Lachit Borphukan: भारतवर्ष का इतिहास लाचित बरफूकन (Lachit Borphukan) जैसे भारत के वीर सपूतों के शौर्य और वीरता का महाख्यान है। इसके कोने-कोने से आने वाले इसके वीर सपूतों की अनेक गाथाएँ, अपनी मातृभूमि के प्रति इन वीरों की निष्ठा, त्याग और समर्पण की अनेक अकल्पनीय कहानी प्रस्तुत करती हैं। ऐसी ही एक अद्भूत और अकल्पनीय कहानी है– लाचित बरफूकन की। मुगल आक्रांताओं से उत्तर-पूर्व भारत की पवित्र भूमि की रक्षा करने वाले वीरयोद्धा लाचित बरफूकन (Lachit Borphukan) का जीवन और व्यक्तित्व शौर्य, साहस, स्वाभिमान, समर्पण और राष्ट्रभक्ति का पर्याय है। प्रसिद्ध इतिहासकार सूर्यकुमार भूयान ने उनकी मौलिक रणनीति और वीरता के कारण उन्हें उत्तर-पूर्व भारत का “शिवाजी” माना है। वास्तव में, लाचित बरफूकन ने उत्तर-पूर्व भारत में वही स्वातंत्र्य-ज्वाला जलायी जो मुगल आक्रांताओं के विरुद्ध दक्षिण भारत में छत्रपति शिवाजी महाराज (Chhatrapati Shivaji Maharaj) ने, पंजाब में गुरू गोविंद सिंह ने और राजपूताना में महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) ने जलायी थी। इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए पूर्व राज्यपाल श्री श्रीनिवास कुमार सिन्हा ने अपनी पुस्तक ‘मिशन असम’ में लिखा है— “महाराष्ट्र और असम हमारे विशाल और महान देश के दो विपरीत छोर पर हो सकते हैं लेकिन वे एक सामान्य इतिहास, एक साझी विरासत और एक सामान्य भावना से एकजुट होते हैं। मध्ययुगीन काल में उन्होंने दो महान सैन्य नेताओं, महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी और असम में लाचित बरफूकन (Lachit Borphukan) को जन्म दिया है।”
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भारत में इस वीर योद्धा की स्मृति को नमन करते हुए प्रतिवर्ष 24 नवम्बर को “लाचित दिवस” (lachit divas) के रूप में मनाया जाता है। लाचित बरफूकन का जन्म 24 नवंबर, 1622 ई को अहोम साम्राज्य के एक अधिकारी सेंग कालुक–मो–साई के घर में चराइदेऊ नामक स्थान पर हुआ था। उनकी माता कुंदी मराम थीं और उनका पूरा नाम ‘चाउ लाचित फुकनलुंग’ था। उन्होंने सैन्य कौशल के साथ–साथ मानविकी तथा शास्त्र का भी अध्ययन किया था। बचपन से ही अत्यंत बहादुर और समझदार लाचित जल्द ही अहोम साम्राज्य के सेनापति बन गए। “बरफूकन” लाचित का नाम नहीं, बल्कि उनकी पदवी थी। उत्तर-पूर्व भारत के राजनीतिक इतिहास का अनुशीलन करने पर यह ज्ञात होता है कि अहोम सेना की संरचना बहुत ही व्यवस्थित थी। एक देका दस सैनिकों का, बोरा बीस सैनिकों का, सेंकिया सौ सैनिकों का, हजारिका एक हजार सैनिकों का और राजखोवा तीन हजार सैनिकों का जत्था होता था। इस प्रकार बरफूकन छः हजार सैनिकों का संचालन करता था। लाचित बरफूकन इन सभी का प्रमुख था।
