कौन है मोहम्मद याकूब उर्फ मौलवी याकूब? कुछ साल पहले तक किसी ने इसका नाम नहीं सुना था। 2015 में तालीबान ने अपने सुप्रीम कमांडर अमीर मुल्ला मोहम्मद उमर की मौत का ऐलान किया था..उसमें कहा गया था कि मुल्ला उमर पाकिस्तान के पेशावर में 2013 से ही बीमार थे। क्या बीमारी थी, कब से बीमार थे, कब मरे, इसका इसका कोई खुलासा नहीं किया।
उसी समय पहली बार तालीबान के एक आंख वाले अमीर, मुल्ला उमर का बेटा मोहम्मद याकूब सामने आया था। उसने लोगों को भरोसा दिलाया कि उसके पिता की मौत के पीछे कोई साजिश नहीं थी। उसने अपने पिता का हवाला देते हुए तमाम तालीबानी नेताओं से एकता बनाए रखने की गुजारिश की थी। उसके बाद कुछ सालों तक वह गायब रहा। लोगों की निगाहों से दूर जरूर था लेकिन याकूब का रूतबा तालीबान के अंदरुनी खेमे में बढ़ता जा रहा था।
इस साल 29 फरवरी को अमेरिका और तालीबान के समझोते के 3 महीने बाद मोहम्मद याकूब का नाम चर्चा में आया। तालीबान की सुप्रीम कौंसिल ने मोहम्मद याकूब को तालीबान की मिलिट्री विंग का कमांडर नियुक्त किया था। मोहम्मद याकूब अब कमांडर मुल्ला याकूब बन चुका है। जिन लोगों को लगा था कि मुल्ला उमर के बाद उनके परिवार का तालीबान पर कुछ भी प्रभाव नहीं रहेगा, वे सभी गलत साबित हुए हैं।
पत्रकार रहीमुल्लाह युसुफजई की मानना है कि, “तालीबान में याकूब से कई ज्यादा अनुभवी नेता हैं, जिन्होंने मुल्ला उमर के साथ काम किया है। माना जा रहा था कि मिलिट्री चीफ का पद किसी पुराने वफादार को मिलेगा लेकिन याकूब की नियुक्ति ने यह बात साफ कर दी कि तालीबान पर मुल्ला उमर के परिवार का दबदबा कायम है। जानकारों के अनुसार, पिछले कई महीनों से तालीबान में मिलिट्री कमांडर के पद को लेकर अंदरुनी खींच तान चल रही थी। तब याकूब डिप्टी कमांडर था।"
पत्रकार एंटोनियो जियोस्टोज्जी ( Antonio Giustozzi) 2010 से तालीबान पर रिसर्च कर रहे हैं और उन्होंने सभी तालीबानी नेताओं का इंटरव्यू किया है। उनका कहना है कि मुल्ला उमर का बड़ा बेटा याकूब, तालीबान की मौजूदा लीडरशिप में सबसे नरमपंथी रवैये वाला नेता है और अलकायदा की तरह वह अमेरिका और दूसरे पश्चिम देशों का दुश्मन नहीं है।
2015 से पहले मोहम्मद याकूब को तालीबान में कोई पद नहीं मिला था। याकूब अमेरिका से समझौते के पक्ष में रहा है। यही वजह है कि पिछले दो महीनों में तालीबान ने अमेरिका से हुए समझौते का पालन करते हुए अमेरिकी फौज या ठिकानों पर हमला नहीं किया है, लेकिन वह अलकायदा को ऐसा करने से रोकने में नाकाम रहा। मुल्ला याकूब अफगानिस्तान की सरकार में भागीदारी चाहता है। या यूं कहें कि मौजूदा सरकार के बारे में उसकी राय यह है कि यह सरकार अफगानों पर थोपी हुई सरकार है। यही वजह है कि तालीबान ने समझौते के बाद भी अफगान सरकार के ठिकानों और उसकी सेना पर हमला जारी रखा है।
याकूब से पहले इब्राहिम सद्र तालीबान का मिलिट्री चीफ था और अमेरिका और अफगानिस्तान की गनी सरकार से समझौते के खिलाफ था। अमेरिका की मोस्ट वांटेड लिस्ट में सद्र का नाम भी है। कई बार ड्रोन से उस पर हमला किया गया, लेकिन वह हर बार बच निकला। कहा जाता है कि उसे ईरान का समर्थन हासिल है। कुछ महीने पहले अपने समर्थकों को लेकर सद्र ने तालीबान से अलग हो कर एक नया संगठन हिज्ब-ए-वलायत-ए-इस्लामी बना लिया। मुल्ला उमर के कुछ साथी कंमाडर मुल्ला कयूम जाकिर को तालीबान का मिलिट्री चीफ बनाने चाहते थे। जाकिर भी अमेरिका से समझौते के खिलाफ था, उसे भी पार्टी से हटा दिया गया।
