विचार

क़ुरान के समतावाद पर मुस्लिम पर्सनल लॉ को प्राथमिकता क्यों  ?

ए. फ़ैज़ुर्रहमान  

पिछले साल दिसंबर में मुस्लिम पर्सनल लॉ (एमपीएल) में लैंगिक असमानता के ख़िलाफ़ जनता की राय जुटाने और एमपीएल के लिंगगत पक्षपात से जुड़े पहलुओं, विशेष रूप से विरासत के क़ानून का पालन करने के निर्णय का राज्य सरकार के समर्थन के विरोध में केरल की प्रगतिशील महिलाओं और सामाजिक संगठनों के एक समूह द्वारा फ़ोरम फ़ॉर मुस्लिम वुमन जेंडर जस्टिस नामक एक आंदोलन शुरू किया गया था।  

इस साल मार्च में इस फ़ोरम ने उयिरप्पु शीर्षक के तहत कोझिकोड में एक राज्य स्तरीय बैठक आयोजित की। मलयालम में उयिरप्पु का अर्थ पुनरुत्थान होता है। अन्य बातों के अलावा, इस फ़ोरम का मक़सद विरासत के मुस्लिम कानून के भेदभावपूर्ण पहलुओं और मुस्लिम महिलाओं को समान तलाक के अधिकारों के दिए जाने से इनकार जैसे पहलुओं पर सवाल उठाना है

उरीप्पु में अपना मामला पेश करने वाली महिलाओं में से एक महिला रुबिया सैनुधीन भी थीं। उनकी शिकायत यह थी कि अपने पिता की इकलौती संतान होने के नाते, जिनकी मृत्यु बिना वसीयत के हो गई थी, उन्हें उनकी पूरी संपत्ति का उत्तराधिकारी नहीं बनाया गया था क्योंकि एमपीएल उन्हें उनके स्वामित्व वाली संपत्ति का केवल आधा हिस्सा ही देने की बात करता है। बाकी संपत्ति उनके भाइयों में बांट दिया गया। लेकिन, अगर इकलौता बेटा होता, तो सारी ज़ायदाद उसे मिल जाती। एमपीएल में बेटियों के ख़िलाफ़ यह लैंगिक पूर्वाग्रह रुबिया को दुखी कर गया। दूसरी तरफ़ यह पूर्वाग्रह करुणाहीन रिश्तेदारों को उसके पिता की संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा हड़पने में मदद कर रहा है।

उरीप्पु से कुछ दिन पहले अभिनेता-वकील सी. शुकूर और उनकी पत्नी शीना शुकूर ने विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत कासरगोड ज़िले के एक उप-रजिस्ट्रार कार्यालय में अपनी शादी का पंजीकरण कराया। शुकूर ने केवल यह सुनिश्चित करने के लिए एमपीएल से बाहर निकलने का विकल्प चुना कि उनकी तीन बेटियां अपने ख़ुद के भाइयों के हाथों अपनी विरासत का कोई हिस्सा नहीं खोये। एमपीएल के भेदभावपूर्ण प्रावधानों के बारे में बात करते हुए शुकूर ने बताया कि उनकी बेटियों को उनकी मृत्यु की स्थिति में उनके बीच समान रूप से विभाजित करने के लिए उनकी संपत्ति का सिर्फ दो-तिहाई दिया जा सकेगा। दूसरे शब्दों में उनकी प्रत्येक बेटी को शुकूर की संपत्ति का लगभग 22% ही प्राप्त हो पायेगा।

विरासत पर कुरान की राय

यह एक सचाई है कि कुरान (आयत 4:11 में) में कहा गया है कि अगर कोई पिता अपने पीछे इकलौती बेटी छोड़ जाता है, तो उसे उसकी संपत्ति का आधा (निस्फ) मिलेगा, और यदि उसकी दो से अधिक बेटियां हैं, तो उनके बीच उस संपत्ति का दो-तिहाई (कुलस) हिस्सा बांट दिया जायेगा। बुखारी और मुस्लिम के किताब अल फ़राज़ में उद्धृत एक हदीस के अनुसार, बाक़ी हिस्सा निकटतम पुरुष रिश्तेदार के पास चला जायेगा। यह पैग़ंबर को यह कहते हुए उद्धृत करता है: “उन लोगों को हिस्सा दे दो, जो उनके हक़दार हैं, और जो बचता है, वह निकटतम पुरुष उत्तराधिकारी को चला जाए। ”

लेकिन,इससे बेटियों को समान अधिकार से वंचित किये जाने के लिहाज़ से इस निषेधाज्ञा का हवाला नहीं दिया जा सकता, क्योंकि आयत 4:11 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इसमें वर्णित शेयरों का प्रतिशत पूरी संपत्ति के लिए नहीं है। वे मृतक की वसीयत और ऋण (मिन बडी वासीयातिन युज़ी बिहा अव दैनिन) के क़ानूनी रूप से तय हो जाने के बाद उत्तराधिकार के लिए उपलब्ध संपत्ति तक ही सीमित हैं। पूरी संपत्ति इन परसेंटेज के दायरे में तभी आएगी, जब कोई व्यक्ति बिना वसियत का मर जाए और उसके ऊपर किसी तरह का कोई क़र्ज़ भी न हो।

अलग तरीके से कहें तो कुरान एक मुस्लिम पिता को वसीयत के माध्यम से अपनी संपत्ति को अपने बच्चों के बीच समान रूप से विभाजित करने का अधिकार देता है। लेकिन, मुस्लिम न्यायविदों ने एक संदिग्ध हदीस के आधार पर इस अधिकार को उनकी संपत्ति के केवल एक तिहाई हिस्से तक सीमित कर दिया है।

