नेपाल में चीन की सारी चालबाजियां फेल, भारत और नेपाल एक थे और एक रहेंगे!

नेपाल में संसद भंग होने के बाद राजनीतिक अनिश्चितता का माहौल है। कम्युनिस्ट पार्टी टूट गई है और खींचतान जारी है। नेपाल में इस राजनीतिक संकट का असर उसके पड़ोसी देश भारत और चीन पर भी पड़ा है। नेपाल के राजनीतिक और विदेश मामलों के जानकारों का मानना है कि कम्युनिस्ट पार्टी में दिक्कत चीन के लिए बुरी खबर है। नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता में आने के बाद से ही भारत विरोधी सेंटिमेंट्स को हवा मिलनी शुरू हो गई थी लेकिन अगर नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी कमजोर होती है तो भारत के साथ रिश्ते फिर से बेहतर होने की उम्मीद नेपाल के एक्सपर्ट्स कर रहे हैं।

नेपाल के पूर्व विदेश मंत्री और विदेशी मामलों को विशेषज्ञ रमेशनाथ पांडे ने कहा कि नेपाल में यह चौथी बार हुआ है जब संसद भंग हुई है क्योंकि नेपाली नेताओं ने कभी कमियों पर चर्चा नहीं की और न ही उसे ठीक करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि जब पड़ोसी देश से डील करने की बात आती है तो भारत की संस्थागत याददाश्त कमजोर है। भारत अपनी वैश्विक भूमिका की उम्मीद कर रहा है लेकिन छोटे पड़ोसियों से अच्छे संबंध और भरोसे के बिना भारत यह हासिल नहीं कर सकता।

भारत और नेपाल ने इतिहास से मिली दिक्कतों को हल करने का एक सुनहरा मौका खो दिया है। इस वक्त भारत में भी मजबूत सरकार है और नेपाल में भी कम्युनिस्ट पार्टी बहुमत में थी। तब संवेदनशील दिक्कतों का हल निकल सकता था लेकिन यह मौका अब चला गया। उन्होंने कहा कि इसका भारत-नेपाल संबंधों पर लंबा असर दिखेगा। पांडे ने कहा कि भारत ने 1990 से नेपाल में राजनीतिक परिवर्तन के लिए काफी निवेश किया लेकिन उसका फायदा चीन को मिला और भारत के हिस्से आरोप आए।नेपाल के राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय मामलों के एक्सपर्ट गेजा शर्मा वागले कहते हैं कि पारंपरिक तौर पर ही नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी और चीन का नजदीकी संबंध रहा है। जब कम्युनिस्ट पार्टी का एकीकरण हुआ तब भी चीन की उसमें अहम भूमिका थी। चीन हमेशा से पार्टी यूनिटी के पक्ष में था क्योंकि यही चीन के हित में भी था। जब कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई तो भारत विरोधी भावनाओं को बढ़ावा भी मिला और यह चीन के पक्ष वाली सरकार थी।

ओली की सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी ने ही कैबिनेट के इस फैसले का विरोध किया है। पार्टी के प्रवक्ता नारायणजी श्रेष्ठ ने कहा कि यह निर्णय जल्दबाजी में किया गया है क्योंकि आज सुबह कैबिनेट की बैठक में सभी मंत्री उपस्थित नहीं थे। यह लोकतांत्रिक मानदंडों के खिलाफ है और राष्ट्र को पीछे ले जाएगा। इसे लागू नहीं किया जा सकता।

पीएम ओली पर संवैधानिक परिषद अधिनियम से संबंधित एक अध्यादेश को वापस लेने का दबाव था। मंगलवार को जारी इस अध्यादेश को राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने भी मंजूरी दे दी थी। इसे लेकर पीएम ओली ने कल पार्टी के चेयरमैन पुष्प कमल दहल प्रचंड, दोपहर में सचिवालय के सदस्य राम बहादुर थापा और शाम को राष्ट्रपति भंडारी के साथ कई दौर की बैठक की थी। माना जा रहा है कि अध्यादेश को वापस लेने पर अड़े विपक्ष के साथ सहमति नहीं बनने के बाद बेइज्जती से बचने के लिए उन्होंने संसद भंग करने का फैसला किया है।

