क्लिफ़ॉर्ड स्मिथ मिडिल ईस्ट फ़ोरम (MEF) के वाशिंगटन प्रोजेक्ट के निदेशक हैं, जहां वे अमेरिका में नीति निर्माताओं को कट्टरपंथी इस्लाम, इज़राइल और ईरान जैसे मुद्दों के साथ इस बारे में बताना चाहते हैं कि ये कैसे अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करते हैं।
स्मिथ हाल ही में उदयपुर में थे, जहां उन्होंने थिंक टैंक उसानास फ़ाउंडेशन द्वारा आयोजित भू-राजनीति पर महाराणा प्रताप वार्षिक संवाद में ‘अंडरस्टैंडिंग ग्लोबल प्रोपगैंडा थ्रेट्स: मैन्युफ़ैक्चरिंग नैरेटिव्स एंड शेपिंग परसेप्शन’ को लेकर बात की।
इंडिया नैरेटिव के साथ एक विशेष बातचीत में स्मिथ ने इस बात का ख़ुलासा किया कि अमेरिका धीरे-धीरे कट्टरपंथी इस्लाम के प्रसार को समझने लगा है और दुनिया भर में चरमपंथी विचारधारायें बहुत तेज़ी से फैल रही हैं। वह इस बारे में भी बात करते हैं कि ये आतंकवाद और जनता के बीच कट्टरता को लेकर अमेरिकी नीति को किस तरह प्रभावित कर सकते हैं।
इंडिया नैरेटिव: क्या आप हमें उस काम के बारे में बता सकते हैं, जो आप अमेरिका में कट्टरपंथी इस्लाम के प्रभाव को समझने के लिए कर रहे हैं ?
सीएस: हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि विभिन्न संगठन क्या कर रहे हैं और वे कैसे विचारधारा को क़ायम रख रहे हैं, कैसे वे ख़ुद को और अपने दोस्तों को वित्त पोषित कर रहे हैं, और कैसे वे अमेरिकी नीति को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। हम यह भी देख रहे हैं कि ये संगठन वैचारिक और भौगोलिक रूप से कहां से आये हैं।
इन संगठनों में से एक जमात-ए-इस्लामी (जेआई) की अमेरिकी शाखा है और फिर हमारे पास इस्लामिक सर्किल ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका (आईसीएनए) भी है। हम यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि वे भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में जमातियों के साथ कैसे बातचीत करते हैं। हम अमेरिकी लोगों के लिए इन सवालों को समझने और उनके जवाब देने की कोशिश करते हैं।
इंडिया नैरेटिव: ऐसा कैसे हो सकता है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश से सम्बन्धित जमात-ए-इस्लामीन जैसा संगठन अमेरिका में आ गया ?
सीएस: अमेरिका के सभी तीन देशों (भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) के साथ सम्बन्ध रहे हैं और मैं पीछे मुड़कर देखूं,तो ये संगठन क्या थे और वे क्या कर रहे थे, इस बारे में समझ की कमी थी। आईसीएनए में कई लोग शामिल थे…उदाहरण के लिए अशरफ़ुज़ ज़मां ख़ान, एक बांग्लादेशी जमाती, जिसे 1971 में अपनी करतूतों के लिए उसकी अनुपस्थिति में मौत की सज़ा सुनायी गयी थी, शायद दशकों से वह यूरोप में रह रहा था।
मुझे नहीं पता कि वह अभी कहां है, लेकिन माना जा रहा है कि वह पाकिस्तान में है और वह अमेरिका में भी था। मेरा मानना है कि वह एक ऐसे संगठन का हिस्सा था, जो भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान पर नैरेटिव को आकार देने की कोशिश कर रहा है। हालांकि, हमें नहीं लगता कि युद्ध अपराधियों को आवश्यक रूप से अमेरिकी नीति की जानकारी देनी चाहिए।
इंडिया नैरेटिव: भारत लंबे समय से कहता रहा है कि वह कई दशकों से आतंकवाद के संकट का सामना कर रहा है, लेकिन अमेरिका और अन्य देशों ने इस पर ध्यान नहीं दिया है। अब जब आप यूएस में आईसीएनए और जेआई पर शोध कर रहे हैं, तो क्या अमेरिका को यह लगने लगा है कि भारत जो कह रहा है, उसमें कुछ सचाई है ?
