पाकिस्तानी हुकूमत के जुल्मों की दर्दनाक दास्तानों से भरी है बलूचिस्तान की धरती

<strong>“मुझे जंगे आज़ादी का मज़ा मालूम है,</strong>
<strong>बलोचों पर ज़ुल्म की इंतेहा मालूम है,</strong>
<strong>मुझे ज़िंदगी भर पाकिस्तान में जीने की दुआ मत दो,</strong>
<strong>मुझे पाकिस्तान में इन साठ साल जीने की सज़ा मालूम है”</strong>

जब पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल जिया उल हक ने बलूचिस्तान में बलोचों के खिलाफ दमन चक्र चलाया था तो क्रांतिकारी नेता और कवि हबीब जालिब ने 1970 के दशक में ये पंक्तियां लिखी थीं। हबीब को जेल भेज दिया गया था।

बलूचिस्तान की कहानी बग़ावत, हिंसा और मानवाधिकार हनन की कहानी है। 1947 से बलूचिस्तान के लोग अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। उन्हें पाकिस्तान के साथ नहीं रहना है, बलूच अपने लिए एक अलग देश चाहते हैं। पाकिस्तान के सबसे बड़ा प्रांत बलूचिस्तान को पाकिस्तान का सबसे तनावग्रस्त इलाका माना जाता है। बलूचिस्तान कुल क्षेत्रफल अब 3.5 लाख वर्ग किलोमीटर है, जो पाकिस्तान की कुल जमीन का 44 फीसदी है, यानी लगभग आधा पाकिस्तान।

'द बलोचिस्तान कोनान्ड्रम' के लेखक तिलक देवेशर के मुताबिक, "इसकी शुरुआत 1948 में ही हो गई थी। ज़्यादातर बलोच मानते हैं कि जिस तरह से उन्हें ज़बरदस्ती पाकिस्तान में मिलाया गया वो ग़ैरकानूनी था।"  ब्रिटिश शासन के अंतर्गत बलूचिस्तान में चार रियासतें शामिल थीं – कलात, लासबेला, खारान और मकरान। इन रियासतों को यह अधिकार दिया कि ये भारत और पाकिस्तान दोनों में से किसी भी देश के साथ विलय कर सकती हैं या फिर स्वयं को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर सकती हैं।

बाकियों ने तो मोहम्मद अली जिन्ना के दबाव में पाकिस्तान में अपना विलय कर लिया, लेकिन कलात के शासक मीर अहमद खान ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया। कहा जाता है कि उन्होंने भारत से मदद भी मांगी थी, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने मना कर दिया था। उसके बाद पाकिस्तानी आर्मी ने 4 महीने के भीतर कलात को भी अपने कब्जे में ले लिया और शुरू हुआ पाकिस्तान के बेइन्तेहा जुल्म का सिलसिला।

पाकिस्तानी आर्मी ने बलूचिस्तान को नरसंहार का केंद्र बना दिया। पाकिस्तान के इस जुल्म के खिलाफ और आजादी की मांग को लेकर बलूचों ने 1948 में ही हथियार उठा लिए थे और आजादी की ये लड़ाई आज भी जारी है।

पहली बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने बलूचिस्तान में पाकिस्तान द्वारा जारी हिंसा, नरसंहार और मानवाधिकारों का उल्लघंन का मुद्दा उठाया। 15 अगस्त 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल क़िले से दिए गए अपने भाषण में इसका जिक्र किया। बलूचिस्तान सुर्खियों में आ गया। स्विटज़रलैंड में निर्वासन में रह रहे बलोच विद्रोही नेता ब्राह्मदाग़ बुग़्ती का कहना है कि “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमारे बारे में बात कर हमारी मुहिम को बहुत मदद पहुंचाई है।बलूचिस्तान में जंग हो रही है । विदेशों में निर्वासन की जिंदगी जी रहे हम बलोचों को नई ऊर्जा मिली है कि भारत के लोग उनके साथ हैं ।"

पाकिस्तान का आरोप है कि बलूचिस्तान समस्या के पीछे भारत का हाथ है। जिसे भारत ने एक सिरे से नकार दिया। दरअसल , बलूचिस्तानखूनी संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है। बलोचियोंने पिछले 73 सालों में पाकिस्तान के खिलाफ कई बार लड़ाई छेड़ी । 1948 में पहला सशस्त्र प्रतिरोध, 1955-58,  1962,  1973 का सशस्त्र प्रतिरोध,  2004 का विद्रोह और 2006 में अकबर बुगती की हत्या के समय यह विद्रोह अपने चरम पर रहा।

1973 में बलूचिस्तान की चुनी हुई एनएपी (राष्ट्रीय अवामी पार्टी) सरकार को ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो द्वारा भंग कर दिए जाने पर यह संघर्ष और तेज हो गया था। लेकिन भुट्टो ने आपरेशन बलूचिस्तान के तहत वहां नरसंहार कर बगावत को कुचल दिया। बलूच संगठनों ने 2003 में फिर से गुरिल्ला हमले का रास्ता चुना। 2005 में बलूचिस्तानी नेताओं नवाब अकबर खां बुगती और मीर बालोच मर्री ने पाकिस्तान सरकार के सामने 15 सूत्रीय एजेंडा रखा। एजेंडे में बलूचिस्तान प्रांत के लिए ज्यादा अधिकारों की मांग की गई।

