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Afghanistan का लीथियम चुरा कर दुनिया का Boss बनने की जुगाड़ में चालाक चीन और शरिया-सीरत और सत्ता में उलझा Taliban

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बीस साल बाद अचानक अमेरिका का काबुल को छोड़कर जाना न केवल अफगानियों पर भारी पड़ा है बल्कि भारत सहित कई देशों को गंभीर नतीजों का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिका के काबुल छोड़ने का फायदा तालिबान के अलावा जिन दो देशों को दिखाई दे रहा है वो एक है पाकिस्तान और दूसरा चीन है। दिखावे के तौर पर चीन शिनजियांग (ईस्ट तुर्कमेनिस्तान) की आतंकवाद की समस्या से निपटने के लिए तालिबान के नजदीक गया है। चीन कांटे को कांटे से निकालने की कूटनीति अपना रहा है। अंदरखाने की बात यह है कि चीन की निगाह अफगानिस्तान की जमीन के भीतर छुपे अकूत खजाने पर है। बीते 20सालों में जिस खजाने को अमेरिका और भारत छू भी नहीं पाएं हैं, चीन उस खजाने के अकेले हजम कर जाना चाहता है। चीन की लीडरशिप तालिबान की अज्ञानता का नाजायज फायदा उठाने जा रहा है।</p>
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भविष्य की नीति बनाने वाले जानते हैं कि आगे आने वाला समय पेट्रोल-डीजल का नहीं बल्कि लीथियम का है। दुनिया ‘ग्रीन एनर्जी’ की ओर जा रही है। लीथियम ग्रीन एनर्जी का सबसे बेहतर सोर्स है। ग्रीन एनर्जी यानी लीथियम का सबसे सोर्स दुनिया में कोई है तो वो अफगानिस्तान है। यूं तो अफगानिस्तान की जमीन के भीतर में बहुत सारी बहुमूल्य धातुओं का अकूत भण्डार है लेकिन लीथियम इनमें सबसे ज्यादा है। चीन इसीलिए अफगानिस्तान में आतंकियों की नाजायज सरकार को समर्थन और मान्यता देने के लिए सबसे पहले तैयार हो गया है। चीन ने इससे पहले भी कई बार अफगानिस्तान में खदानों और इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलेपमेंट का ठेका लेने का प्रयास किया लेकिन अमेरिकी दखल की वजह से चीन के प्रयास विफल रहे। अब चीन को खुला मैदान मिल गया है।</p>
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चीन के चालाक नेता अफगानिस्ता का दोहन करने के लिए तालिबान की हर जायज और नाजायज गतिविधि को समर्थन देता रहेगा। ताकि तालिबान और अफगान नागरिकों के बीच संघर्ष बना रहे। अय्याशी और अत्याचार में तालिबान को व्यस्त कर चीन अफगानिस्तान की मिट्टी को खोद कर बीजिंग के खजाने को भर सके। अमेरिका की बदली हुई नीतियों को देखकर लगता है कि अफगानिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध बढ़ने वाले हैं। पाई-पाई को मोहताज अफगानिस्तान के पास चीन के अलावा कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। चीन इन्हीं सब कारणों का फायदा उठा रहा है और आगे उठाता रहेगा।</p>
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अफगानिस्तान की राजनीति पर बारीक नजर रखने वालों का कहना है कि चीन की यह चतुर चाल दुःस्वपन भी बन सकती है। अफगानिस्तान को तालिबान लंबे समय के लिए अपने नियंत्रण में रख पाएंगे-ऐसा कहना मुश्किल है। काबुल पर कब्जे के बाद एक पखबाड़ा बीतने के बाद भी स्थाई सरकार का खाका सामने नहीं आया है। अभी तक एक अस्थाई या अतंरिम सरकार की रूप रेखा सामने आई है। इस में भी खूंखार आतंकियों के हाथ में सत्ता जाती दिखाई दे रही है। अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जे के लिए तालिबान के भीतर बने अलग-अलग गुट संघर्षरत हैं।</p>
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ये संघर्ष धीरे-धीरे सतह पर आ रहा है। इसका सबूत जबीहउल्लाह मुजाहिद का एक बयान है। जबीहउल्लाह ने पाकिस्तानी जर्नलिस्ट से कहा कि तालिबान में सब ‘आल इज वेल’ है। अगर सब ‘आल इज वेल’ है तो बताना क्यों पड़ रहा है। दूसरा सबूत- तालिबान सुप्रीमो हैबतउल्लाह अखुंदजादा की गैर मौजूदगी है। हैबतउल्लाह अखुंदजादा की ओर से न तो कोई बयान आया है और न ही उसकी कोई लोकेशन ही मिल रही है। कुछ लोगों ने यह आशंका जरूर व्यक्त की है कि अखुंदजादा आईएसआई की गिरफ्त है या फिर उसका काम तमाम कर दिया गया है। </p>
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तालिबान में परस्पर गुटबाजी और संघर्ष का एक बड़ा सबूत सलाफियों से दुश्मनी है। सलाफी मतलब  अफगानिस्ता में सक्रिए दूसरा आतंकी गुट आईएस केपी है। अफगानिस्तान पर कब्जे के साथ ही तालिबान ने आईएस केपी के सरगना की हत्या के साथ ही कई प्रतिद्वंदी आतंकियों को मौत के घाट उतार दिया है फिर भी ये गुट तालिबान के कुछ नेता आईएस केपी के साथ समझौते के पक्षधर हैं तो कुछ बिल्कुल भी नहीं।</p>
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बहरहाल, अफगानिस्तान में इस समय सत्ता के स्तर पर जो डांवाडोल स्थिति है वो और जो आगे रहने वाली है वो- दोनों ही चीन के पक्ष में तब तक तो रह ही सकती हैं जब तक अफगानिस्तान में तालिबान के मुकाबले कोई दूसरा मजबूत दावेदार ख़ड़ा नहीं हो जाता।</p>

Rajeev Sharma

Rajeev Sharma, writes on National-International issues, Radicalization, Pakistan-China & Indian Socio- Politics.

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