दो दिन पहले की बात है, अंग्रेजी तारीख के हिसाब से 30 अगस्त 1659 औरंगजेब ने मुगलिया सल्तनत के वली अहद दारा शिकोह (Dara Shikoh) का कत्ल करवा दिया था। औरंगजेब, दाराशिकोह (Dara Shikoh) का छोटा भाई था। मेरी व्यक्तिगत जानकारी के मुताबित अगर दाराशिकोह (Dara Shikoh) हिंदुस्तान का बादशाह बना होता तो आज हिंदुस्तान की शक्ल कुछ और होती। रेडिकलाइजेशन न के बराबर होता। औरंगजेब की हिंदू विरोधी जहनियत वाले जिन्नाह जैसे लोग न पैदा होते न इंडिया में नफरती नारे लगते। हिंदुस्तान में अंग्रेजों का आना और हिंदुस्तानी हुकूमत पर कब्जा करना नियति ने ही निर्धारित किया था तो हिंदुस्तान का बंटवारा तो होता ही मगर यह बंटवारा दुनिया के सबसे हिंसक-और भयावह बंटवारे की शक्ल में न होता। भारत-पाक जैसा हिंसक-बर्बर और भयावह बंटवारा दुनिया में कहीं नहीं हुआ है।
एक ही मां की कोख से पैदा हुए दारा शिकोह- औरंगजेब
मेरे दीमाग में तमाम तरह के सवाल उठ रहे थे। शाहजहां, जिसकी तूती गंधार से लेकर गुजरात तक बोलती थी, उसी बादशाह ए हिंदुस्तान शाहजहां को उसी की औलाद औरंगजेब ने कैसे कैद कर लिया। औरंगजेब भी तो उसी मुमताज महल की कोख से पैदा हुआ था जिसकी कोख ने दारा शिकोह (Dara Shikoh) को जन्म दिया था। क्या, शाहजहां को अपने छोटे शहजादे की हरकतों का पता नहीं चला या वो इस मुगालते में रहा कि छोटे बेटे को अक्ल आ जाएगी और वो बड़े भाई को हिंदुस्तान के होने वाले बादशाह की शक्ल में कबूल कर लेगा? तारीख ऐसा इशारा करती है कि उस दौरान तख्त-ओ-ताज के ऊपर शाहजहां और नीचे कठमुल्ला मनसबदारों (रेडिकल मुसलमानों) की सरकार थी। जिनकी रगों में मुगलिया सल्तनत का नहीं बल्कि हिंदुस्तान की अस्मत के लुटेरों और हत्यारों का खून दौड़ रहा था। जो यह तय करके आए थे कि तलवार की नोक पर पूरी दुनिया को मुसलमान बना देना है। जिन्हें यह बताया और सिखाया गया था कि कुरान का हुक्म है कि दुनिया में एक भी काफिर न बचे। दुनिया में जो भी जिंदा बचे वो सिर्फ अल्ला हु अकबर की अजान दे। इसके अलावा कुछ बोले तो सर तन से जुदा कर दिया जाए!
