्यवस्था है। इस कारण से संविधान सभा के सदस्यों के बीच संघीय ढ़ांचे में राज्य सरकारों की स्थिति को लेकर आशंका पैदा होने लगा। आशंका यह थी कि केंद्र की ब्यूरोक्रैसी के चलते प्रशासनित तौर पर राज्य कहीं कमजोर न हो जाएं।
<strong>दरअसल, ये सोच ब्रिटिश हुकूमत की देन थी। ब्रिटिश शुरू से ही पाखंड फैला रखे थे कि वे तब तक भारत में प्रशासन कर रहे हैं जब तक यहां के लोग अपना विकास खुद से करने में सक्षम न हो जाएं। उस समय इसका प्रभाव यहां तक पड़ा कि दुनिया में किसी देश की आर्थिक और राजनैतिक विकास के लिए ब्यूरोक्रैसी को जिम्मेदार मान लिया गया। इस असर भारत पर भी था और इसी डर के चलते संविधान सभा को औपनिवेशिक व्यवस्थाओं को संवैधानिक संरक्षण देना पड़ा।</strong>
इस प्रकार, भारत का संविधान पैदाइश से ही अनिवार्य रूप से औपनिवेशिक है। और, 70 सालों के बाद भी औपनिवेशिक प्रशासनिक व नौकरशाही संरचनाओं को पूरी तरह से बरकरार रखा है। इसके अलावा एक और बड़ा कारण भारत के संविधान को ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था के अनुरूप होने की पुष्टि करता है। इसके लिए ब्रिटिश काल के तमाम सुधारों और उसके पीछे की औपनिवेशिक डिजाइन समझना होगा। इस डिजाइन की परतों को उधेड़ने पर इस संविधान के औपनिवेशिक चरित्र का खुलासा होगा।.