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सस्ती शोहरत के भूखों को हाशिए पर फेंकना ही एकमात्र इलाज

फ्रांस की कार्टून पत्रिका चार्ली ऐब्दो के कारण दुनिया के कुछ मुसलमान कमोबेश उत्तेजना में हैं। चार्ली ऐब्दो ने 2006 में पैगंबर मोहम्मद के कार्टून छापे थे। इसके बाद चार्ली ऐब्दो ने 2012 में फिर से पैगंबर मोहम्मद का कार्टून छापा। इस कार्टून के छापने पर 2015 में इसके कार्यालय पर आतंकी हमला भी हुआ था। जिसमें इसके 11 पत्रकारों की मौत हुई थी। चार्ली ऐब्दो ने सितंबर 2020 में उन पुराने कार्टूनों को फिर से छापने का फैसला किया, क्योंकि उसके कार्यालय पर हुए हमले का कोर्ट ट्रायल शुरू हुआ।

फ्रांस में एक अध्यापक सैमुअल पेटी ने जब अपनी कक्षा में इन कार्टून को दिखाने का फैसला किया तो उनको भी शायद अंदाजा रहा होगा कि इसका नतीजा क्या हो सकता है। इसके बाद एक युवक ने स्कूल के पास पेटी की गला रेत कर हत्या कर दी। इस चेचेन शरणार्थी युवक को भी अपने कार्य का परिणाम पता था क्योंकि वह आत्मसमर्पण करने से इंकार करता रहा और पुलिस की गोली से मारा गया।

इसके बाद बारी अब देशों के राष्ट्रपतियों के मैदान में उतरने की थी। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रां ने कट्टरपंथी इस्लाम से निपटने का वादा अपने देश से किया। तो इस बहस में तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोवान भी कूद पड़े। उन्होंने तो मैक्रां को दिमागी रूप से बीमार करार देते हुए इलाज की जरूरत बताई।

<img class="wp-image-16535 size-large" src="https://hindi.indianarrative.com/wp-content/uploads/2020/11/Protests-against-Emmanuel-Macran-in-1024×680.png" alt="Protests against Emmanuel Macran in" width="525" height="349" /> वेस्ट बैंक के शहर हेब्रोन में इमैनुएल मैक्रां के खिलाफ विरोध प्रदर्शन।

नाटो का सदस्य रहने के बावजूद तुर्की अब अमेरिका से नाराज है और चीन और रूस के खेमे में जा रहा है। फ्रांस और ग्रीस के साथ उनके मतभेद बहुत ज्यादा हैं। पूर्वी भूमध्य सागर में तेल और गैस की खोज के लिए समुद्री क्षेत्राधिकार को लेकर ग्रीस के साथ उसका विवाद है, जिसमें ग्रीस का समर्थन फ्रांस करता है। फ्रांस की कई कंपनियां इस इलाके में तेल की खोज करने में भी रुचि रखती हैं।

यह विवाद चल ही रहा था कि फ्रांस के नीस शहर में ट्यूनीशिया के एक शरणार्थी ने नोट्र डम चर्च में तीन लोगों की चाकू मारकर हत्या कर दी। पुलिस ने जब उसे गोली मारी तब भी वह अल्लाह-हू-अकबर के नारे लगा रहा था। इसके बाद पूरी दुनिया में जैसे आग भड़क उठी। मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने काफी भड़काऊ ट्वीट किया, जिसे बाद में हटाने की मांग हुई। भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में फ्रांस के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे। मुसलमानों से फ्रांस के सामानों के बहिष्कार की अपील की जाने लगी।

फ्रांस के आंतरिक मामलों के मंत्री गेराल्ड डार्मैनिन ने और अधिक हमलों की आशंका जताई थी और उसके तुरंत बाद ल्योन में एक पादरी को गोली मार दी गई। पुलिस अभी इस मामले की जांच कर रही है लेकिन सोशल मीडिया पर इसे इस्लामिक कट्टरवादी आतंकवादी हमला बताया जा रहा है।

यहां तक कि भारत में कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवी भी इसका समर्थन करते हुए दिखाई दिए। भोपाल में एक बड़ी रैली हुई जिसका नेतृत्व एक स्थानीय विधायक ने किया। सवाल यह है कि पूरी दुनिया के मुसलमानों में आज जो नाराजगी है, वह किस हद तक जायज है?

इस्लामी जगत में फैली इस उत्तेजना के कारणों को जानने के लिए जब <strong>जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल आफ इंटरनेशनल स्टडीज के प्रोफेसर ए.के. पाशा</strong> से बात की गई तो उन्होंने कहा कि पूरा इस्लामिक वर्ल्ड एकजुट नहीं है। सऊदी अरब के नेतृत्व में अरब के देश अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका पर पूरी तरह निर्भर हैं। अमेरिका तेल और गैस के लिए उन पर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहता है। जबकि पूरे इस्लामी जगत में उपनिवेशवाद विरोधी भावना बहुत प्रबल है। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की के पतन के बाद पश्चिमी औपनिवेशिक ताकतों ने इजरायल के गठन का प्रयास किया और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उसे हकीकत में बदल दिया।

इस्लामी दुनिया में जो भी स्वतंत्र आवाज उठाने की कोशिश करता है, पश्चिमी देश उसे कतई पसंद नहीं करते और उनका अंजाम सद्दाम हुसैन और लीबिया के कर्नल गद्दाफी जैसा होता है। एर्दोवान ने पश्चिमी दुनिया और खासकर अमेरिका से अलग अपनी एक स्वतंत्र आवाज बनाने की कोशिश की है। पाकिस्तान, मलेशिया जैसे देशों और कुछ मध्य एशियाई देशों का उनको समर्थन हासिल है।

