विचार

असहिष्णुता एक मिथक, उन्माद एक फ़र्ज़ी नैरेटिव

“फ़ासीवाद पहले से ही है। लोकतांत्रिक ढांचे ढह रहे हैं। संसद अब काम नहीं कर रही है। मैं दो साल से बोल नहीं पा रहा हूं; जैसे ही मैं बोलता हूं, वे मेरा माइक्रोफ़ोन बंद कर देते हैं। शक्तियों का संतुलन नहीं रहा। न्याय स्वतंत्र नहीं है। केंद्रवाद हावी है। प्रेस अब स्वतंत्र नहीं रह गया है।” ये तमाम बातें कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हाल ही में एक इतालवी समाचार संगठन के साथ एक साक्षात्कार में कही हैं।

इसके अलावे, कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने द हिंदू को इस साल की शुरुआत में बताया था कि चूंकि मीडिया के एक बड़े वर्ग ने इसके प्रभाव के कारण भारत जोड़ो यात्रा को ब्लैक आउट कर दिया था, इसलिए इस पुरानी पार्टी को सोशल मीडिया पर अधिक ध्यान केंद्रित करना पड़ा।

ऐसी ख़बरें आ रही हैं कि आम चुनाव नज़दीक आते ही कांग्रेस पार्टी सोशल मीडिया पर और आक्रामक हो जाएगी। पार्टी की मुख्य शिकायतों में से एक यह है कि मुख्यधारा का मीडिया केवल सत्ताधारी पार्टी के लिए बल्लेबाज़ी कर रहा है और अन्य राजनीतिक आवाज़ों के लिए कोई जगह नहीं है। इस नैरेटिव ने न केवल देश के भीतर, बल्कि विदेशों में भी लोगों के ध्यान को अपनी ओर खींचा है।

हालांकि, कांग्रेस को अपने मतदाता आधार का विस्तार करने और सुनने के लिए सोशल मीडिया का अधिक आक्रामक रूप से उपयोग करने की मांग में कोई समस्या नहीं है, लेकिन यह दावा करके कि मीडिया ने स्वतंत्रता खो दी है, पार्टी वैश्विक मंच पर देश की छवि को धूमिल करने में सक्रिय भूमिका निभा रही है।

गांधी ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय में अपने संबोधन के दौरान भी कहा कि भारतीय लोकतंत्र दबाव में है और ख़तरे में है।

उन्होंने कहा कि लोकतंत्र के लिए ज़रूरी संस्थागत ढांचा-संसद, स्वतंत्र प्रेस, न्यायपालिका समेत अन्य चीज़ें भी ख़तरे में हैं।

पश्चिमी मीडिया ने आश्चर्यजनक रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के ख़िलाफ़ अपना विरोध तेज़ कर दिया है।

द कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन ने फ़रवरी में द न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए लिखा था, “मीडिया भारत के अधिनायकवाद को रोकने में सक्षम अंतिम शेष संस्थानों में से एक है। लेकिन, अगर श्री मोदी देश के बाक़ी हिस्सों में सूचना नियंत्रण के कश्मीर मॉडल को पेश करने में सफल होते हैं, तो यह न केवल प्रेस की स्वतंत्रता को ख़तरे में डालेगा, बल्कि भारतीय लोकतंत्र को भी ख़तरे का सामना करना पड़ेगा।

द गार्जियन ने लिखा, “मोदी और उनकी हिंदू राष्ट्रवादी भाजपा पार्टी के 2014 में सत्ता में आने के बाद से उन्होंने भारत के मीडिया की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए एक अथक अभियान चलाया हुआ है। इसने कहा, ‘हमारी आलोचना करो और हम तुम्हारे पीछे पड़ जायेंगे।’  यही वह मंशा है, जिसके साथ सरकार काम कर रही है।

 

