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अहमदिया संप्रदाय के व्यवस्थित उत्पीड़न के बाद बांग्लादेश में धर्मांध जमात को भी पीड़ा महसूस होनी चाहिए

ढाका पुलिस और इस्लामवादियों के बीच झड़प

अहमदिया मुस्लिम समुदाय पिछले हफ़्ते फिर से उत्तरी बांग्लादेश (Bangladesh) के एक शहर पंचगढ़ में धार्मिक कट्टरपंथियों के हमले का शिकार हुआ। पंचगढ़ में हमला तब हुआ जब अहमदिया समुदाय अपना वार्षिक सम्मेलन आयोजित करने की तैयारी में व्यस्त था, जिसे आमतौर पर सलाना जलसा कहा जाता है ।विगत की तरह इस संप्रदाय के अनुयायियों के साथ-साथ अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से हिंदुओं ने देश की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी के कट्टरपंथी तत्वों द्वारा बरपाये गये क़हर का खामियाजा भुगता है। कट्टरपंथियों द्वारा किए गए हमलों में दो लोगों की मौत हो गयी, सम्मेलन स्थल को नष्ट कर दिया गया, अहमदिया समुदाय के घरों पर बेरहम हमले किए गए और उनका क़ीमती सामान लूट लिया गया। जैसे-जैसे हिंसा बढ़ती गयी, पुलिस और अन्य सुरक्षा बल कट्टरपंथियों को क़ाबू करने में निंदनीय रूप से असमर्थ साबित हुए। विध्वंस हो जाने के बाद पुलिस ने मीडिया को बताया कि इन हमलों के पीछे उन लोगों को चिह्नित किये जाने को लेकर जांच चल रही है। गृह मंत्री असदुज्जमां ख़ान ने इस अराजकता को फैलाने के लिए जमात-ए-इस्लामी और उसके सहयोगी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) पर दोष मढ़ा।

जमात-ए-इस्लामी को बांग्लादेश में बतौर एक राजनीतिक दल अपंजीकृत कर दिया गया है और इसके कई नेताओं पर पाकिस्तानी सेना के साथ सहयोग करने के आरोप में इसलिए मुकदमा चलाया गया था, क्योंकि यह 1971 में बांग्लादेश में नरसंहार करने के लिए आया था। पंचगढ़ त्रासदी में इसकी भूमिका का प्रदर्शन स्पष्ट रूप से बताता है कि इसने एक दुस्साहसिक कार्य किया है। इसने सरकार से अहमदिया समुदाय को ग़ैर-मुस्लिम संप्रदाय के रूप में घोषित किये जाने का आह्वान करते हुए इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। जमात का यह क़दम दशकों से अहमदिया समुदाय और बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ बार-बार किए गए हमलों की एक स्पष्ट और ख़तरनाक रूप से याद दिलाता है।


1940 के दशक की शुरुआत में अबुल आला मौदूदी द्वारा गठित जमात ने पाकिस्तान के निर्माण का ज़ोर-शोर से विरोध किया था और जमात जोर-शोर से पाकिस्तान के निर्माण का विरोध कर रही थी और मोहम्मद अली जिन्ना को सार्वजनिक रूप से बदनाम कर रही थी, जिन्हें उनके अनुयायी क़ायद-ए-आज़म (महान नेता) के रूप में मानते थे, वहीं जमात के लोग उन्हें काफ़िर-ए-आज़म (विधर्मियों का नेता) कहा करते थे। लेकिन, 1947 में पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के बाद जमात ने देश की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने का विकल्प चुना, ज़ाहिर तौर पर पाकिस्तान को एक धार्मिक राज्य में बदलने के उत्साह से प्रेरित होकर ही जमात ने यह रास्ता अख़्तियार किया।

जमात ने सरकार को चुनौती देने के लिए अपनी शक्ति का उस समय भयानक प्रदर्शन किया, जब इसके कार्यकर्ताओं ने 1953 में लाहौर में अहमदिया समुदाय के ख़िलाफ़ कार्रवाई की। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा कि चौधरी एक अहमदिया विद्वान ज़फरुल्ला ख़ान जैसे व्यक्ति ने पाकिस्तान के पहले विदेशमंत्री के रूप में कार्य किया था और आगे चलकर 1960 के दशक में संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष बनने के बाद पाकिस्तान की राजनीति के महत्वपूर्ण राजनेता बने। 1953 में लाहौर में हुए अहमदिया विरोधी दंगों के चलते लगभग 2,000 अहमदिया मारे गए। जमात अहमदिया समुदाय को ग़ैर-मुस्लिम घोषित करने की मांग से प्रेरित थी। लाहौर में जमात के इन कृत्यों की उग्रता ने अंततः पाकिस्तानी सेना को हस्तक्षेप करने, लाहौर पर मार्शल लॉ लागू करने, मौदूदी और उसके हिंसक अनुयायियों को गिरफ़्तार करने और उनपर मुकदमा चलाने के लिए मजबूर कर दिया।

मौदूदी को मौत की सज़ा सुना दी गयी थी, लेकिन उसे राहत मिल दे दी गयी और आख़िरकार रिहा कर दिया गया। अपनी रिहाई के बाद मौदूदी जमात को पुनर्गठित करने और इस्लाम की अपनी व्याख्या के आधार पर पाकिस्तान को एक इस्लामी गणराज्य के रूप में पुनर्गठित करने की लगातार मांग करता रहा,इसने ज़रूरी नहीं समझा कि बड़े-बड़े उलेमाओं की इस सम्बन्ध में किस तरह की व्याख्या हो।