सीएस: मैं कहूंगा कि अमेरिका के पास ऐतिहासिक रूप से मध्य पूर्व और यूरोप के साथ घनिष्ठ सम्बन्धों के सभी प्रकार के भू-राजनीतिक, ऐतिहासिक और आर्थिक कारण हैं। दक्षिण एशिया के बारे में समझ की कमी रही है। मुझे लगता है कि चीन के उदय के साथ अमेरिका चीन के बारे में अधिक चिंतित है, वह भारत के साथ अपने सम्बन्धों में मज़बूती ला रहा है।
आंतरिक रूप से अमेरिका में ये मुद्दे आंशिक रूप से विवादास्पद बने हुए हैं, क्योंकि लोगों में गहरी समझ नहीं है और आंशिक रूप से अमेरिकी घरेलू राजनीति के कारण भी ऐसा हो रहा है। इस बात की वाजिब चिंता है कि हम मुसलमानों के साथ अन्याय नहीं करना चाहते, मुसलमानों के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होना चाहते हैं और चाहते हैं कि उन्हें बाक़ी लोगों की तरह ही आज़ादी मिले। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि इस्लाम का कट्टरपंथी रूप ही इस्लाम का एकमात्र रूप है और इसका मतलब आतंकवादियों या आतंकवादियों का समर्थन करने वालों को लाइसेंस देना भी नहीं है।
इंडिया नैरेटिव: ऐसा कैसे है कि 11 सितंबर के हमलों के बाद अमेरिका को आतंकवाद की बेहतर समझ नहीं हो पायी,यह कि कैसे आतंकवादी समूह इन देशों में आसानी से आगे बढ़ते हैं और अफ़ग़ानिस्तान और भारत जैसे अन्य देशों के लिए ख़तरा पैदा करते हुए इन देशों के बीच वित्त कैसे स्थानांतरित करते हैं ये आतंकवादी ?
सीएस: मुझे लगता है कि यह एक वास्तविक चिंता का विषय है। कट्टरपंथी इस्लामिक विचारधारा पर आप बहस कर सकते हैं कि यह कब शुरू होती है और कब बंद होती है। लेकिन किसी न किसी रूप में इस्लाम की धर्मतांत्रिक, अधिनायकवादी व्याख्या ख़ुद को एक राज्य की शक्ति से जोड़ती है, वास्तव में एक अपेक्षाकृत नयी परिघटना है।
हसन अल-बन्ना, मुस्लिम ब्रदरहुड, मौदूदी, जी और कुछ अन्य लोगों के बाद से हमने जो इस्लाम देखा है, वह साम्यवाद की तरह है, फासीवाद की तरह की ही एक विचारधारा है। यह कोई सरहद नहीं जानता। यह बहुत आसानी से फैल सकता है और यह एक ऐसी समस्या है, जिसके बारे में मुझे लगता है कि लोग जानते हैं। लेकिन,इसके साथ ही लोग यह नहीं जानते कि इससे कैसे निपटा जाए। मुझे लगता है कि 9/11 के बाद अमेरिका में इस समस्या के बारे में बहुत अधिक जागरूकता आयी , जिसके बारे में अधिकांश अमेरिकी बहुत कम जानते थे।
हालांकि, 9/11 के बाद और इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान के युद्धों ने इस मुद्दे को बहुत विवादास्पद बना दिया।
अमेरिका में इस्लामी संगठनों, जिनमें जमाती संगठन, मुस्लिम ब्रदरहुड और विभिन्न सलाफ़ी खाड़ी स्थित समूह शामिल हैं, उन्होंने इस नैरेटिव को बदलने के लिए बहुत कुछ किया। लेकिन, यह आंशिक रूप से घरेलू अमेरिकी राजनीति है और इसके बाद के विवाद भी हैं, जो ध्रुवीकरण कर रहे हैं … लोगों को लगता है कि हमने बहुत कुछ किया है और दूसरों को लगता है कि हमने इस विचारधारा से लड़ने के लिए पर्याप्त नहीं किया है।
लोग इसे एक सुरक्षा चिंता के रूप में देखते हैं. जबकि अन्य इसे मुसलमानों के ख़िलाफ़ कट्टरता के रूप में देखते हैं। इसलिए, मुझे लगता है कि कई वर्षों तक इस मुद्दे को नज़रअंदाज़ किया गया।
यह एक खुला प्रश्न है कि इसे अब कैसे देखा जा रहा है। अभी भी लड़ाई चल रही है। मिडिल ईस्ट फ़ोरम में हम इस मुद्दे पर ध्यान दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि यह सीमाओं को नहीं जानता है, इसलिए यह भारत को प्रभावित करता है, यह अफ़ग़ानिस्तान को प्रभावित करता है, यह यूरोप को प्रभावित करता है और यह दुनिया के हर उस देश को प्रभावित करता है, जहां कट्टरपंथी विचारधारायें हैं।
इंडिया नैरेटिव: अब जबकि अमेरिका ने काफ़ी परिष्कृत हथियारों को पीछे छोड़ते हुए नाटो के साथ-साथ अफ़ग़ानिस्तान से ख़ुद को हटा लिया है, हम अफ़ग़ानिस्तान से पाकिस्तान तक तालिबान गुरिल्लाओं की आवाजाही देख रहे हैं। कई भारतीय आशंकित हैं कि वे भारत पर भी अपनी निगाहें जमा सकते हैं। इसे लेकर अमेरिकी आतंकवाद विरोधी हलकों में क्या भावना है ?