नवाब अकबर खां बुगती बलूचिस्तान के गवर्नर और मुख्यमंत्री भी रह चुके थे। 26 अगस्त 2006 को पाकिस्तानी सेना ने उनके ठिकाने पर बमबारी कर बुगती की हत्या कर दी। पाकिस्तान की पूर्व मंत्री सैयदा आबिदा हुसैन अपनी किताब 'पावर फ़ेल्योर' में लिखती हैं कि अपनी मौत से कुछ समय पहले बुगती ने अपने गुप्त ठिकाने से सेटेलाइट फ़ोन पर उनसे बात करते हुए कहा था, "मैंने अपनी ज़िदगी के 80 बसंत देख लिए हैं और अब मेरे जाने का वक्त आ गया है।आपकी पंजाबी फ़ौज मुझे मारने पर तुली हुई है, लेकिन इससे आज़ाद बलूचिस्तान की मुहिम को मदद ही मिलेगी। मेरे लिए शायद इससे अच्छा अंत नहीं होगा।"

उनकी हत्या ने बलूचिस्तान की परिस्थितियों को जबरदस्त रूप से बदल दिया। प्रांत में सेना का पूरा अभियान शुरू हुआ, हजारों बलोच कार्यकर्ता लापता हो गए। बलूचिस्तान लिबरेशनआर्मी  (BLA) बलोच अलगाववादियों का सबसे बड़ा संगठन है। साल 2000 से लेकर अब तक बीएलए ने पाकिस्तान के कई ठिकानों पर कई हमले किए। आजाद बलूचिस्तान की मांग करने वाले संगठनों के कुछ और नाम बलूचिस्तान रिपब्लिकन पार्टी, लश्कर-ए-बलूचिस्तान और बलूच लिबरेशन फ्रंट हैं।

इनसे निपटने के लिए पाकिस्तान के सेना के जनरलों ने कुछ विद्रोही संगठनों जैसे जैश-ए-मोहम्मद और  प्राईवेट मिलिशया को खड़ा किया है, जिन्हें डेथ स्कॉयड कहा जाता है। बलूच नेताओं का आरोप है कि इनके साथ मिलकर पाकिस्तान सेना ने दरिंदगी की सारी हदें पार कर दी हैं। हजारों लोगों को मारा जा रहा है, महिलाओं से बलात्कार किया जा रहा है। हजारों बलूच राष्ट्रवादियों को हिरासत में ले रखा है। एक अनुमान के मुताबिक 45000 लोग अभी लापता हैं।

पाकिस्तान के जितने सूबे हैं, उसमें सबसे ज़्यादा सामरिक महत्व बलूचिस्तान का है। बलूचिस्तान के अरब सागर के तट पर ही पाकिस्तान के तीन नौसैनिक ठिकाने ओरमारा, पसनी और ग्वादर हैं। इसके अलावा इस सूबे में गैस, ताँबा, सोना और यूरेनियम सभी बहुतायत में पाए जाते हैं। वहाँ चग़ाई में पाकिस्तान का परमाणु परीक्षण स्थल भी है। लेकिन इन सबके बावजूद,आर्थिक और सामाजिक पैमानों पर बलूचिस्तान, पाकिस्तान का सबसे पिछड़ा राज्य है।

विश्लेषज्ञों के मुताबिक पाकिस्तान की हुकूमत और फौज में पंजाबियों का कब्जा है जो बलोच, पुश्तून और सिंधियों को हेय दृष्टि से देखते हैं और पक्षपात करते हैं। कहने को तो पाकिस्तान को एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप मे बनाया गया था, परंतु उसमें रहने वाले सभी मुस्लिम अलग-अलग क्षेत्रों के हैं। जो सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से भिन्न-भिन्न रीति-रिवाजों के कारण एक दूसरे से अलग-अलग हैं। पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकारों में से एक रहीमउल्ला यूसुफ़ज़ई के मुताबिक, “सही है कि शासन ने उनकी तरफ़ भरपूर तवज्जो भी नहीं दी। इस तरह की सूरतेहाल फ़ाटा में भी थी, जो कि क़बायली इलाका है। दक्षिणी पंजाब में भी यही मसले हैं। पाकिस्तान में जो तरक्की हुई है वो एक समान नहीं हुई है।"

इन सबके बीच पाकिस्तान और चीन का मेगा प्रोजेक्ट चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरीडोर (CPEC) है । जिसकी की घोषणा 2015 में की गई थी। इस प्रोजेक्ट में चीन ने 62 अरब डॉलर की रक़म के निवेश का फ़ैसला किया है। प्रोजेक्ट के तहत पाकिस्तान और चीन को जोड़ने वाली सड़कें, रेल लाइनें और गैस पाइप लाइंस बिछाई जा रही हैं। ये कॉरिडोर चीन के शिनजियांग उइघुर स्वायत्त क्षेत्र से बलूचिस्तान के ग्वादर तक तकरीबन तीन हज़ार किलोमीटर की दूरी तय करता हुआ, चीन को हिंद महासागर के करीब पहुँच देता है।

बलूचिस्तान के लोग इसका ज़बरदस्त विरोध कर रहे हैं। उनकी दलील है कि इससे बलूचिस्तान के स्थानीय लोगों का कोई फ़ायदा नहीं होने वाला है। उनको लगता है कि इन परियोजनाओं को लागू करने में बलोच लोगों की आवाज़ सुनी नहीं गई और उनके हितों का ख्याल नहीं रखा गया। बलूचिस्तान के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. अब्दुल मलिक बलूच का कहना है कि " ये हमारा इलाका ज़रूर है, लेकिन हमें पता नहीं कि यहाँ क्या हो रहा है। बलोचों को डर है कि अगर यहाँ पचास लाख चीनी आ कर रहने लगेंगे तो उनकी आबादी बलोचों से अधिक हो जाएगी। तब बलोच कहाँ जाएंगे? वो अपने ही इलाके में अल्पसंख्यक बन कर रह जाएंगे।".

अतुल तिवारी

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