गामा पहलवान पले इंडिया में, बढ़े इंडिया में, लड़े इंडिया के लिए, मरे पाकिस्तान में क्यों? नवाज शरीफ से क्या है उनका रिश्ता- पढ़ें यहां पूरी जानकारी

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रुसत-ए-जमां गामा पहलवान को दतिया के महाराज ने अपने दरबार में जगह दी। उन्होंने इंदौर, भोपाल, अटक-कटक और कालिंजर तक के तमाम पहलवानों को पटखनी दी। दो बार रुस्तम-ए-हिंद से बराबरी के बाद तीसरी बार रुस्तम-ए-हिंद को भी पटखनी दे खिताब पर कब्जा कर लिया। विदेशों में भारतीय गुलाम कहकर बुलाए जाने और गुलामी का दंश झेलने के बाद गामा ने उस समय के वर्ल्ड हेविवेट चैंपियन स्टेनिशलॉस जबिश्को को चुनौती दे डाली।</p>
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10 सितंबर 1910 को जबिश्कों और गामा रिंग में उतरे। रिंग में उतरते ही गामा ने पहले ही मिनट में जबिश्को को साफ पटखनी दे दी। सच्चाई तो यह थी कि गामा पहले मिनट में ही कुश्ती जीत चुके थे। लेकिन हिंदुस्तानी गुलाम पहलवान से शिखस्त किसी भी गोरे को कबूल नहीं थी सो कुश्ती को 2 मिनट 35 सैकेंड तक खींचा गया और रिजल्ट बराबरी का घोषित कर दिया गया। गामा ने जबिश्को को फिर से चैलेंज किया। नौ दिन बाद यानी 19 सितंबर 1910 को मुकाबला तय हुआ, लेकिन स्टेनिशलॉस जबिश्को को नौ दिन पहले की पटखनी याद थी। उस समय का वर्ल्ड हेवीवेट चैंपियन स्टेनिशलॉस जबिश्को लड़ने के लिए रिंग में उतरा नहीं वो मैदान छोड़कर भाग गया। उसने गामा से हार कबूल कर ली। गामा रुस्तम-ए-जमां कहा जाने लगा।</p>
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विलायत से लौटने के बाद 1911 में गामा का रुस्तम-ए-हिंद रहीम बख्स सुलतानीवाला से तीसरा और आखिरी मुकाबला इलाहाबाद (अब प्रयागराज) हुआ। गामा ने रुस्तम-ए-हिंद को चुटकी बजाते ही धरती पर पटक कर आसमान दिखा दिया। गामा ने 1927 में स्वीडन के पहलवान जेस पीटरसन को पटखनी दी और अपने बुलंद करियर से संन्यास ले लिया। गामा ने 50 साल तक कुश्तियां लड़ीं। देश-विदेश के जाने-माने पहलवानों को चुनौती दी और चुनौती स्वीकार की, मगर गामा 50 साल में एक भी कुश्ती नहीं हारे।</p>
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गामा का जन्म अमृतसर में 22 मई 1878 हुआ था। कम उम्र में ही उनके वालिद मुहम्मद अजीज बख्श चल बसे थे। गामा यानी गुलाम मुहम्मद बख्श बट्ट ने 10 साल की उम्र से ही पहलवानी के अखाड़े मे परचम लहरा दिया था। महाराजा दतिया के दरबार में तक खबर पहुंची कि एक अनाथ पहलवान बालक को सहारे की जरूरत है तो उन्होंने गामा को अपने दरबार में जगह दी। उसकी परवरिश की। उसे दतिया के पेशेवर पहलवान का खिताब बख्शा। गामा ने भी महाराजा दतिया को कभी निराश नहीं किया। गामा जहां जाता वहां से गामा के साथ दतिया की विजय पताका फहराती हुई वापस आती।</p>
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गामा हिंदुस्तान की शान था। हिंदू हो या मुसलमान अपने तंदुरुस्त बच्चों का नाम गामा रखने में फक्र समझते थे। तभी 1947 आया। मजहब के नाम पर मुल्क के बंटबारे का जनमत हुआ। 95 फीसदी मुसलमानों ने अपने लिए अलग पाकिस्तान मांग लिया। कुछ चालाक किस्म के मुसलमान हिंदुस्तान में ही रुक गए, मगर गामा वक्त की चाल को समझने में नाकाम रहे, गामा महाराजा दतिया के अहसान और हिंदुस्तानियों के प्यार को भूल गए, गामा उस मिट्टी को भूल गए जिस मिट्टी को अपने माथे और बदन पर लगाने के बाद वो अखाड़े में उतरते और प्रतिद्वंदियों उसी मिट्टी में उठाकर पटकते रहे। गामा उस मिट्टी का कर्ज उतारने के बजाए उससे बेरुखी करके पाकिस्तान चले गए। पाकिस्तान में उनके साथ भी वही हुआ जो मुहाजिरों के साथ हुआ, जो जिन्नाह के साथ हुआ। तपेदिक से बीमार जिन्ना को एयरपोर्ट पर रिसीव करने वाला कोई नहीं था। एक पुरानी एंबुलेंस भेजी गई। जिसका तेल बीच रास्ते में खत्म हो गया। पाकिस्तान बनाने वाले कायद-ए-आजम जिन्ना ने इलाज के अभाव में तड़पते हुए दम तोड़ दिया। यही हाल रुस्तम-ए-जमां गामा का हुआ। गामा ने अपना आखिरी समय मुफलिसी में बिताया, पैसे और इलाज के अभाव में लाहौर की गुमनाम गलियों में 23 मई 1960 दुनिया को अलविदा कह दिया।  </p>
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गामा के बारे में दो बातें बहुत कम ही लोग जानते हैं। पहली यह कि पाकिस्तान के मौजूदा प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के बड़े भाई और पूर्व पीएम नवाज शरीफ की पत्नी और मरियम नवाज की मां कुलसुम  'द ग्रेट गामा की नवासी' (ग्रांड डॉटर) थीं। दूसरी बात यह कि गुलाम मुहम्मद बख्श बट्ट उर्फ गामा के पूर्वंज 'बट्ट वंश' के कश्मीरी पंडित थे। औरंगजेब के जुल्मों से बचने के लिए कुछ कश्मीरी बट्ट ब्राह्मण मुसलमान बन गए थे। गामा के पूर्वज उन्हीं में से एक थे। आत्मग्लानी की आग में झुलस रहे  में गामा के पूर्वज घाटी में अपना सब कुछ छोड़कर अमृतसर के जब्बोवाल गांव में आकर रहने लगे थे। </p>

Rajeev Sharma

Rajeev Sharma, writes on National-International issues, Radicalization, Pakistan-China & Indian Socio- Politics.

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