सीएस: मुझे लगता है कि अमेरिकी आतंकवाद-विरोधी सर्कल एक मिथ्या नाम है। मेरा मानना है कि यहां कई घटक हैं… लेकिन, सिर्फ़ दो खेमे हैं – राजनेता और विशेषज्ञ। राजनेता अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध के लिए ज़िम्मेदार हैं और मैं इसे एक नीतिगत तबाही के रूप में देखता हूं जिसमें से कोई भी निर्दोष नहीं निकला है। मुझे लगता है कि यह अमेरिका द्वारा की गयी एक बड़ी ग़लती थी … मुझे लगता है कि राजनीतिकों के बीच बस इसे भूल जाने की इच्छा है, वे आगे बढ़ जाना चाहते हैं और आशा करते हैं कि कुछ नहीं होगा।
इस क्षेत्र के विशेषज्ञों के बीच वास्तविक मुद्दे के बारे में एक वैध चिंता है और वह यह कि यह न केवल आतंकवादियों के लिए सुरक्षित आश्रय होगा, बल्कि यह दुनिया भर में कट्टरपंथियों को प्रेरित करेगा। यह भी कि इसे भारत के ख़िलाफ़ क्लब के तौर पर इस्तेमाल किया जाएगा। यह कि यह दुनिया के अन्य हिस्सों में कट्टरपंथियों को लीक करेगा,इन तमाम बातों को लेकर उनमें एक समझ है।
इससे अमेरिका की नीतियां और उसके सहयोगियों की नीतियां बदल जायेंगी, यह एक अलग बात है। हमें यह देखना होगा कि किस तरह से चीज़ें आगे बढ़ती हैं। मुझे इसकी चिंता है। मैं बस इतना कह सकता हूं कि यह बेहतर होने से पहले ही चीज़ें बदतर हो जायेंगी।
नैरेटिव इंडिया: अब जब आप इस्लामिक संगठनों की जड़ों और गहराई को समझने लगे हैं, जो कट्टरपंथी संगठन या एनजीओ भी हो सकते हैं, तो हम जानते हैं कि वे अक्सर ओवरलैप करते हैं। पिछले साल लीसेस्टर में साम्प्रदायिक दंगे हुए थे, जो ब्रिटेन के लिए एकदम से नयी चीज़ थी। ईशनिंदा, जबरन धर्मांतरण और अल्पसंख्यकों को ‘अन्य’ के रूप में देखने की विचारधाराओं के कारण उनमें से अधिकांश पाकिस्तान से आयात किया गया था। क्या आपको लगता है कि अमेरिकी समाज को इसी तरह के मुद्दों का सामना करना पड़ सकता है ?
सी एस: मुसलमानों के बीच आंतरिक कट्टरता के उदाहरण हैं। एक क्लब में गोलीबारी हुई और फिर कैलिफ़ोर्निया में तशफीन मलिक और उनके पति के साथ हुई गोलीबारी की घटना हुई, जिसमें कि कई लोग मारे गए।
कोई भी कट्टरपंथी विचारधारा जब फैलती है, वह किसी भी देश के लिए समस्या पैदा करेगी। मैं उस विचारधारा के दीर्घकालिक प्रभावों को लेकर अधिक चिंतित हूं और यह मायने रखता है कि वैश्विक मामलों के लिए इसका क्या अर्थ है और यह अमेरिकी मुसलमानों को कैसे प्रभावित करता है, यह अमेरिकी विदेश नीति को कैसे प्रभावित करता है और यह अन्य देशों को कैसे प्रभावित करता है।
इंडिया नैरेटिव: क्या अमेरिका में कट्टरपंथी इस्लाम का प्रसार अमेरिकियों के बीच सामाजिक वैमनस्य लायेगा ?
सीएस: अभी नहीं। यूके के विपरीत, अमेरिका में मुसलमानों की संख्या अधिक नहीं है, शायद जनसंख्या का केवल एक से दो प्रतिशत ही है। इस लिहाज़ से मुझे अभी तक दंगे या ऐसा कुछ होते नहीं दिख रहा है। लेकिन, उस सोच के बढ़ने का ख़तरा हमेशा बना रहता है, और यह पहले से ही एक पक्षपातपूर्ण और ध्रुवीकरण का मुद्दा बनता जा रहा है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा था कि हमें मुसलमानों के लिए सभी आप्रवासन को बंद कर देने की आवश्यकता है, तब मुझे लगा था कि शीर्ष नेतृत्व बेतहाशा असंवैधानिक था और इसने सभ्य लोगों को ग़लत तरीक़े से काली सूची में डाला हुआ है।
दूसरी ओर आपके पास ऐसे लोग हैं, जो इस्लामोफ़ोबिया के रूप में मुसलमानों पर किसी भी बोधगम्य कमज़ोरी की ज़िम्मेदारी डाल देना चाहते हैं … और एक वर्चस्ववादी नैरेटिव में उसे खींच लाते हैं। मुझे लगता है कि एक राजनीतिक मुद्दे के रूप में यह पहले से ही ध्रुवीकरण कर रहा है और मुझे इसमें जल्द ही कोई बदलाव नहीं दिख रहा है।