मुल्ला याकूब के बारे में कहा जाता है कि उसे सऊदी अरब के राजशाही सउद परिवार का पूरा समर्थन हासिल है और तालीबान को जिस धन की जरुरत है, वो सऊदी अरब से मिलता है। एंटोनियो जियोस्टोज्जी का कहना है कि “सऊदी और अमेरिका दोनों तालीबान के उन लोगों को बाहर रखना चाहते हैं जिनका संबध ईरान से है।"
2001 में अमेरिका के अफगानिस्तान पर हमले के दौरान याकूब अपने परिवार के साथ पेशावर में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के संरक्षण आ गया। वहीं उसने तालीबान और अल-कायदा के कट्टरपंथी मदरसों में तालीम हासिल की। जैश-ए- मोहम्मद के चीफ मसूद अजहर की निगरानी में उसने गुरिल्ला की लड़ाई सीखी। इसी दौरान लश्कर-ए-तैयबा के हाफिज सईद के साथ मुजफ्फराबाद में भी रहा और वहां भी हथियारों की ट्रेनिंग ली।
पाकिस्तान को पता था कि मुल्ला उमर की अहमियत क्या है और जब भी अमेरिकी फौज अफगानिस्तान से हटेगी, तालीबान की अहम भूमिका रहेगी। यही वजह थी कि पाकिस्तान याकूब को भविष्य के लिए पूरी तरह से तैयार कर रहा था। तालीबान में कुछ पुराने कंमाडरों ने इसके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की, लेकिन उमर के परिवार के पास धन की कमी नहीं थी और सबको खरीद कर उनका मुंह बंदा करा दिया गया। एक अनुमान के मुताबिक तालीबान अभी भी अपने कब्जे वाले इलाके में अफीम खेती, गैरकानूनी माईनिंग से करीब चार अरब डॉलर सालाना कमा रहा है। इस कमाई का लेखा-जोखा मुल्ला उमर के परिवार के पास है।
2015 में मुल्ला उमर की मौत के बाद उसके भाई मुल्ला अब्दुल मनान ने कुछ वक्त के लिए तालीबान प्रमुख का काम संभाला था और उसी समय उसने भतीजे मुल्ला याकूब को अफगानिस्तान के 34 में से 15 राज्यों का मिलिट्री डिप्टी चीफ बना दिया था। अफगान इंटेलिजेंस के मुताबिक याकूब ज्यादा सफल नहीं रहा। क्योंकि एक तो उसे अफगानिस्तान की जमीनी हकीकत का पता नहीं था, दूसरा तालीबान में अंदर ही कुछ लोग ऐसे थे, जिन्हें लगता था कि याकूब को यह ओहदा काबिलियत के चलते नहीं बल्कि विरासत के चलते मिला था।
पत्रकार रहीमुल्ला युसुफजई ने बचपन से याकूब को देखा है। उनके मुताबिक “याकूब सेल्फ सेंटर्ड है और इंट्रोवर्ट है। उसे लगता है पिता के बाद तालीबान पर उसका ही अधिकार है..जैसे राजशाही में होता है। उसकी उमर क्या है ..कोई तीस के पास..लेकिन बचपन से उसने दुनिया देखी है।"
याकूब को पता है कि अमेरिका से दुश्मनी लेकर उसका जिंदा रहना मुश्किल है। उसे पता है कि बिन लादेन का क्या अंत हुआ? साथ ही उसके पिता को जान के लाले पड़ गए थे। पाकिस्तान में छुप कर रहना पड़ा था। यही वजह थी कि तालीबान प्रमुख मौलवी हिबतुल्लाह अखुंदजादा ने उसे मिलिट्री कमीशन के चीफ के साथ साथ अपना डिप्टी भी नियुक्त किया। यानि तालीबान में नंबर दो।
अफगानिस्तान के आंतरिक सुरक्षा मामलों के पूर्व मंत्री अली जलाली का कहना है,“तालीबान और अफगान सरकार के बीच अगर कोई समझौता होता है..चाहे आज या फिर कभी, तालीबान की भूमिका बढ़ेगी। यकीनन याकूब तालीबान का चेहरा होगा जो तालीबान की मिलिट्री और पोलिटकल विंग के बीच कड़ी होगा। देखिए, अगर उसे मेन स्ट्रीम में आना है तो तालीबन वो नहीं रह सकता जो 2001 के पहले था।"
जलाली ने कहा कि “19 साल की लंबी लड़ाई और अस्थिरता के बाद तालीबान और अफगानिस्तान सरकार के बीच बातचीत की कोशिशें हो रही हैं। जबकि तालीबान को न तो सरकार पर भरोसा है, न ही सरकार को तालीबान पर। रही बात अफगानिस्तान के लोगों की..वो तो तालीबान के शासन की याद करके कांप उठते हैं। उनका मानना है कि तालीबान कितना भी दावा करे, लेकिन अपनी बुनियादी कट्टरपंथी नीतियों को नहीं छोड़ सकता। पिछले महीने मुल्ला याकूब के मारे जाने की खबर भी उड़ी थी लेकिन तालीबान ने इससे इंकार किया था।".
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