विचार

INDIA बनाम NDA नहीं,INDIA बनाम BHARAT: विपक्ष ने बना दी आसान राह   

मैकियावेली की अवधारणा थी कि साध्य,अक्सर साधन के औचित्य को बतलाता है। शासक या राजा चाहे जैसा भी हो, जनता को उसकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। राजा जीत हासिल करने तथा देश की सुरक्षा के लिए जो भी साधन अपनाता है,उसे हमेशा ही आदर और तारीफ़ मिलती रहनी चाहिए।

मैकियावेली ने जब इस सिद्धांत को गढ़ा था,वह समय यूरोप उथल-पुथल का था और लोकतंत्र की कहीं आहट भी नहीं थी,लेकिन उसका सिद्धांत आज भी पूरी दुनिया की हुक़ूमत के लिए मायने रखता है।कोई शक नहीं कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों की भौगोलिक परिस्थितियां, सामाजिक,आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भी बहुत मायने रखती है,लेकिन मौजूदा लोकतंत्र या सैनिकतंत्र में भी मैकियावेली के सिद्धांत एक आदर्श स्थिति इसलिए बन जाती है,क्योंकि देश की सुरक्षा आज भी हर देश के लिए सर्वोपरि है।लोकतंत्र का सर्वोच्च प्रतिनिधि अगर देश की जनता को यह समझाने में कामयाब हो जाता है कि वह जो कुछ साधन अपना रहा है,उसका लक्ष्य व्यक्तिगत हित नहीं,बल्कि देश का हित है,तो वह जनता की सहमति भी हासिल कर लेता है। ऐसे में अपनाये जाने वाले साधनों,हासिल किये जाने वाले लक्ष्य और सहमति की बनने वाली स्थिति के बीच रणनीति का अपना विशिष्ट महत्व हो जाता है।यह रणनीति इसलिए महत्वपूर्ण होती है,क्योंकि इसी रणनीति के तहत जनता के बीच परसेप्शन बनाये जाते हैं और इसी परसेप्शन के दम पर चुनाव जीते जाते हैं,विपक्षियों को पराजित किया जाता है।

आज़ादी से पूर्व अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने भी आम भारतीयों के बीच यही परसेप्शन बनाने की कोशिश की थी कि वह जो कुछ कर रहा है,और जो कुछ साधन अपना रहा है,वह आम लोगों के लिए है और इस लिहाज़ से वह जनता की माई-बाप की भूमिका में हैं। दक्षिण अफ़्रीका में गांधी जी की शुरुआती लड़ाई भी भले ही स्थानीय प्रशासन से चाहे जिस बिना पर लड़ी जा रही थी,लेकिन वह भी अंग्रेज़ी हुक़ूमत की माई-बाप वाली परसेप्शन के हामी थे।

आज़ादी के बाद के भारत की हुक़ूमतों ने भी यही संदेश दिया और इसी के दम पर शासन चलता रहा।जनता को जिसने भी अहसास करा दिया कि वह है,तो भारत है या फिर आम लोगों की सुरक्षा क़ायम है,तो जनता ने उसे झोली भरकर  वोट दिए। नेहरू को लेकर आम लोग ऐसा ही सोचते थे कि नेहरू तो भारत क़ायम है।मगर, 1962 में चीन की हार से लोग टूट गए,तो नेहरू से भी लोगों का मन उचट गया। 1965 में पाकिस्तान की पराजय ने लोगों की टूटी हिम्मत को जोड़ दिया और 1971 की बांग्लादेश की जीत से तो आम भारतीयों का मनोविज्ञान आकाश पर लहराने लगे। इसकी पृष्ठभूमि में मिली इंदिरा गांधी की प्रचंड जीत की पटकथा लिखी गयी,लेकिन इमरजेंसी की असुरक्षा ने उसी इंदिरा गांधी की चुनावी मिट्टी पलीद हो गयी।

