House Dissolution: सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कौन है नेपाल का सियासी सिकंदर!

संसद भंग (House Dissolution) होने के बावजूद नेपाल में कौन हावी रहेगा? इसका फैसला नेपाल की सर्वोच्च अदालत करेगी। नेपाल प्रधानमंत्री <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/KP_Sharma_Oli"><strong><span style="color: #000080;">केपी शर्मा ओली</span></strong></a> ने रविवार को संसद भंग करने का सुझाव देश की राष्ट्रपति बिद्या देवी भण्डारी के सामने रखा। राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री ओली के सिफारिश को मानते हुए संसद भंग  (House Dissolution) कर दी और मध्यावधि चुनाव कराने का ऐलान कर दिया। प्रधानमंत्री ओली के इस कदम का नेपाल के विपक्षी दलों के साथ-साथ ओली की पार्टी के दूसरे धड़े (प्रचण्ड गुट) ने तीव्र विरोध किया। प्रचण्ड गुट ने प्रधानमंत्री ओली के कदम को असंवैधानिक बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय का फैसला किया है।

<a href="https://hindi.indianarrative.com/world/political-crisis-in-nepal-pm-oli-recommended-dissolution-of-parliament-21963.html"><strong><span style="color: #000080;">नेपाल</span></strong></a> के संविधान विशेषज्ञों का कहना है कि संविधान के अनुच्छेद 76 की धारा 7 के तहत संसद को भंग (House Dissolution) करने का प्रावधान तो है लेकिन यह प्रावधान उसी स्थिति में लागू किया जा सकता है जब संसद में कोई अन्य दल सरकार बनाने की स्थिति में न हो। दूसरी बात यह भी है कि प्रधानमंत्री ओली ने संसद भंग (House Dissolution) करने का कदम सदन में उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस के बाद उठाया गया। सत्ताधारी दल एनसीपी (नेशलन कम्युनिस्ट पार्टी) के अध्यक्ष ओली और पार्टी के सह अध्यक्ष प्रचण्ड में पिछले काफी समय से तनातनी चल रही है। ओली नेपाल में काँस्टिट्यूशनल काउंसिल एक्ट लागू करना चाहते थे। इस एक्ट पर विपक्षी दलों के साथ ही उन्हीं के सह अध्यक्ष भी सहमत नहीं थे। पार्टी की बैठकों में एक राय न होने पर ओली ने चेतावनी दी थी कि वो सख्त कदम उठा सकते हैं। उस वक्त किसी ने यह नहीं सोचा था कि वो संसद को भंग करने जैसा फैसला ले सकते हैं।

ऐसा बताया जाता है कि संसद भंग (House Dissolution) किए जाने के ऐलान के बाद से अब तक 13 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार कार्यालय पहुंच चुकी हैं। इनमें से 11 याचिकाएं संसद भंग  (House Dissolution) करने के खिलाफ हैं। इन याचिकाओं में संसद की यथास्थिति बनाए रखने की मांग की गई है। नेपाल में संसद भंग करने के खिलाफ पहली बार सुप्रीम कोर्ट में याचिका नहीं की गई है। पहले भी कई बार सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा है। सबसे पहले 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोईराला ने संसद भंग की तो विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट पहुंचे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने फैसला कोईराला के पक्ष में दिया।

एक साल बाद 1995 में भी मनमोहन अधिकारी की सीपीएन-यूएमएल की अल्पमत सरकार ने भी संसद भंग (House Dissolution) करने का कदम उठाया। इस बार सुप्रीम कोर्ट का फैसला सरकार के फैसले के खिलाफ आया और संसद को जारी रखते हुए नई सरकार का गठन हुआ था। नेपाल में संसद भंग करने के और भी उदाहरण हैं, लेकिन यहां सवाल उठ रहा है कि ओली ने जिन परिस्थितियों में संसद को भंग किया है क्या वो संवैधानिक कदम है या नहीं।

प्रधानमंत्री ओली की सिफारिश और राष्ट्रपति बिद्यादेवी भण्डारी के संसद भंग (House Dissolution) करने के आदेश पर आखिरी फैसला सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश चोलेंद्र शमशेर राणा की अध्यक्षता में गठित पीठ बुधवार को करेगी। मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति राणा और उनकी पीठ में शामिल चार अन्य न्याधीशों के सामने सबसे पहला सवाल होगा कि क्या ओली का कदम संवैधानिक है? क्या नेपाल का कोई अन्य दल स्थाई सरकार देने में सक्षम है या नहीं, क्या राष्ट्रपति ने संसद भंग करने के आदेश जारी करने से पहले संवैधानिक विशेषज्ञों से राय ली? और क्या प्रधानमंत्री ने अविश्वास प्रस्ताव के रजिस्ट्रेशन होने के बाद सरकार भंग करने की सिफारिश की या फिर सरकार भंग करने की सिफारिश किए जाने के बाद संसद सचिवालय में अविश्वास प्रस्ताव भेजा गया?
नेपाल की सर्वोच्च न्यायालय के सामने यह सवाल भी खड़ा है कि अगर राष्ट्रपति के आदेश को पलटा जाता है तो क्या नेपाल में कोई स्थाई सरकार अगले डेढ़ साल तक टिक पाएगी? चीन के बढ़ते प्रभाव के बावजूद नई सरकार क्या नेपाल के हित में फैसले ले पाएगी?

नेपाल के संविधान विशेषज्ञों यह भी कहना है कि कुछ लोगों को भले ओली का कदम प्रथम दृष्टया असंवैधानिक लग रहा हो लेकिन संविधान के अनुच्छेद 85 (1) प्रधानमंत्री को किसी भी स्थिति में संसद भंग करने की सिफारिश का अधिकार देता है। सर्वोच्च न्यायालय अपना फैसला देते समय इस अनुच्छेद 85 (1) और इसके संदर्भ में अनुच्छेद 76 (7) की व्याख्या भी मांग सकती है या एमिकस क्वैरी का आह्वान भी कर सकती है।

नेपाल के बुद्धिजीवी और जनता का कहना है कि उनका विश्वास सर्वोच्च अदालत में है और सर्वोच्च अदालत का फैसला उन्हें मान्य होगा।.

सतीश के. सिंह

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