क्या भारत में मीडिया संगठन पक्षपाती हैं

लेकिन राजधानी में मीडिया घरानों और उनके “झुकाव” की बारीकी से जांच से पता चलता है कि प्रमुख समाचार पत्र- द हिंदू और द इंडियन एक्सप्रेस, जिनकी अत्यधिक विश्वसनीयता है, केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए अत्यधिक आलोचनात्मक रहे हैं। अन्य दो समाचार पत्र- द टाइम्स ऑफ़ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स राज्य स्तर पर कई अन्य मीडिया घरानों की तरह अधिक संतुलित हैं, लेकिन निश्चित रूप से एक पार्टी का पक्ष नहीं ले रहे हैं, जैसा कि वर्षों से कहा जाता रहा है।

पिछले कुछ वर्षों में उभरी कई समाचार वेबसाइटें- द वायर, न्यूज़ क्लिक, न्यूज़लॉन्ड्री, स्क्रॉल आदि ने भाजपा की घोर आलोचना की है।

राजनीतिक विश्लेषक सज्जन कुमार ने इंडिया नैरेटिव को बताया, “लोकतंत्र के नाम पर भारत में एक ख़तरनाक प्रवृत्ति उभर रही है। असहिष्णुता बढ़ रही है, लेकिन यह बात तथाकथित शिक्षित उदारवादी वर्ग पर भी लागू होती है। अगर कोई मीडिया संगठन सही बात की तरफ़ झुकाव रखता है, तो वह अलग-थलग पड़ जाता है और उसकी विश्वसनीयता तुरंत सवालों के घेरे में आ जाती है।” ।

वह यह भी कहते हैं कि सोशल मीडिया स्पेस पर, जिसमें ट्विटर, फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम और यहां तक कि व्हाट्सएप भी शामिल है, मोदी विरोधी आवाज़ें किसी भी अन्य की तरह मुखर हैं, लेकिन विश्लेषण में निष्पक्ष होने की ज़रूरत है। वे कहते हैं, “कहीं निडर और निष्पक्ष होने की कोशिश में मीडिया अपनी निष्पक्षता खो रहा है और चीज़ों को उस तरह से देखने की क्षमता खो रहा है, जैसे वे हैं और यही मुख्य कारण है कि उनका अधिकांश ज़मीनी विश्लेषण ग़लत हो रहा है।”

मोदी सरकार पर हमला करने में कई प्रमुख स्थानीय मीडिया संगठन समान रूप से बेरहम हैं। एबीपी से जुड़ा कोलकाता स्थित द टेलीग्राफ़ मोदी और उनके कार्यों की आलोचना में अपना स्वर बढ़ा रहा है। बेंगलुरु स्थित द डेक्कन हेराल्ड भी मोदी और उनकी पार्टी के प्रति दोस्ताना नहीं है।

अडानी-हिंडनबर्ग मामले के सामने आने के बीच अधिकांश समाचार संगठन अरबपति व्यवसायी गौतम अडानी के ख़िलाफ़ खुलकर सामने आ गए हैं।

कुमार बताते हैं, “आज की स्थिति ऐसी है कि अगर आप मेरी लाइन खींचते हैं, तो आप लोकतंत्र के पक्ष में हैं और अगर ऐसा नहीं करते हैं, तो आप निरंकुश हैं।”

यह कथन कि लोकतंत्र ख़तरे में है, जॉर्ज सोरोस जैसे विदेशों में वैश्विकवादियों द्वारा “विश्व सरकार” के गठन में बाधा डालने वाली सरकारों को गिराने के लिए सॉफ़्ट पावर का उपयोग करके “शासन परिवर्तन” लाने के पिछले प्रयासों के साथ पूरी तरह से मेल खाता है।

 

द वायर-मेटा विवाद

पिछले साल ‘द वायर’ ने नुक़सान पहुंचाने वाला एक लेख प्रकाशित किया था, जिसमें दावा किया गया था कि बीजेपी के सूचना प्रौद्योगिकी प्रकोष्ठ के प्रमुख, अमित मालवीय को विशेष विशेषाधिकार प्राप्त हैं, जो बाद में सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम की सामग्री को प्रभावित करने और हस्तक्षेप करने देते हैं। पूरा करते एक शख़्स को पोस्ट किया गया था,जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तरह दिखता था। जबकि तकनीकी मुद्दों के कारण पोस्ट को हटाना पड़ा, द वायर ने दावा किया कि उसमें मालवीय की भूमिका थी।