दूसरी तरफ़ भारतीय राजनीति को भारतीय समाज और सभ्यता से अलग बिल्कुल ही नहीं किया जा सकता। भारत में जब भी कोई बड़ी और व्यापक क्रांति हुई है,तो उसकी अगुवाई यहां के बुज़ुर्गों ने की है। स्वतंत्रा आंदोलन में गांधी की भूमिका इसलिए महत्वपूर्ण थी,क्योंकि वह अनुभवि थे,धार्मिक प्रतीकों के साथ चला करते थे और अपने भजन से समुदायों के बीच की एकता और आस्तिकता का संदेश देते थे। जहां गांधी के क़दम भी नहीं पड़े होते थे,वहां गांधी,”गांधी बाबा” के नाम से पहुंच जाते थे। कई बार गांधी पर यह आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने अपने विचार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसी लोकतांत्रिक संस्था पर अलोकतांत्रित तरीक़े से थोपा था।मगर,सवाल वही है कि इस थोपे जाने की ताक़त उन्हें कहां से मिलती थी ? इसके जवाब का आधार उनकी धार्मिकता,नैतिकता और आम लोगों के प्रति उनकी चिंता में निहित है।गांधी यह संदेश कई बार प्रतीकों से देते थे और कई बार अख़बार निकालकर,किताबें लिखकर या बोलकर देते थे।उन्हें भारत के अलग-अलग हिस्सों की संस्कृति का ख़ूब अंदाज़ा था,वह जिस इलाक़े में भी आंदोलन चालते,वहां की संस्कृति और चलन का बख़ूबी ख़्याल रखते,मगर आंदलनों की असली ताक़त गांधी का नेतृत्व होती और ऐसा इसलिए,क्योंकि गांधी अपनी पूरी अभिव्यक्ति में नैतिक दिखायी दे रहे होते।

बाद के दिनों में जब व्यक्तिगत स्वतंत्रता ख़तरे में दिखायी पड़ी,तो भारत के युवा उबल पड़े और देशव्यापी बेचैनी आंदोलन के रूप में अंगड़ाई लेने लगी।मगर,उसकी भी अगुवाई किसी नौजवान ने नहीं की,बल्कि उस समय की कद्दावर नेता इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ एक ऐसे बुज़ुर्ग ने की,जिसकी शख़्सियत जनता की नज़रों में नैतिकता का प्रतिबिंब थी।जयप्रकाश ने जब संपूर्ण क्रांति का नारा दिया,जो बेहद मज़बूत माने जाने वाली इंदिरा गांधी की जड़ें हिल गयीं,नेहरू की पारिवारिक विरासत भी उन्हें नहीं बचा पायी। जयप्रकाश नारायण की अगुवाई वाली संपूर्ण क्रांति के सामने इंदिरा लाचार हो गयी।चुनाव हुआ और इंदिरा बुरी तरह परास्त हो गयीं।

1989 में वीपी सिंह भी इसी ईमानदारी की छवि पर सवार होकर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे और ऐतिहासिक मंडल आयोग को लागू कर दिया। 2012 में एक बार फिर पूरे भारत के लोगों को ऐसा महसूस हुआ कि हर तरफ़ घोटाले और कदारचार का राज है,तो लोगों की बेचैनी एक बार फिर आंदोलन की शक्ल लेने लगी और इसका नेतृत्व एक ऐसे बुज़ुर्ग के हाथों में सौंप दिया गया,जिसका पहनावा गांधी की याद दिलाता था और जिसकी कहानियां उस व्यक्तिगत जीवन में नैतिकता को स्थापित करता दिख रहा था,जो गांधीवाद की एक पूर्व शर्त है।

हालांकि,बुज़ुर्गों के नेतृत्व में हुए तमाम आंदोलनों के ज़रिए हासिल की गयी सत्ता की बागडोर हर बार उन नौजवानों के हाथों में आयी,जिन पर बाद में चलकर सत्ता के दुरुपयोग का इल्ज़ाम लगा।लेकिन,हर बार नैतिकता के दम पर हुई क्रांतियों के माध्यम से भारत का लोकतंत्र एक क़दम और आगे बढ़ा।

मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर भी ऐसी ही कहानियां हैं। उनका परिवार है,लेकिन वह परिवार के लिए भी कुछ नहीं करते,यानी उनका व्यक्तिगत जीवन सादा और कदाचारमुक्त है।उनकी व्यक्तिगत नैतिकता आम लोगों को यक़ीन दिलाती है कि वह सार्वजनिक संस्थाओं और संगठनों की अनैतिकता पर लगाम लगायेंगे।

उनके व्यक्तिगत जीवन की कहानियों में ऐसी कोई कहानियां नहीं सामने आती हैं,जो उनकी नैतिकता पर कोई सवाल उठा दे।हालांकि,समय-समय पर उनसे या उनकी पार्टी से जुड़े लोगों और संस्थाओं पर अनैतिक होने के सवाल उठे हैं,जिनका मुक़ाबला भी उन्होंने अपनी निजी नैतिकता से किया है।