इस हदीस के अनुसार, पैग़ंबर के एक धनी साथी साद बिन अबी वक्कास जब वह बीमार पड़ गए थे, तो उन्होंने पैग़ंबर से अपनी पूरी संपत्ति दान करने की अनुमति मांगी थी। इसमें उद्ध़त किया गया है कि पैग़म्बर इस बात से सहमत नहीं थे। लेकिन साद, जिनकी उस समय सिर्फ़ एक बेटी थी, फिर भी पैग़म्बर को यह समझाने में कामयाब रहे कि उन्हें संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा दे देना चाहिए।

सुनन अन-नसाई में इसी घटना के एक अन्य संस्करण में साद ने कहा है कि यह पैगम्बर ही थे, जिन्होंने उनसे पूछा था कि क्या उन्होंने वसीयत की है। जब साद ने जवाब दिया कि उसने अपनी सारी संपत्ति इस्लाम के कारण अपने बच्चों के लिए छोड़ दी है, तो पैगंबर ने उसे अपनी संपत्ति के दसवें हिस्से के लिए वसीयत लिखने और बाक़ी अपने बच्चों को देने के लिए कहा था। साद ने कहा कि उनके बच्चे सुसंपन्न हैं (हम अघनिया’उ) और पैग़म्बर के साथ तबतक मोलभाव करते हैं, जब तक कि पैग़म्बर साद को अपनी संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा वसीयत करने की अनुमति नहीं दे देते।

इस हदीस के सभी संस्करण इसलिए संदेहास्पद हैं, क्योंकि पैग़म्बर वसीयत करने के अधिकार पर कभी प्रतिबंध लगा ही नहीं सकते थे, इसकी वजह यह है कि जब कुरान नाज़िल हुआ था, तो उस पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया था।सचाई तो यही है कि पैग़म्बर को कुरान में यह कहते हुए उद्धृत किया गया है: “यह मेरा काम नहीं है कि मैं इसे (कुरान) अपने हिसाब से बदल दूं। मैं केवल उसी का अनुसरण करता हूं, जो मुझ पर प्रकट किया गया है।” (10:15)

मुस्लिम न्यायविद सुनन इब्न माजाह से उस एक और हदीस का हवाला देते हुए कहते हैं, जिसमें पैग़म्बर ने कथित तौर पर फ़ैसला सुनाया है कि “वारिस के लिए कोई वसीयत नहीं। ” (ला वसीयत लिवारिस)

हालांकि, आयत 2: 180 मुसलमानों को “माता-पिता और क़रीबी रिश्तेदारों” के पक्ष में एक वसीयत लिखने का फ़रमान देती है (अल वसीयातु लिल वालिदायनी वाल अकरबीना)। इसी तरह, आयत 2:240 पतियों को उनकी मृत्यु की दुर्भाग्यपूर्ण घटना में उनकी पत्नियों के लिए एक वर्ष के भरण-पोषण की वसीयत करने का निर्देश देती है (वासीयतन ली अज़वाजिहिम मातान इलल हुली)। ये आयतें स्पष्ट रूप से इंगित करती हैं कि क़ानूनी उत्तराधिकारियों को वसीयतनामा सूची में सबसे ऊपर होना चाहिए।

हदीसें कुरान के ख़िलाफ़ नहीं जा सकतीं

ऊपर उद्धृत हदीसों में स्पष्ट रूप से विरोधाभास है और क़ुरान से परे नियम हैं,जो कि उन्हें इस्लामी क़ानून का आधार होने के लिहाज़ से अविश्वसनीय बना देते हैं। इसके अलावा, इस्लाम का द्वितीयक स्रोत (हदीस) अपने प्राथमिक स्रोत (कुरान) के ख़िलाफ़ नहीं जा सकता या उसे संशोधित नहीं कर सकता।

लेकिन, आज शरीयत के नाम पर चल रहे विरासत क़ानून ने क़ुरान को इस हद तक कमज़ोर कर दिया है कि बेटों के लिए हिस्सेदारी का उच्च प्रतिशत, जो कि केवल संपत्ति की सीमित मात्रा पर लागू होता है, को मुसलमानों की अपनी संपत्ति पर वसीयती अधिकारों को स्थायी रूप से कम करने के लिहाज़ से सार्वभौमिक बना दिया है। इसने, इस ग़लत धारणा के साथ मिलकर कि क़ानूनी उत्तराधिकारियों के पक्ष में वसीयत नहीं की जा सकती, वसीयत के माध्यम से अपनी बेटियों को उनकी संपत्तियों में बराबर का हिस्सा देने से मुसलमानों के हाथ बांध दिए हैं।

यदि मुसलमान वास्तव में क़ुरान के समतावाद का लाभ उठाना चाहते हैं, तो उन्हें धर्मशास्त्रियों के व्याख्यात्मक एकाधिकार को चुनौती देने का साहस जुटाना होगा और क़ानूनी रूप से उन्हें मध्यकालीन फ़तवों या हदीसों के आधार पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बनाने से रोकना होगा, जो कि क़ुरान का उल्लंघन हैं।

(ए. फ़ैज़ुर्रहमान एक स्वतंत्र शोधकर्ता और इस्लामिक फ़ोरम फ़ॉर द प्रमोशन ऑफ़ मॉडरेट थॉट के महासचिव हैं)

आईएन ब्यूरो

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