इंस्टाग्राम और फ़ेसबुक की मूल कंपनी मेटा द्वारा इस तरह के कृत्य से इनकार करने और रिपोर्ट को मनगढ़ंत बताने के स्पष्टीकरण के बाद भी सिद्धार्थ वरदराजन प्रमोटेड यह वेबसाइट बेफिक्र रही और अपने क़दम का बचाव करती रही। आख़िरकार, वेबसाइट को लेख को हटाना पड़ा, बल्कि एक स्टाफ़ पर “धोखे” से ऐसा कर दिये जाने का आरोप लगाया गया, जिसके कारण परेशानी हुई।

द वायर ने बाद में अपने संपादकीय चूक में ख़ामियों को स्वीकार करते हुए एक नोट जारी किया और सभी स्रोत-आधारित रिपोर्टिंग की सटीकता सुनिश्चित करने के लिए “फेलसेफ प्रोटोकॉल” लगाने का वादा किया।

इसके बावजूद द वायर अभी भी चल रही है और अपने नज़रिए को बदले बिना सक्रिय है। यदि यह दावा कि मोदी का भारत वैकल्पिक विचारों को कोई स्थान नहीं देता है, तो इस वेबसाइट को अब तक तो समाप्त हो जाना चाहिए था।

 

क्या अब एजेंसियां ज्यादा सक्रिय हैं ?

2012 में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली सरकार ने मुख्यमंत्री के एक कार्टून वाले ईमेल को फ़ॉरवर्ड करने के लिए कोलकाता में जादवपुर विश्वविद्यालय में रसायन विज्ञान के प्रोफ़ेसर अंबिकेश महापात्रा को गिरफ़्तार कर लिया था। 2020 में कांग्रेस ने अपने तत्कालीन प्रवक्ता संजय झा को आलोचनात्मक लेख लिखने के बाद हटा दिया था। राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार कंचन गुप्ता को 1990 के दशक के मध्य में पायनियर से ‘द इंडियन वोटर विल सेलेक्ट राम स्टेट ओवर रोम स्टेट’ नामक लेख लिखने के लिए हटा दिया गया था।

केंद्रीय जांच ब्यूरो और प्रवर्तन निदेशालय जैसी केंद्रीय एजेंसियों द्वारा उठाए गए सक्रिय उपाय विपक्षी सदस्यों की शिकायतों में से एक है। उदाहरण के लिए, पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम को 2019 में आईएनएक्स मीडिया मामले और इसके विदेशी फ़ंड के सिलसिले में गिरफ़्तार किया गया था। लेकिन, जब चिदंबरम गृह मंत्रालय संभाल रहे थे, तब सीबीआई ने गृह मंत्री अमित शाह को भी गिरफ़्तार कर लिया था। शाह को सोहराबुद्दीन शेख़ मुठभेड़ मामले में गिरफ़्तार किया गया था।

कुमार ने इंडिया नैरेटिव को बताया, “ये घटनायें हमेशा भारत में होती रही हैं, लेकिन यह दिखाना कि भारत एक तानाशाही व्यवस्था में बदल रहा है, सही मायने में दुर्भाग्यपूर्ण है और कल्पना पर आधारित है।”

अल्पसंख्यक समुदायों के साथ-साथ बहुसंख्यक समुदाय के लोगों को प्रभावित करने वाली हिंसा और असहिष्णुता की कुछ घटनाओं ने भी देश को प्रभावित किया है।

अगर ऐसे मामले होते भी हैं, तो ये बहुत कम होते हैं। सभी राजनीतिक विचारधाराओं के लोगों का यह दायित्व है कि वे छोटी-मोटी घटनाओं को लेकर संवैधानिक पहलुओं पर शक न करें। ऐसी घटनायें अपवाद होती हैं, जो कि भाजपा के सत्ता में आने से पहले भी होते रहे थे। अपवाद कोई नियम नहीं बनाते हैं।

यह भी पढ़ें: पुलिस द्वारा पंजाब में अमृतपाल के अलगाववादी नेटवर्क को ख़त्म करने के बाद हताश खालिस्तानियों ने वैश्विक हस्तियों सहित रिहाना को भी भेजा एसओएस

Mahua Venkatesh

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