ऐसा लग रहा है कि पाकिस्तान के कट्टरपंथियों की तरह भारत के भी कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने आंखों पर कठमुल्लेपन की काली पट्टी बांध ली है। इन बुद्धिजीवियों में दारुल उलूम जैसे इस्लामी शिक्षण संस्थानों के आलिम-फाजिल से लेकर प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और समाचार एजेंसियों के कुछ सूडो सेक्युलर जर्नलिस्ट भी शामिल हैं। फ्रांस की मैग्जीन चार्ली एब्दो ने मुहम्मद साहब का कार्टून छापा है तो फ्रांस के मुसलमानों को उसका विरोध करने का हक है। मुस्लिम उम्मत के स्वंयभू ठेकेदार तुर्की और पाकिस्तान अपनी टांग अड़ाएं तो भी समझ में आता है। क्योंकि उन्हें इस्लामी देशों का कथित ठेकेदार बनना है। उन्हें इस बात से मतलब नहीं कि खुद उनके देशों में गरीब मुसलमानों की क्या हालत है। खासतौर से पाकिस्तान में। जहां अधिकारिक तौर लगभग 22 करोड़ मुसलमानों में से अधिकांश गुरबत की जिंदगी जी रहे हैं। उनके पास न खाने को रोटी है न पहनने को कपड़ा है। लाखों-लाख मुसलमान ऐसे हैं जिनका अल्लाह-ईमान सिर्फ रोटी है, और उन्हें रोटी ही नहीं मिल पा रही है।
पाकिस्तान और तुर्की को अपने मुसलमानों की चिंता नहीं करनी है तो न करें। वो फ्रांस में चार्ली एब्दो ने कार्टून छापने की मजम्मत जरूर कर रहे हैं। सिर काटने, आग लगाने की धमकियां दे रहे हैं। धमकी दे ही नहीं रहे, फ्रांस में तो चर्च में दुआ पढ़ते लोगों के गले काट दिए।
पैगंबर मुहम्मद साहब ने तो ऐसी कोई सीख या शिक्षा नहीं दी थी। कुरान में भी कहीं नहीं लिखा है कि किसी निर्दोष का सिर रेत डालो। सिर काटने  की धमकी देने वालों  फ्रैंच जुबान बोलने, लिखने या पढ़ने की तुम पर पाबंदी भी नहीं है। न तुम कार्टून के किरदार को देख कर पहचान सकते हो कि यह  कार्टून किसका  है, तो तुम धमकियां क्यों दे रहे हो। धमकी भी नफरत और जहालत की इस सीमा तक जाकर सिर काट देंगे। आग लगा देंगे। अक्ल के अंधों, जिस पैगंबर का कोई फोटो-चित्र है ही नहीं तो तुम खुद किसी कार्टून को देखकर क्यों पहचान कर रहे हो कि यह मुहम्मद साहब का कार्टून है। कुफ्र तो उन पर लाजिम होना चाहिए जो उल्टी सीधी खींची गई दो चार लाइनों में अपने पैगंबर की शिनाख्त कर रहे हैं।
एकात्म ईश्वर का वो दूत जिसकी रूह हर किसी में बसी है, उसको रंग और रेखाओं से कागज पर कैसे उकेरा जा सकता है? अगर कोई कोशिश कर भी रहा है तो वो उसकी अपनी शक्ल हो सकती है पैगंबर की नहीं।
'खरबूजे को रंग चढ़ने' वाली कहावत सुनी है न! तुर्की और पाकिस्तानी खरबूजों को देखकर भारत के भी कुछ खरबूजों को रंग चढ़ने लगा है। यहां भी पिद्दी न पिद्दी के शोरवे शेरवानी पहनकर और काला चश्मा आंखों पर चढ़ा कर सिर कलम करने की धमकियां देने लगे हैं।
सल्लाह-हु-अलैह-इ-वसल्लम ने कहा है कि तुम्हारा पड़ोसी भूखा है और तुम रोटी खा रहे हो यह हराम है। तुम ऐश की जिंदगी जी रहे हो और तुम्हारा पड़ोसी बीमार है गुरबत में है तो वो जिंदगी तुम्हें हराम है। नमाज पढ़ कर मस्जिद से बाहर निकलते हुए नंगे-भूखे, बीमार, बेघर-बेसहारा लोगों को देखा होगा न उनकी मदद के लिए आवाज उठाई है- जो आज गला फाड़-फाड़ कर सिर कलम करने की धमकियां दे रहे हो।
अल्लाह-हु-अकबर चिल्लाते हुए गला काटने वाले आतंकियों और गला काटने की धमकी देने वालों में क्या फर्क है? यमन हो या ईराक, लीबिया हो या सीरिया अल्लाह-हु-अकबर चिल्ला कर गला रेतने वाले को टेररिस्ट यानी दहशतगर्द और कानों पर हाथ लगा कर अल्ला-हु-अकबर की अजान देने वाले को 'मुसलमान' कहते हैं।