दारा शिकोह ने 52 पुराणों का फारसी में अनुवाद करवाया
शाहजहां के समय के कट्टरपंथी कठमुल्ला-मौलवियों की रगों में शाही खून नहीं था। इसलिए वो शाही तख्त पर बैठने या शाही ताज पहनने का मंसूबा भी नहीं पाल सकते थे। ऐसा माना जाता है कि वो गुलामों के खून से पैदा हुए थे। कट्टर इस्लामी सोच उनके दीमाग में बसी थी। उन्होंने शाहजादा औरंगजेब के जहन पर जल्दी कब्जा कर लिया। क्योंकि दारा शिकोह (Dara Shikoh) तो उनके चंगुल से बाहर निकल चुका था। शाहजहां के तख्त के नीचे बैठकर साजिशें करने वाले कठमुल्ले कुछ समझ पाते इससे पहले तो दारा शिकोह ने 52 पुराणों का फारसी में अनुवाद करवा चुका था। उसने रामायण और महाभारत का भी अनुवाद करवाया। दारा शिकोह (Dara Shikoh) ने पुराणों के फारसी अनुवाद को सीर-ए-अकबर नाम दिया था। लाखों नहीं तो हजारों मुसलमान सीर-ए-अकबर के मुरीद हो ही चुके थे। शायद कट्टरपंथी डर गए थे कि दारा शिकोह के इन कदमों से कठमुल्ला कट्टरपंथियों की मनसबदारी खत्म होजाएगी।
औरंगजेब का वायरस आज भी जिंदा है
कठमुल्ला मनसबदारों को जब अहसास हुआ कि बादशाह शाहजहां और वली अहद दाराशिकोह (Dara Shikoh) के जिंदा रहा तो उनका इस्लाम खतरे में आ जाएगा। इस्लाम की शमशीर टूट जाएगी, तो उन्होंने शाहजादा औरंगजेब की जहनियत को हिंदू विरोधी कट्टर मुसलमान और अपने बाप बादशाह शाहजहां और भाई दारा शिकोह का दुश्मन बना दिया। औरंगजेब को कट्टरपंथी-कठमुल्ली इस्लामी सोच की जंजीरों में जकड़ दिया… और ऐसा जकड़ा कि आखिरी सांस तक वो कट्टरपंथी-कठमुल्ली सोच वाले इस्लाम से आजाद नहीं हो पाया। औरंगजेब की कट्टरपंथी-कठमुल्ला दीमागी गुलामियत हद यह है कि मौत के समय भी वो हिंदुओं पर दमनचक्र चलाने के लिए अहमदनगर में था। उसके जनाजे को शाही सम्मान भी नहीं मिला। औरंगजेब दो गज जमीन के नीचे दफ्न हो गया लेकिन वो ऐसा वायरस छोड़ गया जिसका असर पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हवा में आज भी घूम रहा है। औरंगजेब के जहन से पैदा हुए वायरस का संक्रमण एक बार फिर जोर पकड़ता दिखाई दे रहा है।
औरंगजेब ने मंदिर तोड़े हिंदुओं पर कड़ा जजिया लगाया
बहरहाल, मेरा दिमाग बार-बार कहता है कि ‘हम ऐसी कल्पना क्यों नहीं करते, हम ऐसे ख्वाब क्यों नहीं देखते कि काश! हिंदुस्तान में दारा शिकोह (Dara Shikoh) बादशाह होता तो उसका सर्वेश्वर-एकेश्वरवाद सिर चढ़कर बोल रहा होता। ठीक वैसे ही जैसे बुद्ध-महावीर, नानक का दर्शन सिर चढ़कर बोल रहा है और किसी को किसी से कोई तक्लीफ या दिक्कत या दुश्मनी नहीं है! आखिर औरंगजेब ने हिंदू जनता को जिंदा जहन्नुम की आग में क्यों झौंका। हिंदू जजिया देते थे। तीर्थों की यात्राएं नहीं कर पाते थे। औरंगजेब ने अयोध्या-मथुरा और काशी के मंदिरों को भ्रष्ट किया, ध्वस्त किया, आस्था और निष्ठा को अपमानित किया। फिर भी हिंदू औरंगजेब को अपना शहंशाह आलमगीर मानते रहे।
30 अगस्त दारा शिकोह की यौमे शहादत
