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सबसे पहले वे अर्नब गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी के लिए आए …

रिपब्लिक टीवी और मुंबई पुलिस दोनों को एक ही सांस में फटकार लगा करके न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए), दोनों की नैतिकता को बराबर दिखाने के काम में लिप्त है। इसने "महान संस्थानों-मीडिया और पुलिस" को नैतिकता के एक ही पलड़े पर रखकर मीडिया और वास्तव में पूरे देश के लिए एक बहुत गलत उदाहरण पेश किया है।

मुंबई पुलिस की अपराध शाखा ने रिपब्लिक टीवी, न्यूज़ नेशन और महा मूवी के मालिकों और उनके कुछ कर्मचारियों को टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स (टीआरपी) के कथित हेरफेर के मामले में आरोपी बनाया। मुंबई पुलिस की अपराध शाखा ने इस मामले में गिरफ्तार किए गए दो व्यक्तियों की हिरासत बढ़ाने की मांग करने के लिए एक मजिस्ट्रेट की अदालत के समक्ष दायर अपनी रिमांड याचिका में टीवी चैनलों के मालिकों को आरोपी के रूप में नामित किया है।

तथाकथित टीआरपी घोटाले के सामने आने का समय संदिग्ध है। क्योंकि यह सुशांत सिंह राजपूत मामले में मुंबई पुलिस, मुंबई के पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह और उससे जुड़े  कुछ अन्य लोगों के खिलाफ रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ अर्नब गोस्वामी की लगातार तेज-तर्रार रिपोर्टिंग के मद्देनजर सामने आया है।

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अर्नब गोस्वामी निश्चित रूप से भारतीय पत्रकारिता का एक चमकदार उदाहरण नहीं हैं। बहुत जोर से बोलते हुए हास्यास्पद और अक्सर मसखरा नजर आते अर्नब गोस्वामी वास्तव में एक निष्पक्ष पत्रकार के बजाय एजेंडा-चलाने वाले एक कार्यकर्ता की तरह दिखते हैं। अर्नब गोस्वामी एक पत्रकार के तौर पर खराब हो सकते हैं, लेकिन निश्चित रूप से खराब से खराब पत्रकारों को भी अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार है।

एनबीए इन सभी सच्चाइयों को समझने में विफल रहा है। ब्रॉडकास्टर्स की संस्था ने अपने बयान में कहा, “एनबीए मुंबई में घटनाओं के इस मोड़ पर पहुंच जाने से बहुत परेशान है। रिपब्लिक टीवी और मुंबई पुलिस के बीच टकराव से दो महान संस्थानों-मीडिया और पुलिस की विश्वसनीयता और सम्मान को खतरा पैदा हो रहा है। हम गंभीर रूप से चिंतित हैं कि न्यूज़ रूम में काम करने वाले पत्रकार इस दुर्भाग्यपूर्ण संघर्ष के शिकार हो गए हैं।”

हमेशा अपने राजनीतिक आकाओं का आदेश मानने वाली पुलिस की तुलना पत्रकारों के साथ करके एनबीए, न केवल दोनों पक्षों को नैतिक रूप से बराबर दिखाने के काम में लिप्त है, बल्कि उसने अपने स्वयं के निम्न आत्मसम्मान को भी प्रदर्शित किया है।

एनबीए ने आगे कहा ,"हम उस तरह की पत्रकारिता को स्वीकार नहीं करते हैं जो रिपब्लिक टीवी द्वारा किया जा रहा है।" <strong>IndiaNarrative.com</strong> भी इस तरह की पत्रकारिता की प्रशंसक नहीं है। हम दार्शनिक वोल्टेयर (1698-1774) से प्रेरणा लेते हैं, जिन्हें एज ऑफ एनलाइटनमेंट का प्रतिनिधि माना जाता है। उन्होंने कहा, "आप जो कहना चाहते हैं, मैं उससे सहमत नहीं हो सकता, लेकिन मैं इसे कहने के आपके अधिकार का बचाव अपनी मौत तक करूंगा।"

एनबीए ऐसा नहीं करता है-कम से कम स्पष्ट रूप से तो नहीं ही करता है। “हम भारत के संविधान में निहित अभिव्यक्ति और मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खड़े हैं। "साथ ही" हम पत्रकारिता में नैतिकता को कायम रखने का समर्थन करते हैं और जो कुछ भी रिपोर्ट करते हैं, उसके मूल में निष्पक्ष और संतुलित रिपोर्टिंग को सबसे ऊपर रखते हैं।”

"साथ ही" एनबीए की गोलमोल बातों और संशय के विपरीत हमारा रूख स्पष्ट और असंदिग्ध है: एक पत्रकार या मीडिया हाउस पर कोई भी हमला अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है।

शायद एनबीए का अस्पष्ट रूख एक बड़ी ईर्ष्या का परिणाम हो सकता है। गोस्वामी के चैनल, विशेष रूप से हिंदी में बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। मेरा मानना ​​है कि यह समय है जब एनबीए के मीडिया के ठेकेदारों को एक प्रसिद्ध कविता पढ़नी चाहिए। जिसे जर्मन पादरी और धर्मशास्त्री मार्टिन नीमोलर (1892-1984) ने लिखा था। जिसमें उन्होंने नाजियों की सत्ता के क्रमिक विस्तार को समझाया था:

पहले वो साम्यवादियों के लिए आए

और मैं नहीं बोला

क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।

फिर वे समाजवादियों के लिए आए

और मैं नहीं बोला

क्योंकि मैं समाजवादी नहीं था।

फिर वे ट्रेड यूनियन के लिए आए

और मैं नहीं बोला

क्योंकि मैं ट्रेड यूनियनिस्ट नहीं था।

फिर वो यहूदियों के लिए आए

और मैं नहीं बोला

क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।

फिर वे मेरे लिए आए

और कोई नहीं बचा था

जो मेरे लिए बोलता।.

डॉ. शफी अयूब खान

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