Bihar Assembly Election 2020 लालू के लाल को भारी न पड़ जाए चुनाव में 'जाति का जहर'!

पहले चरण के चुनाव से ऐन पहले राजद के नेता और लालू यादव के चश्मे चिराग तेजस्वी यादव ने बिहार की चुनावी राजनीति में एक बार फिर जातीयता का जहर घोलने की कोशिश की है। एक चुनावी रैली में उन्होंने कहा कि लालू जी के राज में गरीब बाबू साहब के सामने सीना तान के चलता था। बिहार में 'बाबू साहब' सवर्णों खास कर ठाकुर-क्षत्रीयों को संबोधित किया जाता है। तेजस्वी के जातीयता के जहर वाले बयान पर एनडीए ने तीखी प्रतिक्रिया तो दी है साथ ही बिहार की चुनावी नब्ज को पहचानने वालो का कहना है कि पहले चरण की 71 विधानसभा सीटों पर 2015 के चुनावों में एनडीए को काफी बढ़त मिली थी। तेजस्वी यादव को शायद लग रहा है कि इस बार भी राजद की हालत पिछली बार से भी कमजोर रहने वाली है इसलिए उन्होंने आखिरी मौके पर जातीयता के जहर से बुझा चौका लगाने का जोखिम उठाया है।

यह जोखिम ऐसा है जो उन्हें चुनाव नतीजों बाउंड्री पार कराने से पहले रन आउट भी करवा सकता है। यह बात सही है कि बिहार की राजनीति ओबीसी वोटर्स के इर्द-गिर्द ही घूमती है। लालू यादव जाति की राजनीति के भरोसे 1990 से लेकर 2005 तक बिहार पर राज करते रहे थे। बिहार में लगभग 60 फीसदी ओबीसी हैं। लालू को यादव और मुसलमानों का वोट मिलता रहा था। बिहार की राजनीति में नितीश कुमार का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि उन्होंने जाति की राजनीति को खत्म कर दिया। हालांकि उलाहना देने वाले कहते हैं कि नितीश कुमार का अपना कोई वोट बैंक नहीं है। उलाहना देते वक्त वो ये भूल जाते हैं कि इसी व्यक्तिगत वोट बैंक (जातीयता वाले वोट बैंक) की राजनीति ने ही बिहार को विकास से विनाश के गर्त में पहुंचा दिया था। नितीश कुमार के आने के बाद बिहार का विकास हुआ। इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हुआ। आईआईटी और आईआईएम जैसे परिसर बने। जनता का ध्यान जुर्म-जरायम से नौकरी-रोजगार और धंधापानी की ओर बढ़ा। यह बात सही है कि नितीश के कार्यकाल में कोई बड़ी फैक्ट्री और कारखाना बिहार में नहीं लगा। युवाओं और पढ़े-लिखे लोगों को आज भी दूसरे प्रदेशों की ओर रुख करना पड़ता है।

इन सब बातों को गिनाने और बताने से पहले लोगों को यह भी जानना जरूरी है कि किसी भी प्रदेश के विकास के लिए सबसे बड़ी जरूरत वहां की कानून-व्यवस्था है। नितीश कुमार के 15 वर्षों के शासनकाल में बिहार की कानून व्यवस्था दुरुस्त रही है। अपवाद के लिए कुछ घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो बिहार की स्थिति बाकी राज्यों के मुकाबले काफी अच्छी रही है।

बिहार के चुनाव प्रचार और बिहारी जनता के मूड को पहचानने वाले कह रहे हैं कि तेजस्वी की सभाओं में भीड़ जमा होना एक बात है और भीड़ का वोट में तब्दील होना दूसरी बात है। राजद के चुनावी पोस्टर बैनर से लालू यादव के फोटो गायब होने से भी लोग काफी सशंकित हैं। हालांकि तेजस्वी को लालू के निर्देश लागतार मिल रहे हैं। तेजस्वी हर सभा में लालू के भेजे गए चुनावी पर्चे पढ़कर ही भाषण दे रहे हैं। कहा जाता है कि बिहार का ठेला खींचने वाला वोटर भी बाकी प्रदेशों के कथित पढ़े-लिखे वोटरों से ज्यादा राजनीति समझता है। लालू यादव के 15 साल और नितीश के 15 साल की तुलना करने पर साफ पता चलता है कि चैन की रोटी किसके राज में मिली।

तेजस्वी के साथ सबसे बड़ा मायनस प्वाइंट- उनकी शैक्षित योग्यता और राजनीतिक समझ बहुत कम है। तेजस्वी के मुकावले चिराग पासवान से अवर्ण-सवर्ण-ओबीसी, और पढ़े-लिखे या कम पढ़े-लिखे सब ज्यादा प्रभावित हैं।  चिराग की चालों में पैनापन और भविष्य के नेता  दिखाई देता है। जबकि  तेजस्वी उतना ही ठीक कर पाते हैं जितना लालू जी पर्चे में लिख कर भेजते हैं। बाकी  तेजस्वी जो कहते या करते हैं वो गुड़ का गोबर ही हो जाता है। बिहार के ओबीसी वोटर्स हों या अवर्ण-सवर्ण सब अमन-चैन चाहते हैं। किसी पर 'बाबू साहब और सीना तान गरीब' वाले बयानों का असर शायद ही पड़े। नितीश को परेशान करने वाले मुद्दों में कोरोना काल की स्वास्थ्य सेवा और दूसरे प्रदेशों से कामगार और स्टूडेंट्स को वापस लाने वाले मुद्दे जरू हैं।

इन मुद्दों पर कुछ लोग नितीश प्रशासन की कमियों की आलोचना कर रहे हैं लेकिन वो भी नहीं चाहते कि बिहार में जातीयता का जिन्न फिर से बाहर निकल आए। इसलिए लालू के लाल तेजस्वी ने भले ही मौका देखकर चौका मारने की कोशिश की है लेकिन उनके कैच आउट होने की संभावना ज्यादा है। इसके इतर यह भी है कि क्रिकेट और चुनावी राजनीति का नतीजा कब और कैसे पलट जाए नहीं मालूम।.

सतीश के. सिंह

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