पीएम ओली का कम्युनिस्ट पार्टी के चेयरमैन पुष्प कमल दहल प्रचंड के साथ कई मुद्दों पर विवाद था। दोनों नेताओं के बीच पार्टी की पहल पर पहले एक बार समझौता भी हुआ था। लेकिन, बाद में मंत्रिमंडल के बंटवारे को लेकर फिर से खींचतान शुरू हो गई थी। ओली ने अक्टूबर में बिना प्रचंड की सहमति के अपनी कैबिनेट में फेरबदल किया था। उन्होंने पार्टी के अंदर और बाहर की कई समितियों में अन्य नेताओं से बातचीत किए बगैर ही कई लोगों को नियुक्त किया था। दोनों नेताओं के बीच मंत्रिमंडल में पदों के अलावा, राजदूतों और विभिन्न संवैधानिक और अन्य पदों पर नियुक्ति को लेकर दोनों गुटों के बीच सहमति नहीं बनी थी।

पीएम ओली अपने कैबिनेट के कुछ नेताओं का पोर्टफोलियो बदलने के साथ उन्हें फिर से मंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन प्रचंड इसके सख्त खिलाफ थे। प्रचंड चाहते थे कि देश के गृहमंत्री का पद जनार्दन शर्मा को दिया जाए। इसके अलावा दहल चाहते हैं कि संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय भी उनके किसी खास नेता को सौंपा जाए।

नेपाल की प्रमुख विपक्षी पार्टी नेपाली कांग्रेस भी संसद के शीतकालीन सत्र को जल्द से जल्द बुलाने की मांग कर रही थी। उनका कहना था कि इससे देश में कोरोना वायरस को लेकर पैदा हुई स्थिति पर बहस की जा सकेगी। वहीं, पीएम ओली के करीबियों को अंदेशा था कि इस सत्र को नेपाली कांग्रेस साजिश के तहत बुला रही है। उनका असली मकसद सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के बागी नेताओं के साथ मिलकर ओली सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करना है। जिससे ओली को सत्ता से बाहर किया जा सके।

ओली और प्रचंड के बीच जारी विवाद से सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के अस्तित्व के ऊपर ही खतरा मंडराने लगा था। वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाल रहे बिष्णु प्रसाद पौडेल समेत कई नेताओं ने खुलेआम कहा था कि उनकी पार्टी में जल्द ही बंटवारा हो सकता है। ऐसी स्थिति में ओली सरकार को गिरती ही, पार्टी की एकता भी खत्म हो जाती। इसका सीधा नुकसान आगामी लोकसभा चुनाव में उठाना पड़ता। माना जा रहा है कि इन्ही कारणों से पीएम ओली ने संसद को भंग करने का निर्णय लिया है।

संसद भंग होने से चीन नाखुश है और अब केपी शर्मा ओली से भी नाखुश है। उन्होंने कहा कि भारत और चीन के बीच चल रहे जियो पॉलिटिकल गेम में भारत का फायदा दिख रहा है। नेपाल में पॉलिटिकल जोक चल रहा है कि एनसीपी (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल) युनाइडेट बाई चीन ऐंड डिवाइडेड बाई इंडिया। उन्होंने कहा कि अब यह लग रहा है कि कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों गुट कमजोर होंगे, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप होगा और इसका फायदा नेपाली कांग्रेस को मिलेगा। उसका भारत से अच्छा रिलेशन है, चीन से भी है लेकिन भारत के मुकाबले कम।

नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार परशुराम काफले कहते हैं कि यह ओपन सीक्रेट है कि चीन ने पहले ओली और प्रचंड गुट को मिलाने की काफी कोशिश की। चीन चाहता था कि कम्युनिस्ट पार्टी मिलकर रहे, वह ओली या प्रचंड किसी एक को सपोर्ट नहीं कर रहा था। काफले कहते हैं कि नेपाल के राजनीतिक घटनाक्रम से भारत को न फायदा होगा और न ही नुकसान क्योंकि ओली सरकार ने जो मैप जारी किया उसके बाद जो भी सरकार आएगी उसके लिए यह वापस करना आसान नहीं होगा। हालांकि चीन का प्रभाव कुछ कम होगा। कम्युनिस्ट पार्टी कमजोर होने से चीन को दूसरी पार्टी से भी संबंध ठीक रखने होंगे और चीन का ज्यादा राजनीतिक प्रभाव नहीं रहेगा।.

सतीश के. सिंह

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