30 अगस्त 2022 को दारा शिकोह (Dara Shikoh) की यौमे शहादत पर लिखने का मन किया तो सबसे पहले मैंने अपने इंडिया नैरेटिव उर्दू के संपादक डॉक्टर शफी अय्यूब से चर्चा की। उन्होंने जेएनयू के प्रोफेसर अखलाक़ आहन से बात करने के मशविरा दिया। ईरान के राष्ट्रपति अहमदी नेजाद और तत्कालीन अफगानिस्तान के राष्ट्रपति तक प्रोफेसर अखलाक़ आहन को व्यक्तिगत तौर पर बहुत सम्मान देते रहे हैं। अफगानिस्तान और ईरान शाही मेजबानी का लुत्फ उठाने वाले हिंदुस्तानी एकेडमीशियंस में से प्रोफेसर अखलाक़ आहन एक खास हस्ती हैं।
प्रोफेसर अखलाक़ आहन या पद्मश्री प्रोफेसर अख्तर उल वासे
मगर एक लोचा हो गया। डॉक्टर शफी अय्यूब ने नाम तो अखलाक़ आहन का बताया और नम्बर दे दिया पद्मश्री प्रोफेसर अख्तर उल वासे का। शायद को नियति को मंजूर न था और पद्मश्री प्रोफेसर से संपर्क ही नहीं हो सका। शाम हो चुकी थी। कुछ निराशा भी, लेकिन तभी प्रोफेसर अखलाक़ आहन का कॉन्टेक्ट नम्बर भी मिला बल्कि उनसे जूम पर बातचीत का समय भी तय हो गया। ऐन मौके पर शाम के लगभग 8 बजे फिर लोचा हो गया। तय समय पर प्रोफेसर अखलाक़ आहन से संपर्क की तमाम कोशिशें की गईं। जूम-गूगल मीट और भी जो हो सकता था, सब किया गया। व्हाट्स अप पर मैसेज छोड़े गए, लेकिन प्रोफेसर आहन की ओर से कोई जवाब नहीं मिल रहा था। इकबारगी लगा कि दाराशिकोह (Dara Shikoh) कहीं शापित था या मैं। अभी तक उसकी मजार की निशान देही ठीक से नहीं की जा सकी है और मैं कुछ नया लिखना चाहता हूँ मुश्किलें आ रही है। दाराशिकोह पर रिसर्च करने वाले भी मिल गए लेकिन अब उनसे भी संपर्क नहीं हो पा रहा है…?
प्रोफेसर अखलाक़ आहन से ऑन लाइन रू-ब-रू होने के लिए जितने भी सॉफ्टवेयर इंस्टॉल किए थे, सबको डिलीट कर दिया और तय किया अब मैं अपने किताबी और इंटरनेटी ज्ञान के आधार पर ही लिखूंगा। कोई स्कॉलर मिले या न मिले। बस लिखना है।
दारा शिकोह ही क्यों अमीर खुसरो और रहीम को भी देखो
यह सोचकर बैठा ही था कि प्रोफेसर अखलाक़ आहन के नम्बर से घंटी बजी। मेरे कुछ कहने से पहले उनके शब्द ऐसे थे कि मेरी सारी झुंझलाहट खत्म और गुस्सा काफूर हो गया। फिर सिलसिला चला दारा शिकोह (Dara Shikoh) की फिलॉसफी और औरंगजेब के कट्टपंथी किस्सों का। मैं बार-बार कहता प्रोफेसर साहब फर्ज कर लीजिए कि दारा शिकोह (Dara Shikoh) बादशाह बन गया होता तो हिंदुस्तान में वैसा ही मुस्लिम कट्टरपन पनपता जैसा औरंगजेब ने फैलाया। क्या अंग्रेजों को हिंदुस्तान पर हुकूमत करने का मौका मिलता और फिर क्या अंग्रेज हिंदुस्तान का बंटवारा कर पाते, क्या बंटवारे के दौरान कत्ल-ओ-गारत भी होता और जो आज हम देख रहे हैं क्या ऐसा होता? प्रोफेसर अखलाक ने ‘आहन’ तखल्लुस ऐसे ही नहीं रखा। वो मेरी कल्पना पर नहीं ऐतिहासिक तथ्यों पर डटे रहे। प्रोफेसर अखलाक़ ने दारा शिकोह (Dara Shikoh) से पहले अमीर खुसरो और अब्दुल रहीम खान-ए-खाना जैसे तमाम उदाहरण गिना दिए, और बोले- हिंदुस्तान का बंटवारा तो अंग्रेजों की पॉलिसी थी। बंटवारा तो होना तय था। हां, अगर बादशाह शाहजहां के वली अहद दारा शिकोह हिंदुस्तान (Dara Shkoh) के सिंहासन पर बैठते तो उनकी लीगेसी के बादशाह अंग्रेजों की राह मुश्किलें पैदा कर सकते थे। बंटवारा होता तो जमीन के टुकड़े का होता, दिलों का नहीं। पाकिस्तान की फौज गजबा-ए-हिंद के लिए हजार साल तक जंग लड़ने का हलफ न उठाती।
