साहित्य-संस्कृति

टूटता-बनता समाज: नहीं चाहिए बच्चे, Childfree Life Style का बढ़ता क्रेज

Childfree Life Style: किसी ज़माने में बच्चे के पैदा होने पर रोक नहीं थी।आख़िर होती भी कैसे,क्योंकि बच्चे कम पैदा करने की कोई अवधारणा ही नहीं थी।जबतक प्राकृतिक रूप से महिलायें कंसीव करतीं,तबतक बच्चे पैदा होते रहते।लेकिन,समय के बदलने के साथ लोगों की ज़रूरतें भी बदलती गयीं।लोग उपभोक्ता में बदलते गये और न्यूनतम ज़रूरतों वाले उपभोक्ता से अधिक से अधिक उपभोग करने वाले उपभोक्ता बनने का सफ़र तय हुआ।

ग्लोबलाइज़ेशन ने एक कोने को दूसरे कोनों से जोड़ा,कई अवधारणायें टूटीं,कई नये चलन आये।आर्थिक पहलू ने बाक़ी पहलुओं को डोमिनेंट करना शुरू कर दिया।सामाजिक मूल्य बदले,नैतिकता के मानदंड में परविर्तन आया और बदले हुए मनोविज्ञान ने आर्थिक मोर्चेबंदी की हद तय कर दी।

इस आर्थिक मोर्चेबंदी का ही कमाल है कि आज के नौजवान सेक्स तो चाहते हैं,इसके लिए शादी भी करने से उन्हें परहेज़ नहीं है,हालांकि वे लिव-इन-रिलेशनशिप के रास्ते चल पड़े हैं,लेकिन वे बच्चे नहीं चाहते,यानी वे Childfree रहना चाहते हैं।ज़िंदगी के तमाम उपभोग से गुज़रते हुए वे किसी ऐसी ज़िम्मेदारी से मुक्त रहना चाहते हैं,जो उन्हें निजी जीवन,यानी ख़ुद के जीवन जीने से रोकती है।

उन्हें लगता है कि अगर बच्चे हुए,तो तमाम ज़िम्मेदारियां उठानी पड़ेगी और वे अपना जीवन नहीं जी पायेंगे। दिल्ली के एक स्कूल में नौवीं में पढ़ने वाली पारंपरिक परिवार की एक बच्ची कहती है, “मैं पारंपरिक रूप से शादी करके जीना नहीं चाहती।हालांकि,मुझे सेक्स से परवाह नहीं,लेकिन किसी बंधन में बंधकर नहीं रहना चाहती और बच्चा तो किसी क़ीमत पर पैदा नहीं करना चाहती,क्योंकि पैदा जीने की राह के बड़े बंधन हैं।उस बंधन में जकड़े हुए अपने मम्मी-पापा को देखकर इसे आसानी से समझा जा सकता है।”

एक वेबसाइट में काम करने वाले 35 साल के एक शख़्स का कहना है कि वह बिना बच्चे का सुकून महसूस करता है।वह कहता है, “हालांकि,मैं क्रूर नहीं हूं।बेरहम नहीं हूं,लेकिन Childfree Life रहना चाहता हूं।मुझे बच्चे अच्छे लगते हैं,लेकिन मुझे कोई बच्चा नहीं चाहिए।मैं पिता नहीं बनना चाहता।हालांकि,मुझे अपोजिट पार्टनर चाहिए।वह पार्टनर लाइफ़ पार्टनर भी हो सकती है और इमेडिएट पार्टनर भी हो सकती है।”

सवाल है कि ये स्थितियां क्यों पेश आ रही हैं।इसका जवाब टूटते समाज और बढ़ती व्यक्तिवादी प्रवृत्ति में ढूंढा जा  सकता है।हर व्यक्ति अपने दायरे में किसी तरह का कोई हस्तक्षेप नहीं चाहता।वह समाज का हिस्सा तो रहना चाहता है,लेकिन समाज का हस्तक्षेप नहीं चाहता।वह ख़ुद के बनाये ऐसे क़िलेबंद जीवन में जीना चाहता है,जिसकी छतें,दीवारें और एक-एक ख़ंभे,उनकी नक़्क़ाशियां उनके मन-मुताबिक़ ढले हों और जिसमें वे तमाम तरह के उपकरण की मौजूदगी चाहते हैं,लेकिन इन्हें किसी शख़्स का दखल पसंद नहीं।उन्हें लगता है कि उनके ख़ुद का पैदा किया हुआ बच्चा भी एक तरह से उनकी ज़िंदगी का हस्तक्षेप है।

Upendra Chaudhary

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