निरक्षरता और मूढ़ता में भारी फ़र्क़ होता है। विद्वता और ज्ञान में उतना ही ज़बरदस्त अंतर होता है। कबीर निरक्षर थे,मूढ़ नहीं,क्योंकि वह गूढ़ से गूढ़तम को समझते थे।गूढ़तम को समझ लेने की पहली शर्त है चिंतन-मनन और चिंतन के लिए ज़रूरी है कि बना दिए गए,यानी निर्मित और स्वाभिवक सोशल नॉर्मल्स और ऐबनॉर्मल्स को आर-पार देखना।इस देख लेने की कला से मनुष्य सहज और सरल हो जाता है।यही वजह है कि ऐसे ज्ञानियों और पैग़म्बरों की भाषा भी उस स्तर पर सरल और सहज हो जाती है कि उनकी हर अभिव्यक्ति रोज़-ब-रोज़ की ज़िंदगी में आम लोगों के लिए जीवन-मंत्र बन जाती है।
राम,कृष्ण,बुद्ध,ईसा और दुनिया के किसी भी ईश्वर या पैग़म्बर के पढ़े-खे होने का कोई ज़िक़्र नहीं मिलता और अगर कोई ज़िक़्र मिलता भी है,तो वह पढ़ाई-लिखाई उनकी पहचान का आधार तो बिल्कुल ही नहीं बनी। पहचाने ही इसीलिए जाते हैं कि वे बीते हुए समय,चल रहे वक़्त और आने वाले दिनों को एक साइंटिफ़िक अंदाज़ में देखने के आदी होते हैं।इसलिए उनकी भविष्यवाणियां भी किसी ज्योतिषीय गणना पर आधारित नहीं होतीं,बल्कि गूढ़ता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति होती है।
पैग़म्बर मोहम्मद भी इस मायने में अद्भुत हैं। वह ख़ुद दुनियावी ऐतावार से पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे।किन,दुनिया को पढ़ने का जो इल्म उनमें था,वह शायद ही किसी में था।इसीलिए उन्हें हर हक़ीक़त का इल्हाम हुआ था। पैग़म्बर मोहम्मद,क़ुरान और हदीस को पढ़ते हुए,उलेमाओं को सुनते हुए हमेशा ऐसा लगता है कि हदीस और ख़ासकर उलेमाओं की तक़रीर में पैग़म्बर मोहम्मद के कुछ इल्हाम को जानबूझकर छोड़ दिया जाता है,या कुछ जोड़ दिया जाता है। पैग़म्बर मोहम्मद की ज़िंदगी इतनी पाक और शीशे की तरह साफ़ है कि उसमें कुछ जोड़ने-घटाने की गुंज़ाइश ही नहीं बचती। मगर,कट्टरता के मारे उलेमा कहां मानते।शायद इसीलिए,मोहम्मद पैग़म्बर ने इस बात को गंभीरता से महसूस करते हुए कहा होगा-
ला युबक़ा मिनल इस्लाम इल्ला इस्महू,ला युबक़ा मिनल क़ुरान इल्ला इस्महू
यानी इस्लाम में उसके नाम के सिवाय बाक़ी कुछ नहीं बचेगा,कुरान में उसकी रस्म-ए-लावत के अलावा कुछ नहीं रह जायेगा।आलीशान मस्जिदें होंगी,मस्जिदें नमाज़ियों से भरी होंगी,मगर हिदायत से ख़ाली होंगी।सलमान नमाज़ी तो होंगे,मगर उनके भीतर की बुराइयां और बेहयाइयों पर कोई असर नहीं होगा। उनके उलेमा आसमान के नीचे सबसे भयानक और घिनौने मख़लूक़ होंगे।उन्हीं की तरफ़ से फ़ितना ख़ारिज होगा,और उन्हीं की तरफ़ लौट आयेगा।
पैग़म्बर के इस्लाम में इल्म की सबसे ज़्यादा अहमियत थी,क्योंकि इल्म दुनिया के अज्ञान के अंधेरे को समझ की रौशनी से भर देता है और जिस दुनिया में रौशनी होती है,वहां अमन और शांति होती है।यही वजह है कि इस्लाम को अमन और शांति का मज़हब बतयाा जाता है।लेकिन,उलेमाओं की व्याख्या इस मज़हब को क़ुरान और आख़िरी रसूल की सीख से किनाराकशी कर देती है। ये इल्म को लेकर पैग़म्बर के ये दो हदीस क़ाबिल-ए-ग़ौर है,जो इस्लाम में इल्म को अहमियत को बख़ूबी स्थापित करती है:
हजरत मोहम्मद (सल्ल०) ने फ़रमाया कि हर चीज़ का एक रास्ता है और जन्नत का रास्ता इल्म है। (मफ़हूम हदीस)
हजरत मोहम्मद (सल्ल०) ने यह भी फ़रमाया है कि रात में एक पल के लिए इल्म का पढ़ना और पढ़ाना रात भर की इबादत से बेहतर है। (मफ़हूम हदीस) दारामी, मिस्कात शरीफ़, अनवारूल हदीस पेज 58)
मगर,ज़्यादातर उलेमा अपनी तक़रीर में जहालत फैलाता है,जो इल्म के ठीक उल्टा है और एक तरह से यह ग़ैर-इस्लामिक है।
अल्लामा इक़बाल को भी इसी बात का दुख था और इस दुख को उन्होंने “जवाब-ए-शिकवा” में कुछ इस तरह दर्ज किया है:
क़ल्ब में सोज़ नहीं रूह में एहसास नहीं
कुछ भी पैग़ाम-ए-मोहम्मद का तुम्हें पास नहीं
जा के होते हैं मसाजिद में सफ़-आरा तो ग़रीब
ज़हमत-ए-रोज़ा जो करते हैं गवारा तो ग़रीब
नाम लेता है अगर कोई हमारा तो ग़रीब
पर्दा रखता है अगर कोई तुम्हारा तो ग़रीब
उमरा नश्शा-ए-दौलत में हैं ग़ाफ़िल हम से
ज़िंदा है मिल्लत-ए-बैज़ा ग़ुरबा के दम से
वाइज़-ए-क़ौम की वो पुख़्ता-ख़याली न रही
बर्क़-ए-तबई न रही शोला-मक़ाली न रही
रह गई रस्म-ए-अज़ाँ रूह-ए-बिलाली न रही
फ़ल्सफ़ा रह गया तल्क़ीन-ए-ग़ज़ाली न रही
मस्जिदें मर्सियाँ-ख़्वाँ हैं कि नमाज़ी न रहे
यानी वो साहिब-ए-औसाफ़-ए-हिजाज़ी न रहे
ऐसे ही हालत से तंग होकर कभी निदा फ़ाज़ली ने कहा था-
उठ उठ कर मस्जिदों से नमाजी चले गये ,
दहशतगर्दों के हाथों मे इस्लाम रह गया
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