समय-समय पर साबरमती आश्रम (Sabarmati Ashram) की चर्चा होती है। कभी बोरिस जॉनसन के पहुंचने पर तो कभी ट्रंप की भारत यात्रा पर। इतिहास में दर्ज 31 जुलाई 1933 की तारीख भी साबरमती आश्रम की याद दिलाती है। इसी दिन महात्मा गांधी ने आश्रम को छोड़ा था। अहमदाबाद की साबरमती नदी के किनारे 36 एकड़ में फैले इस आश्रम को कभी सत्याग्रह आश्रम कहा जाता था, जिसे बाद में नदी के नाम पर जाना गया। इस आश्रम के एक तरफ है साबरमती नदी, दूसरी तरफ श्मशान घाट है और पास में ही जेल है। कहा जाता है कि साबरमती आश्रम 25 मई, 1915 को अस्तित्व में आया। इसकी भी अपनी एक कहानी है। दरअसल, दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के बाद महात्मा गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ली और गुजरात में ही बसने की योजना बनाई।
गुजरात में रहने की योजना जानने के बाद उनके मित्र जीवनलाल देसाई ने उनसे अपने बंगले में रहने को कहा। इस आग्रह के बाद उनके बंगले को ही सत्याग्रह आश्रम में तब्दील किया गया। जीवनलाल का बंगला रहने के लिए तो ठीक था, लेकिन वहां पशुपालन, खेती-किसानी और ग्रामोद्योग जैसी गतिविधियां संचालित नहीं हो सकती थीं, इसलिए आश्रम को दूसरी जगह पर ले जाने की योजना बनाई गई।
आश्रम के लिए साबरमती नदी का किनारा चुना गया। यहां 35 एकड़ में सत्याग्रह आश्रम का निर्माण कराया गया। नदी के पास होने के कारण बाद में इसका नाम साबरमती आश्रम रखा गया। कहा यह भी जाता है कि इस आश्रम के निर्माण का काम इंजीनियर चार्ल्स कोरिया को सौंपा गया था।
12 मार्च को बापू ने इसी आश्रम (Sabarmati Ashram) से दांडी यात्रा की शुरुआत की। इसे नमक सत्याग्रह के नाम से भी जाना गया। शुरुआती दौर में इसमें 78 लोग शामिल हुए। कारवां बढ़ता गया और लोग जुड़ते गए। यह यात्रा साबरमती नदी से लेकर दांडी तक 241 किलोमीटर लम्बी रही। यह यात्रा ब्रिटिश सरकार के नमक कानून के खिलाफ थी।
इस आंदोलन से घबराई ब्रिटिश हुकूमत ने उन सभी लोगों को जेल में डालना शुरू किया जो इससे जुड़े थे। उस दौर में करीब 60 हजार लोगों को जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया गया था। गिरफ्तारियां होने के बाद ब्रिटिश सरकार ने इस आश्रम को कब्जे में ले लिया था क्योंकि उनका मानना था सत्याग्रह की नींव साबरमती आश्रम में ही पड़ी थी। कब्जे में लेने के बाद आश्रम को सील कर दिया. किसी के आने-जाने पर यहां पाबंदी लगा दी गई।
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महात्मा गांधी का आंदोलन नमक सत्याग्रह चला। इस आंदोलन के कारण ब्रिटिश सरकार की अर्थव्यवस्था डगमगा गई थी। इस घटना के बाद ब्रिटिश सरकार ने साबरमती आश्रम पर प्रतिबंध लगा दिया था, इसलिए 31 जुलाई, 1933 को महात्मा गांधी ने आश्रम को छोड़ दिया और पत्नी के साथ महाराष्ट्र के सेवाग्राम आश्रम का रुख किया था। आश्रम छोड़ते समय राष्ट्रपिता ने प्रण लिया था कि जब तक देश स्वतंत्र नहीं हो जाता मैं यहां वापस नहीं आउंगा।
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