‘बरफूकन’ के रूप में अपनी नियुक्ति से पूर्व वे अहोम साम्राज्य के राजा चक्रध्वज सिंह की शाही घुड़साल के अधीक्षक थे। वे परमवीर और राजा के अत्यंत विश्वासपात्र थे। प्रारम्भ में उन्हें रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण सिमलूगढ़ किले के प्रमुख और शाही घुड़सवार रक्षक दल के अधीक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। लाचित बरफूकन जैसे योद्धा के रहते मुगल आक्रांता भारत के उत्तर-पूर्व क्षेत्र को अपने अधीन नहीं कर सके। लाचित ने शक्तिशाली मुगलों से न सिर्फ टक्कर ली, बल्कि उन्हें परास्त करके उनके अभिमान और अभियान को तहस-नहस करते हुए उत्तर-पूर्व विजय के उनके अरमान को सदा के लिए चकनाचूर कर दिया।
लाचित ने बीमार होते हुए भी भीषण युद्ध किया और अपनी असाधारण नेतृत्व क्षमता और अदम्य साहस से सरायघाट की प्रसिध्द लड़ाई में लगभग 4000 मुगल सैनिकों को मार गिराया। 1671 ई में सरायघाट, ब्रह्मपुत्र नदी में अहोम सेना और मुगलों के बीच ऐतिहासिक लड़ाई हुई, जिसमें लाचित ने पानी में लड़ाई (नौसैनिक युद्ध) की सर्वथा नई तकनीक आजमाते हुए मुगलों को पराजित किया। उन्होंने अपने भौगोलिक-मानविकी ज्ञान और गुरिल्ला युद्ध की बारीक रणनीतियों का प्रयोग करते हुए सर्वप्रथम मुगल सेना की शक्ति का सटीक आकलन किया और फिर ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर भीषण नौसैनिक युद्ध में उन्हें हरा दिया। लाचित ने अपनी मौलिक युद्धनीति के तहत रातोंरात अपनी सेना की सुरक्षा हेतु मिट्टी से दृढ़ तटबंधों का निर्माण कराया। उन्होंने मातृभूमि और
देशवासियों के स्वाभिमान और हित को अपने सगे-संबंधियों से सदैव ऊपर रखा। अत: युद्धभूमि में अपने मामा की लापरवाही को अक्षम्य मानकर उनका वध कर दिया और कहा कि— “मेरे मामा मेरी मातृभूमि से बढ़कर नहीं हो सकते।”
युद्ध के समय अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए कहा गया उनका यह बोधवाक्य –“लाचित जियाइ थका माने गुवाहाटी एरा नाही (अर्थात् जब तक लाचित जीवित है, उससे गुवाहटी कोई नहीं छीन सकता)” उनकी निर्भीकता, वीरता और कुशल नेतृत्व क्षमता का परिचय देता है। घायल और अत्यंत अस्वस्थ लाचित ने अपने सैनिकों में जोश भरने के लिए कहा था— “जब मेरे देश पर आक्रमणकारियों का खतरा बना हुआ है, जब मेरे सैनिक उनसे लड़ते हुए अपनी ज़िंदगी दांव पर लगा रहे हैं, तब मैं महज़ बीमार होने के कारण कैसे अपने शरीर को आराम देने की सोच सकता हूँ।” ऐसे आदर्श और प्रेरक सेनानायक की स्मृति को सम्मान देने के लिए राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (NDA) के सर्वश्रेष्ठ कैडेट को “लाचित बरफूकन स्वर्ण पदक” से सम्मानित किया जाता है। लाचित बरफूकन की स्मृति को चिरस्थायित्व प्रदान करने के लिए उनके समाधि-स्थल जोरहाट से 16 किमी. दूर हुलुन्गपारा में ‘स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह द्वार’ का भी निर्माण किया गया है।