तुम यहां हिंदुस्तान की खुली फिजाओं में जीने के बावजूद दहशतगर्दों की भाषा बोल रहे हो। शर्म आती है। किसी भी हिंदुस्तानी का दिल दहशतगर्दों की भाषा बोलने वालों को  मुसलमान मानने से इंकार कर देगा।
एक खास बात और, कुछ लोग कह रहे हैं कि भारत ने, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्यों बयान दे दिया कि वो आतंकवाद के खिलाफ फ्रांस के साथ खड़े हैं। तो क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कहना चाहिए था कि भारत आतंकवाद के साथ है?  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों का अर्थ है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फ्रांस में अपना आधार है। उनके लोकतंत्र की परिभाषा कुछ और हो सकती है। आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता, आतंकवाद पूरी मानवता के लिए अभिशाप है। आतंकवादी घटना पेशावर में हो पेरिस में भारत ने हमेशा निंदा की है और आतंक के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया है।
पाकिस्तान तो खत्म हो चुका मुल्क है। उसकी बात करना भी बेमानी लगता है। इस्लामी दीन और तालीम के नजरिए से दुनिया के दो सबसे बड़े मरकज नदवा और दारुल उलूम हिंदुस्तान में ही हैं। इनकी शाखाएं और सेंटर दुनिया भर में हैं। क्या इन मरकजों के आलिम-फाजिल ये बता सकते हैं कि कुरान या हदीस में कहीं भी आतंक और आतंकियों का समर्थन किया गया है? क्या कुरान या हदीस में लिखा है कि आप दूसरे धर्म के लोगों के बयान या बात से नाराज हैं तो उनके धार्मिक स्थल में घुसकर गला रेत दो, वो भी उस वक्त जब वो दुआ कर रहे हों?
रोटी-कपड़ा-मकान-दुकान और रोजगार के लिए आवाज बुलंद करो। रोजा-नमाज-जकात में कहीं कोई मुश्किल खड़ी है तो आवाज उठाओ। जिस मिट्टी में जन्मे हो और जिस मिट्टी में मिल जाना है अगर उस मिट्टी पर (देश पर) कोई असाब आया है तो आवाज उठाओ। आवाज उठानी है तो उठाओ न आवाज- पुलवामा के शहीदों के लिए। पुलवामा में शहीद होने वाले केवल हिंदू या सिख ही नहीं 11 मुसलमान भी थे।
आवाज उठानी ही है तो आवाज उठाओ उस नापक पाकिस्तान के खिलाफ, करो आह्वान पाकिस्तानी मंत्री फवाद हुसैन और इमरान के सिर काटने का, जो अपनी संसद में दम ठोंक कर कहता है कि पुलवामा में निर्दोषों को खुदकश हमले में मार डालना हमारी बड़ी कामयाबी है।
गला रेतने की धमकी देने वालों 1993 और 2008 में मुंबई पर हुए आंतकी हमले भूल गए क्या? ये हमले भी दीन और इस्लाम की सलाहियतों के खिलाफ थे। इन हमलों में मरने वाले हिंदू-सिख-पारसियों के अलावा निर्दोष मुसलमान भी थे! करो आवाज बुलंद उस चूहे का सिर लाने की जो सैंकड़ों मासूमों के कत्ल का मुजरिम है और कराची की क्लिफ्टन कालौनी के किसी बिल में सिर छुपाए बैठा है!
किसी दूसरे के फटे पायजामे में टांग घुसाने वालों, क्या नदवा-दारुल उलूम और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के स्कॉलर्स को किसी ने रोका है दाऊद के खिलाफ बोलने से? या भोपाल के उस विधायक को किसी ने रोका जो जुमे की पाक नमाज के बाद अपने नापाक इरादों से मुसलमानों के जज्बातों से खेलता है।
क्या मुंबई की सड़कों पर मैंक्रों के पोस्टर चिपकाने और पद दलित करने वालों में हिम्मत है कि 1993 और 2008 के आतंकी हमलावरों के पोस्टर इसी तरह सड़क पर चिपकाएं और उन्हें रौंदते हुए चलें?
…चलें हैं फ्रांस की चार्ली एब्दो में छपे कार्टून पर गला काटने की धमकी देने…!!!.
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