भारत का राजनीतिक दर्शन इसी नैतिकता और अनैतिकता की लड़ाई से निकलता है। राम ने रावण को मारा,कृष्ण ने कंस का वध किया।इन तमाम हत्या के आरोप को लड़ाई की नैतिकता इसलिए बचा ले जाती है,क्योंकि ऐसा विश्वास दिला दिया गया कि जो कुछ हुआ,उसका मक़सद आम लोगों को किसी के ज़ुल्म से मुक्त करना था।

फिलहाल लोगों के बीच ऐसी ही धारणा है कि नरेंद्र मोदी जो कुछ भी करते हैं,वह देश के हित और सुरक्षा में है,चाहे इसके लिए वह कुछ भी साधन अपनाते हों। INDIA (Indian National Developmental Inclusive Alliance) बनाम NDA (National Democratic Alliance) को लेकर भले ही विपक्षी चाहे जितना ख़ुश हो लें,मगर नरेंद्र मोदी की व्याख्या और आम लोगों को कंविंस करने की उनकी शैली की पृष्ठभूमि को देखते हुए ऐसा लगता है कि वह INDIA बनाम NDA की लड़ाई को इंडिया बनाम भारत बनाने में कोई कोर क़सर नहीं छोड़ेंगे। विपक्षिय पार्टी का वंशवाद,कदाचार और एक व्यक्ति या एक परिवार के वर्चस्व जैसे तर्कों के साथ वह मैकियावेली के सिद्धांत में उल्लेखित नैतिकता,साध्य और साधन की व्याख्या को पहले की तरह ही लोगों के सामने मज़बूत तरीक़े से रख सकते हैं।उनके ये तर्क बार-बार इसलिए कामयाब भी हो जाते हैं,क्योंकि उन तर्कों का आज भी अपना आधार है। ऊपर से उनके पास भाषा, संस्कृति और अपनी सभ्यता की वापसी जैसे मज़बूत हथियार भी है।ऐसे में साफ़-साफ़ दिखता है कि अगला चुनाव  INDIA बनाम NDA तो नहीं, इंडिया बनाम भारत बन सकता है।विपक्षी पार्टियां चाहे जितना ख़ुश हो लें,मगर ऐसा लगता है कि उन्होंने अनजाने में नरेंद्र मोदी के सामने विपक्षी गठबंधन की एक ऐसी शब्दावलि पेश कर दी है,जो बीजेपी की पारंपरिक अवधारणाओं के मुफ़ीद है और मोदी इस तरह के हथियार चलाने के माहिर उस्ताद भी हैं,क्योंकि आज भी देश के ज़्यादातर लोगों के हिसाब से जहां इंडिया शब्दावलि से भारत की जड़ और उसकी संस्कृति से बग़ावत की बू आती है,वहीं BHARAT से स्वदेशीपन और अपनी संस्कृति के क़ायम रखे जाने की ख़ुशबू आती है।

Upendra Chaudhary

Recent Posts

खून से सना है चंद किमी लंबे गाजा पट्टी का इतिहास, जानिए 41 किमी लंबे ‘खूनी’ पथ का अतीत!

ऑटोमन साम्राज्य से लेकर इजरायल तक खून से सना है सिर्फ 41 किमी लंबे गजा…

1 year ago

Israel हमास की लड़ाई से Apple और Google जैसी कंपनियों की अटकी सांसे! भारत शिफ्ट हो सकती हैं ये कंपरनियां।

मौजूदा दौर में Israelको टेक्नोलॉजी का गढ़ माना जाता है, इस देश में 500 से…

1 year ago

हमास को कहाँ से मिले Israel किलर हथियार? हुआ खुलासा! जंग तेज

हमास और इजरायल के बीच जारी युद्ध और तेज हो गया है और इजरायली सेना…

1 year ago

Israel-हमास युद्ध में साथ आए दो दुश्‍मन, सऊदी प्रिंस ने ईरानी राष्‍ट्रपति से 45 मिनट तक की फोन पर बात

इजरायल (Israel) और फिलिस्‍तीन के आतंकी संगठन हमास, भू-राजनीति को बदलने वाला घटनाक्रम साबित हो…

1 year ago

इजरायल में भारत की इन 10 कंपनियों का बड़ा कारोबार, हमास के साथ युद्ध से व्यापार पर बुरा असर

Israel और हमास के बीच चल रही लड़ाई के कारण हिन्दुस्तान की कई कंपनियों का…

1 year ago