प्रोफेसर इश्तियाक और प्रोफेसर अखलाक़ आहन क्या कहते हैं
प्रोफेसर अखलाक़ आहन के इस तथ्य की पुष्टि पाकिस्तान मूल के स्वीडिश इतिहासकार-आलोचक प्रोफेसर इश्तियाक अहमद ने भी की है। उन्होंने पाकिस्तान के जर्नलिस्ट सलीम चौधरी के साथ यूट्यूब डिस्कशन में बताया कि ब्रिटिश इंडियन आर्मी में फ्रांसिस टकर नाम का एक जनरल था। जो चाहता था कि हिंदुस्तान का बंटवारा हो ताकि उस दुनिया की उभरती हुई ताकत सोवियत रूस को रोकने के लिए एक इस्लामिक आर्च के तौर पर एक बफर स्टेट बनाया जा सके। ठीक उसी समय ब्रिटिश इंडियन आर्मी के ईस्टर्न कमाण्ड के कमाण्डर इन चीफ जनरल हॉकिन लेन ने 11 मई 1946 को एक मेमोरंडम तैयार किया ‘शुड देयर बी ए पाकिस्तान ऑर नॉट’। इस मेमोरंडम में पाकिस्तान बनाने के फेवर और अगेंस्ट में काफी तर्क देने के बाद जनरल हॉकिन लेन ने आखिर में लिखा- इट इज नॉट टू एडवाइजेबुल टू हैव ए पाकिस्तान। खास बात यह कि जनरल हॉकिन लेन के सेकेंड इन कमाण्ड जनल वैन ने इस मेमोरंडम के नीचे लिखा, ‘आई डू नॉट एग्री’, मतलब यह कि उस समय हिंदुस्तान के बंटवारे को लेकर ब्रिटिश इंडियन आर्मी में दो विचारधाराएं चल रही थीं। जिसमें से दूसरी विचारधारा को ब्रिटिश गवर्नमेंट को परिस्थितिवश मानना पड़ा।
प्रोफेसर इश्तियाक के खुलासों से बड़बोले पाकिस्तानियों की जुबान पर ताला
प्रोफेसर इश्तियाक ने बहुत खुलासे किए हैं। जिससे साबित होता है कि चौधरी रहमत अली, फिरोज खान नून और जिन्नाह जैसे लोग औरंगजेब की कत्लोगारत वाली जहनियत के इंसान थे। कांग्रेस ने जिन्नाह की लगभग सभी मांगों को एक्सेप्ट कर लिया था। अंग्रेजों ने कांस्ट्टियूट असेंबली में मुसलमानों की आबादी के मुकाबले ज्यादा सीटें दीं। ताकि मुसलमानों का दबदबा कायम हो। लियाकत अली खान ने जो बजट बनाया वो यूनाईटेड इंडिया की भावनाओं और कांग्रेस की इच्छा के अनुसार नहीं था। नेहरू और गांधी फिर भी तैयार थे। वो तो सरदार पटेल थे, जिन्होंने कहा- इनफ इज इनफ। मुसलमानों को पाकिस्तान चाहिए तो अलग मुल्क बना लें। हमें चैन से रहने दें।
इंडियन नेशनल फ्रीडम मूवमेंट से अलग हो गए थे मुस्लिम एलीट
इससे पहले हिंदुस्तान में मुस्लिम जिहादियों का अपराइजिंग हो चुका था। मुस्लिम अवेयरनेस काफी पहले ही नेशनल फ्रीडम मूवमेंट से अलग हो चुकी थी। जिन्नाह और फिरोज खान नून कहते थे कि मुसलमान हिंदुओं से 500 गुना ज्यादा जंगजू हैं। अंग्रजों ने अलग मुल्क न दिया तो हिंदुओं को मार कर मुल्क ले लेंगे। सेकेंड वर्ल्डवॉर अंग्रेजों ने जीती जरूर लेकिन वो कंगाल हो चुके थे। अंग्रेज अमेरिकी कर्ज के दबाव में थे। अमेरिकी सरकार पाकिस्तान के पक्ष में नहीं थी वो एक यूनाईटेड इंडियन नेशन को आजादी दिलाना चाहती थी। लेकिन ब्रिटिशर्स नहीं माने। आशिक हुसैन बटालवी ने लिखा है कि 1944 में जो कुछ पाकिस्तान को बिना कत्लोगारत के मिल रहा था, 1947 में वो इतनी ज्यादा कत्लोगारत के बाद मिला।
प्रोफेसर इश्तियाक ने ईडियट्स किसे कहा, जिन्नाह-फिरोज खान या आज के पाकिस्तानी?
