बिहार का वह इलाक़ा, जहां लगते हैं हर बरस दुल्हों के मेले,जहां आज भी जिंदा है वर्षों पुरानी परंपरा, आज भी जारी है 700 साल पुरानी प्रथा। बिहार के मधुबनी जिला मुख्यालय से महज छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित सौराठ सभा गाछी।यह है- दुनिया का सबसे बड़ा ऑफलाइन मैट्रिमोनियल वैवाहिक स्थल। इस मैट्रिमोनियल स्थल की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि यहां विवाह के साथ-साथ शादी का पंजियन भी किया जाता है। जिस पंजियन व्यवस्था को अब सरकार ने अनिवार्य कर दिया है,वह व्यवस्था यहां से सालों से बदस्तूर है। पहले शादी तय हो जाती है,फिर वर-वधु पक्ष के लिए पंजिकार द्वारा पंजियन किया जाता है।
700 साल पहले 1310 ईस्वी के आसपास कर्णाट वंश के राजा हरिसिंह देव ने इस व्यवस्था की शुरुआत की थी। सभा के आयोजन के पीछे उनकी सोच थी कि मैथिलों का विवाह एक ही गोत्र में न हो,वर और वधु के गोत्र अलग-अलग हों। लिहाज़ा 10 दिनों की एक सभा होती थी,जिसमें दूर-दूर से दूल्हे बनने के इच्छुक नौजवान यहां शिरकत करते थे। वर और वधु पक्ष के अभिभावक यहां मिलते थे।पात्रता वाले दूल्हों का अपनी-अपनी शैक्षणिक और आर्थिक हैसियत के अनुसार चयन किया जाता था।लेकिन,इस प्रथा की ख़ूबसूरती यह थी कि इसमें दहेज जैसी कुप्रथा की मौजूदगी नहीं थी।ऐसे में पात्रता का चयन करते समय वर-वधु दोनों ही पक्षों को निर्णय लेने में सहूलियत होती थी।
दूल्हे की पात्रता की जांच शास्त्रार्थ से हुआ करती थी
दूल्हे की पात्रता की जांच शास्त्रार्थ से हुआ करती थी।कई बार विद्वानों के बीच हुए इस तरह के शास्त्रार्थ से दूल्हे या शास्त्रार्थ में भाग लेने वालों की उपाधियां भी तय होती थीं।मगर, अंग्रेज़ी हुकूमत के नयी शिक्षा नीति ने इस तरह की उपाधियों के दिए जाने पर रोक लगा दी और इस तरह इस सभा स्थली की कई विशेषताओं में से एक ख़ासियत हमेशा के लिए ख़त्म हो गयी।समय के साथ शिक्षा और विवाह की पात्रता के मिली-जुली व्यवस्था वाली इस जगह की ख्याति और पहचान धीरे-धीरे विवाह स्थली के के रूप में रह गयी।
पूर्व में कुल 42 जगहों पर लगती थी सभा
कहा जाता है कि एक समय यह परंपरा इतनी फली-फूली कि इस तरह के आयोजन 42 जगहों पर होने लगी थी, लेकिन हालात और शासन के बदल जाने से यह आयोजन सिर्फ़ सौराठ तक सिमटकर रह गया।
सौराठ में अब भी प्रत्येक वर्ष जून-जुलाई के महीने में सभा का आयोजन किया जाता है। इस सभास्थली में आज भी मधुबनी दरभंगा के साथ साथ मुजफ्फरपुर,सीतामढ़ी और यूपी से दूल्हे बनने के इच्छुक नौजवानों का जमावड़ा लगता है।
दिलचस्प है कि सौराठ सभा का आज तक कोई आयोजक नहीं हुआ। बिना आयोजक और बिना प्रायोजक के लगभग 700 वर्षों से बिना रूके ये सभा चलती रही है। सौराठ सभा अब भी मिथिलांचल का धरोहर बनी हुई है।
अब इस सभा में शामिल होने वाले इच्छुक पात्रों की संख्या न्यूनतम रह गयी है, लिहाज़ा इस वैवाहिक पंजी प्रथा में वह तेज़ी नहीं रही,जो कभी हुआ करती थी। यहां की रौनक़ अतीत हो चली है। यह स्थल अब सूना हो चला है।मगर,कभी विवाह के इच्छुक युवा यहां दूर-दराज़ से आ जुटते थे।मेलों से माहौल होता था और इस प्रथा के बूते यहां की अर्थव्यवस्था जीवंत रहती थी।इस प्रथा के लगभग अतीत बन जाने के पीछे अर्थव्यवस्था का दूसरे दरवाज़े का खुलना भी है। मगर,तब भी मिथिलांचल के कई उत्साही युवा संगठन अपने पूर्वजों की इस विरासत को सहेजने की अब भी कोशिश कर रहे हैं।परंपरा ज़िंदा रहे,इसके लिए ज़रूरी है कि वह समय सापेक्ष हो,और ज़रूरी बदलाव को अपना सकने की उसमें कुव्वत हो। ऐसा लगता है कि बड़ी संख्या में मिथिलांचल से लोगों के पलायन ने इसकी अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताक़त को नुक़सान पहुंचाया है।यह सभा शायद इसलिए भी अपने आपको क़ायम नहीं रख सकी,क्योंकि समय के साथ यह अपनी जातीय सीमा का विस्तार नहीं कर पायी,क्योंकि यह सभा मैथिलों की सभा नहीं बनकर सिर्फ़ मैथिल ब्राह्मणों की सभा बनकर रह गयी।
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