जमात पर न तो पाकिस्तान और न ही बांग्लादेश में आम चुनावों का कोई बड़ा प्रभाव पड़ा है। लेकिन, सामाजिक अव्यवस्था पैदा करने की इसकी क्षमता ने दोनों देशों में बहुत परेशानी पैदा की है। 1971 में मौदुदी और उसके अनुयायियों ने बांग्लादेश पर कब्ज़े के समय पाकिस्तानी सेना द्वारा शुरू किए गए नरसंहार का उत्साहपूर्वक समर्थन किया था, ये तो तथाकथित उन शांति समितियों के गठन की हद तक जा रहे थे, जिनके पास अवामी लीग समर्थकों और हिंदू समुदाय के सदस्यों को शिकार करने की ज़िम्मेदारी थी।

इसके पूर्वी पाकिस्तानी नेता गुलाम आज़म ने पूरे युद्ध के दौरान सैन्य जुंटा के साथ निकट संपर्क बनाए रखा। पार्टी के अन्य नेताओं ने इस धारणा को फैलाया कि बांग्लादेश के लिए संघर्ष बंगाली राजनेताओं के एक वर्ग द्वारा समर्थित एक भारतीय साज़िश था। जमात ने ढाका और अन्य क़स्बों और शहरों को भारत के विनाश का आह्वान करने वाले पोस्टरों से भर दिया था। पोस्टरों पर जो जमात ने जो अपील की थी,वह थी- ‘क्रश इंडिया’,यानी ‘भारत को कुचल डालो’। जमात ने अल-बद्र और अल-शम्स नामत ग़ुंडे दस्तों का गठन करके बंगाली विध्वंस के अपने अभियान में पाकिस्तानी सेना की सहायता की थी, जो कि युद्ध के नौ महीनों के दौरान बंगालियों के उत्पीड़न करते रहे थे। दिसंबर, 1971 में बांग्लादेश में पाकिस्तान के सशस्त्र बलों के आत्मसमर्पण की पूर्व संध्या पर जमात ने अपने अल-बद्र गिरोहों के साथ सैकड़ों बंगाली बुद्धिजीवियों को उठा लिया था और उनकी हत्या कर दी थी। बांग्लादेश की मुक्ति के कुछ ही दिनों बाद उन मारे गये बुद्धिजीवियों के क्षत-विक्षत शव मिले थे।

यह तो इतिहास का उपहास ही है कि पाकिस्तानी सेना की सहायता करने वाले जमातियों और पाकिस्तान के अन्य सहयोगियों का जनरल जियाउर्रहमान और जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद के सैन्य शासन द्वारा बांग्लादेश में पुनर्वास किया गया था। जमात के दो और अधिक कुख्यात, मतिउर्रहमान निज़ामी और अली अहसान मोहम्मद मुजाहिद ने 2001 और 2006 के बीच बेगम ख़ालिदा जिया की बीएनपी के नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री के रूप में कार्य किया। जनवरी, 2009 में अवामी लीग की सत्ता में वापसी के साथ अन्य सहयोगियों के साथ इन लोगों पर 1971 में उनकी भूमिका के लिए विशेष न्यायाधिकरणों द्वारा मुकदमा चलाया गया, मौत की सज़ा सुनायी गयी और उन्हें फ़ांसी दे दी गयी।

1953 के बाद जमात एक बार फिर 1974 में अहमदिया समुदाय के ख़िलाफ़ आंदोलन में शामिल हो गया, जिससे प्रधान मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को इस समुदाय को पाकिस्तान में ग़ैर-मुस्लिम घोषित करने के लिए मजबूर होना पड़ा। 1977 में जमात ने भुट्टो सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन में सक्रिय भाग लिया और उस समय इसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था,जब जनरल जियाउल हक़ ने सरकार को उखाड़ फेंका और बाद में अपदस्थ किए गए प्रधानमंत्री को फ़ांसी पर लटका दिया था।

बांग्लादेश में आज भी जमात एक ऐसी ताक़त बनी हुई है, जो अपने गठबंधन सहयोगियों के साथ मिलकर समाज को गंभीर नुकसान पहुंचा सकती है। पंचगढ़ त्रासदी इस बात का प्रमाण है कि जमात सांप्रदायिक संघर्ष को बढ़ावा देकर सामाजिक व्यवस्था को बिगाड़ने की क्षमता रखती है। यह बांग्लादेश की सरकार के लिए बहुत बड़ी मुसीबत बनी हुई है, क्योंकि यह इस वर्ष के अंत में आम चुनावों की तैयारी कर रही है, ताकि संगठन और अन्य संगठनों द्वारा राजनीति के अपने विचारों को साझा करने वाले अन्य संगठनों को मज़बूती से और निर्णायक रूप से रोका जा सके। बांग्लादेश में आज लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता ख़तरे में है। साम्प्रदायिक ताक़तें फिर से अपना सिर उठाने लगी हैं और देश को अंधकार युग की ओर धकेलने में लगी हुई हैं। बांग्लादेश के लोकाचार के लिए एक जोखिम बन चुकी जमात-ए-इस्लामी को बौद्धिक रूप से और अन्यथा निर्णायक रूप से मात दिए जाने की आवश्यकता है।

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सैयद बदरुल अहसन ढाका और लंदन स्थित एक पत्रकार, लेखक और दक्षिण एशियाई और अमेरिकी राजनीति पर लिखने वाले टिप्पणीकार हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं और यह लेख विशेष रूप से इंडिया नैरेटिव के लिए लिखा गया है। मूल लेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें: Bigoted Jamaat in Bangladesh must feel the pain after systematic persecution of Ahmadiyya sect