जिन्नाह के पास अपना कुछ नहीं था। वो रहमत अली के बयानों की वकालत करते रहे। जिन्नाह और फिरोज खान नून कहते रहे कि इतना कत्लोगारत करेंगे कि हिंदू चंगेज खान और हलाकू को भूल जाएंगे। प्रोफेसर इश्तियाक कहते हैं कि ये ईडियट्स-अनपढ़ नहीं जानते थे कि हलाकू और चंगेज खान ने सबसे ज्यादा खून तो मुसलमानों का ही बहाया था। मार्च 1946 में पंजाब में राइट्स होने लगे। हजारों सिख-हिंदू कत्ल कर दिए गए। इसके बाद सुंदर सिंह मजीठिया ने कहा कि मुसलमान हिंदुस्तान को अपना घर नहीं मानते तो हम इनके साथ नहीं रह सकते। पंजाब का बंटवारा कर ही दिया जाए। सुंदर सिंह मजीठिया ने कहा स्यालकोट, गजरावाला , शेखुपरा साहिबाल, शेखुपरा, उखाड़ा, लाहौर, सिकरावाडा, फैसलाबाद में हमारी प्रॉपर्टीज ज्यादा हैं। हम सबसे ज्यादा टैक्स देते हैं। यह हिंदुस्तान को मिलना चाहिए। लेकिन रेडक्लिफ को चर्चिल ने सिखाकर भेजा था कि जैसा मुस्लिम लीग कहे वैसा ही करना, …और वही हुआ मुस्लिम लीग की मांग पर हिंदू-सिखों के सारे इलाके पाकिस्तान को दे दिए गए। हिंदू चकमा बहुल्य चिटगांव पूर्वी पाकिस्तान को दे दिया। इसके बाद तो सिखों को हिंदुओँ को चुन-चुनकर मारा जाने लगा।
जिन्नाह की डाइरेक्ट एक्शन की कॉल और भेड़-बकरियों की तरह काट दिए इंसान
प्रोफेसर अखलाक़ आहन की इस बात से भी सहमत हुआ जा सकता है कि अंग्रेजों का शासन डिवाइड एण्ड रूल था। अंग्रेजों को इंडिया का बंटवारा करना ही था, उन्होंने कर भी दिया। लेकिन अगर औरंगजेब की जगह दारा शिकोह शाहजहां की गद्दी संभालता और हिंदुस्तान का बादशाह बनता तो उसकी लीगेसी आगे चलती। शायद उस लीगेसी के शासन में रहमत अली चौधरी, मुहम्मद अली जिन्नाह और फिरोज खान नून जैसी जहरीली जुबान वाले लोगों को पैदा होने का मौका ही नहीं मिलता। आशिक हुसैन बटालवी ने अपनी किताब में लिखा भी है 1944 के बंटवारे को मान लिया होता तो नफरत और बिना कत्लोगारत के बंटवारा हो जाता। उनके कहने का मतलब क्या यह नहीं है कि बटंबारे के दौरान हिंदू औरतों-बच्चियों के साथ नृशंस बलात्कार न होते। हिंदुओं और सिखों को भेड़-बकरियों की तरह न काटा गया होता?
दारा शिकोह जिंदा रहता तो हिंदुस्तानियत जिंदा रहती
इसलिए हिंदुस्तान में रहने वाले हर शख्स को बादशाह-ए-हिंदुस्तान शाहजहां का वली अहद दारा शिकोह याद आता है। हर 20 मार्च को भी और 30 अगस्त को भी। हर हिंदुस्तानी दारा शिकोह के कातिलों से ही नहीं औरंगजेबी जहनियत, जिन्नाहबी जहनियत और फिरोज खान नून जैसी जहनियत से नफरत करता है। औरंगजेबी जहनियत को खत्म करना होगा। मुहब्बत से ही समझ जाएं तो अच्छा है। हिंदुस्तानी शब्द में सारे हिंदू और मुसलमान शामिल हैं, सिवाए उन कट्टरपंथी-कठमुल्ला औरंगजेब की नफरती लकीर के फकीरों और नफरती भाईजानों को छोड़कर!
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