दिल्ली की जामिया मस्जिद के बाहर उर्दू बाजार में आजादी से पहले की दुकानें हैं, जहां आज भी उर्दू की किताबें मिलती हैं और शहर के कोने-कोने से लोग उर्दू की किताबें खरीदने आते हैं। हालांकि ये जान कर हैरानी होगी कि नई पीढ़ी के लोग उर्दू की किताबों में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं और यहां हर धर्म के युवक-युवतियां आते हैं।
नई पीढ़ी के लोगों में शायरी, उपन्यास, कहानियों में ज्यादा रुचि है। मशहूर शायरों का मानना है कि सोशल मीडिया ने उर्दू शायरी को जिंदा रखा हुआ है।
उर्दू की किताब बेचने वाले दुकानदारों का मानना है कि उर्दू भाषा हमेशा जिंदा थी और जिंदा रहेगी। उर्दू की किताबें पहले से ज्यादा अब बिकती हैं। यही नहीं, पहले लोग महंगी किताब नहीं खरीदते थे, लेकिन अब 3 हजार तक की किताब खरीदते हैं।
जामिया मस्जिद के बाहर उर्दू बाजार में आजादी से पहले की भी दुकाने हैं, लेकिन इस इलाके से उर्दू की किताबों वाली दुकानें धीरे-धीरे खत्म हो गईं या यहां से कहीं और जा बसीं। कई दुकानदारों ने तो यह कारोबार भी बंद कर दिया।
उर्दू बाजार में मकतबा जामिया लिमिटेड नाम की एक बहुत पुरानी दुकान है। यहां उर्दू भाषा में सभी किताब मिलती हैं। इस दुकान के ब्रांच इंचार्ज अली खुसरो जैदी ने आईएएनएस को बताया, "उर्दू एक सदाबहार जिंदा जुबान है, उर्दू जिंदा हौ ओर जिंदा रहेगी। उर्दू की अपनी मिठास है, अपनी चाशनी है, उसी के बलबूते पर यह जिंदा है और जिंदा रहेगी, चाहे जितना भी इसे मुसलमानों की जुबान बता दो, लेकिन ये एक हिंदुस्तानी जुबान है। एक मुल्क की जुबान है, उर्दू को आप बांट नहीं सकते।"
उन्होंने कहा, "आज भी हमारे पास सभी धर्म के लोग आते हैं, हिंदी के जरिये, अंग्रेजी के जरिये उर्दू को सीखने के लिए। उर्दू एक मुकम्मल तहजीब है। ये एक गुलशन है, जिसमें अहमद फराज, मुनव्वर राणा, गुलजार देहलवी सरीखे हर तरह के फूल हैं।"
जैदी ने कहा कि उर्दू की किताबें आज भी बिकती हैं और पहले से कहीं ज्यादा बिक रही हैं। नई पीढ़ी के लोग ज्यादा पसंद करते हैं, चाहे वो किसी भी धर्म से हों।
उन्होंने कहा कि शेर-ए-अदब, फिक्शन, पोएट्री, मुनव्वर राणा, जॉन एलिया, समाजी नॉवेल ये सभी आज की तारीख में नई पीढ़ी की पसंद हैं।
जैदी ने कहा कि वक्त के साथ उठक-पटक होती रहती है। जामिया मस्जिद के बाहर उर्दू बाजार में पहले सिर्फ उर्दू दुकानों से भरी हुई थी, लेकिन अब काफी दुकानें इधर-उधर हो गईं या किसी ने कारोबार ही खत्म कर दिया।
उन्होंने कहा, "मैं 1978 से यहां हूं, यहां से करीब 10 से 12 उर्दू किताबों की दुकानें खत्म हो गईं। इस बाजार में 70 साल से पुरानी दुकानें मौजूद हैं। लेकिन अब यहां से उठकर मटिया महल में सारी दुकानें बस गई हैं।"
जैदी ने कहा कि पहले लोगों में कुव्वत नहीं होती थी। छह रुपये की किताबें भी लोग नहीं खरीद पाते थे। लेकिन अब लोग हजारों की किताबें खरीकर ले जाते हैं। दरअसल, कानों को उर्दू के लफ्ज अच्छे लगते हैं।
उन्होंने बताया कि भारत में उर्दू की ज्यादा किताबें छपती हैं, ज्यादा मुशायरे होते हैं, उर्दू की 12-13 अकादमियां हैं, गालिब अकादमी है, गालिब इंस्टीट्यूट है, साहित्य अकादमी भी उर्दू के लिए काम करती है, पब्लिकेशन डिवीजन भी उर्दू के लिए काम करता है।
उर्दू बाजार में 1939 से उर्दू किताबों की दुकान चलाने वाले निजामुद्दीन ने आईएएनएस से कहा, "मेरी दुकान आजादी से पहले की है। पहले मेरे पिताजी दुकान चलाते थे। हालांकि अभी फिल्मों की वजह से उर्दू जिंदा है। उर्दू के अब जब प्रोग्राम होते हैं तो नई उम्र के बच्चे आते हैं। लेकिन उर्दू की लिपि अब रोमन भी हो गई है। उर्दू को अब लोग रोमन भाषा में भी पढ़ते हैं। लाइब्रेरियों में उर्दू की किताबें न होने पर नई पीढ़ी अंग्रेजी में उर्दू पढ़ रही है।"
उर्दू शायरों में कुछ बड़े नाम जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता- मिर्जा गालिब, फैज अहमद फैज, राहत इंदौरी, मुनव्वर राणा, बशीर बद्र, निदा फाजली, दाग देहलवी, अकबर अलाहाबादी, कैफी आजमी और गुलजार वगैरह।
मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने आईएएनएस को बताया, "उर्दू ने अपनी लिपि बदल ली है, कुछ लोग अब नागरी में लिखते हैं। शायरी की बदौलत उर्दू की शोहरत ज्यादा हुई। फर्क ये हुआ कि लोग उर्दू जानते नहीं हैं, उर्दू बोलते हैं, लेकिन उर्दू लिख नहीं पाते। कहीं न कहीं ये नुकसान हुआ। लेकिन सोशल मीडिया ने उर्दू को एक नया मुकाम दिया। शायरी की तरफ रुख मोड़ दिया। अब शायरों को लोग जानने, पढ़ने लगे हैं।"
उन्होंने कहा, "उर्दू को 2 3 बार नुकसान उठाना पड़ा। कुछ लोगों द्वारा कहा गया कि उर्दू पाकिस्तान की जुबान है, लेकिन आज भी पाकिस्तान में जो उर्दू बोली जाती है वो बनावटी है। वो उर्दू नहीं है। असल उर्दू आज भी हिंदुस्तान में बोली जाती है।"
हाल ही में दिल्ली की मशहूर लेखिका सादिया देलहवी के निधन पर मुनव्वर राणा ने आईएएनएस को बताया, "ये बड़े घराने से ताल्लुकात रखती थीं। इनका और इनके परिवार का बहुत बड़ा योगदान रहा है। जो भी महफिल हुआ करती थी, उनमें वो शामिल होती थीं। उनके रहने से, उनकी मौजूदगी में शेर सुनाने में मजा आता था। ये लोग शायरी की खूबसूरती, शायरी की महक को महसूस करते हैं। उनके इंतकाल से उर्दू शायरी को बहुत नुकसान हुआ है।".
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