<img class="wp-image-16537 size-large" src="https://hindi.indianarrative.com/wp-content/uploads/2020/11/Emmanuel-Macron-With-Modi-1024×576.jpg" alt="Emmanuel-Macron-With-Modi" width="525" height="295" /> प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रोन

इस्लामी जनमानस पश्चिम विरोधी भावना से ग्रस्त है क्योंकि अधिकांश देशों में स्वस्थ लोकतंत्र नहीं है। बुद्धिजीवी और विद्वान अपनी सरकारों से नाराज हैं, इसलिए आम जनता के साथ जब भी सरकार का विरोध करने की परिस्थिति उत्पन्न होती है तो उनका साथ देते हैं।

ईरान ने भी पश्चिमी दुनिया का विरोध करने की कोशिश की थी लेकिन नाकाम रहा। अमेरिका ने उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए और आर्थिक रूप से बदहाली के कगार पर पहुंचा दिया है। इसके विपरीत तुर्की एक मॉडल इस्लामिक देश के रूप में उभर रहा है। अधिकांश इस्लामी देशों के नागरिकों को लगता है कि उनके शासक केवल नाम मात्र के शासक हैं और पश्चिमी देशों की कठपुतली हैं।

जबकि भारत जैसे देश में मुस्लिम लीडरशिप बहुत हद तक धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के साथ है। कुछ लोग युवाओं को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा योगदान है। हालांकि एक स्वस्थ लोकतंत्र में विरोध और उनके शांतिपूर्ण प्रदर्शन की गुंजाइश होनी चाहिए जो कि किसी भी तात्कालिक उबाल या उत्तेजना के लिए शॉक एब्जार्वर का काम करते हैं। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में तो ऐसी घटनाओं के लिए शॉक एब्जार्वर और लोगों की सहिष्णुता को और भी ज्यादा मजबूत होना चाहिए।

जब एम.एफ. हुसैन ने हिंदू संस्कृति की परंपराओं के खिलाफ कुछ देवियों का चित्रण किया था तो भी लोगों ने गुस्सा जरूर जाहिर किया, लेकिन हिंसक व्यवहार की गुंजाइश नहीं थी। अभी हाल ही में तनिष्क के विज्ञापन को आपत्तिजनक मानकर लोगों ने सोशल मीडिया पर विरोध किया और उसे वापस लेना पड़ा।

ऐसा नहीं है कि इस्लाम या उसकी परंपराओं के खिलाफ या उसकी निंदा आलोचना करने का काम कोई नया है। सलमान रुश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेज बाजार में आई थी तब भी भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमान काफी आक्रोशित हुए थे। लेकिन एक बार जब सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया तो सब कुछ सामान्य हो गया।

हर समाज की सहिष्णुता का स्तर वहां के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक मूल्यों पर निर्भर करता है। भारत में भी खासकर हिंदुओं में भी कुछ सामाजिक समूह ऐसे हैं जो बहुत जल्दी उग्र हो जाते हैं और उनकी भावनाएं बहुत जल्दी आहत हो जाती हैं। फ्रांस जैसे खुले समाज में पैगंबर मोहम्मद, जीसस या फिर यहूदी धर्म का कार्टून बनाना या उसके बारे में कुछ आलोचनात्मक छपना एक सामान्य कार्य हो सकता है।

जबकि खासकर मध्य एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप का मुस्लिम समाज पैगंबर की शान में गुस्ताखी को ना-काबिले बर्दाश्त गुनाह मानता है। पश्चिम में धर्म और राज्य सत्ता अलग-अलग चीजें हैं। वहां पोप अलग है और देश के शासक अलग हैं। जबकि इस्लामी समाज में ऐसा नहीं है। यहां तो सऊदी अरब का शासक ही उनके धार्मिक स्थलों का भी प्रमुख है। इसलिए इस्लामी समाज में इस तरह की भावनाओं पर नियंत्रण लगाना थोड़ा कठिन कार्य है।

एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है कि किसी भी चीज का विरोध शांतिपूर्ण ढंग से होना चाहिए। विरोध का सबको हक है लेकिन अगर हिंसा या खून-खराबे की बात की जाए तो इस पर कठोर कार्रवाई की जानी चाहिए। कुछ लोग जो हिंसा का समर्थन कर रहे हैं, शायद अपनी कुंठा का प्रदर्शन करने वाले हो सकते हैं या फिर इसके पीछे इनके निहित स्वार्थ हैं।

ऐसे लोगों को समाज में हाशिए पर डाल देना ही सबसे अच्छा तरीका है। अगर वे सोचते हैं कि इस तरह के गर्म-मिजाज हिंसक व्यवहार को बढ़ावा देकर कोई लोकप्रियता हासिल कर सकते हैं, तो इनको एकदम हाशिए पर पहुंचा देना ही इनकी अक्ल ठिकाने लगाने के लिए काफी है। इससे इनको समझ में आ जाएगा कि भारत जैसे लोकतंत्र में हिंसा की कोई जगह नहीं है। इससे ये खुद-ब-खुद अपने सही रास्ते पर आ जाएंगे। अभी तो इनको लगता है कि हिंसा का समर्थन करके यह कुछ लोकप्रियता हासिल कर सकते हैं। इनकी इस बदगुमानी को खत्म करने की जरूरत है।.

डॉ. शफी अयूब खान

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