दरअसल, लाचित बरफूकन का महत्त्व समझने के लिए अहोम साम्राज्य का सारांश व इतिहास जानना-समझना आवश्यक है। बारह सौ अठाईस ई में असम में ताई अहोम वंश का शासन स्थापित हुआ जो मयंमार से आए थे। इस राजवंश ने सदियों तक खिलजी, तुगलक, इलियास शाही, लोदी और बंगाल सुल्तानों के आक्रमण से सफलतापूर्वक अपनी रक्षा की। लेकिन सन सोलह सौ अड़तीस ई में मुगलों के एक बड़े आक्रमण में हारकर उन्हें बड़ी आर्थिक हानि झेलनी पड़ी। फिर सन सोलह सौ अठावन ई में औरंगजेब मुग़ल बादशाह बना और सन सोलह सौ इकसठ ई में उसने अपने दो प्रमुख सेनापतियों मीर जुमला और दिलेर खान को पहले बंगाल और फिर असम पर
आक्रमण करने के लिए भेजा। अहोम साम्राज्य की शक्ति और शौर्य, जिसके बल पर इस साम्राज्य ने इतने लंबे समय तक सारे आक्रमणकारियों का सफलतापूर्वक सामना किया था, वह क्षीण होने लगा था। मुग़ल सेनापतियों मीर जुमला और दिलेर खान द्वारा किए गए इस हमले में अहोम साम्राज्य पराजित हो गया। इस साम्राज्य के कई किले तो बिना कोई लड़ाई लड़े हाथ से निकल गए। अहोम के राजा जयध्वज सिंघा को इस युद्ध में पीछे हटना पड़ा और उन्होंने पूर्वोत्तर का बड़ा हिस्सा इस युद्ध में खो दिया। इतना ही नहीं, उनको मुग़ल साम्राज्य के साथ एक अपमानजनक संधि के लिए राजी होना पड़ा जिसके तहत उन्हें न सिर्फ धन, भूमि, हाथी; बल्कि अपनी छः साल की बेटी को भी मुग़ल हरम में देना पड़ा।
अहोम साम्राज्य की पराजय और अपमान के कारण राजा जयध्वज सिंघा को बहुत बड़ा सदमा पहुँचा जिसके कारण जल्दी ही उनकी मृत्यु हो गई। उनके बाद चक्रध्वज सिंघा को राजा बनाया गया। उसका बरफूकन बनने के बाद लाचित के सामने बहुत-सी चुनौतियाँ थीं। उसके सामने एक तरफ मुगलों की विशाल और संगठित सेना थी, जिसका संचालन करने वाले साइस्ता खान और दिलेर खान जैसे अनुभवी सेनापति थे। दूसरी तरफ अहोम साम्राज्य की निराश और विभाजित सेना थी। अगले चार वर्षों तक लाचित बरफूकन ने अपना पूरा ध्यान अहोम सेना के नव-संगठन और अस्त्र-शास्त्रों को इकठ्ठा करने में लगाया। इसके लिए उन्होंने नए सैनिकों की भर्ती की, जल सेना के लिए नौकाओं का निर्माण कराया, हथियारों की आपूर्ति, तोपों का निर्माण और किलों के लिए मजबूत रक्षा प्रबंधन इत्यादि का दायित्व अपने ऊपर लिया। उन्होंने यह सब इतनी चतुराई और समझदारी से किया कि इन सब तैयारियों की मुगलों को भनक तक नहीं लगने दी। लाचित बरफूकन की चतुराई के कारण कूटनीतिक तरीके से मुगलों के साथ में दोस्ती का दिखावा भी चलता रहा। ये लाचित की राजनीतिक सूझबूझ एवं दूरदर्शिता का उत्तम उदहारण था।
मुग़ल शासन द्वारा सन सोलह सौ सड़सठ ईस्वी में गोहाटी के फौजदार रशीद खान को बदल कर फ़िरोज़ खान को नियुक्त किया गया। वह बेहद ऐय्याश किस्म का व्यक्ति था। उसने चक्रध्वज सिंघा को सीधे-सीधे असमिया लड़कियों को ऐय्याशी के लिए अपने पास भेजने का आदेश दिया। इससे लोगों में मुगलों के खिलाफ लड़ने के लिए जोश और आक्रोश भरने लगा। लाचित ने लोगों के इस जोश और आक्रोश का सही प्रयोग करते हुए इसी समय गोहाटी के किले को मुगलों से छीनने का निर्णय लिया। लाचित बरफूकन के पास एक शक्तिशाली और निपुण जल सेना के साथ समर्पित जासूसों का संजाल तो था, परन्तु घुड़सेना की भारी कमी थी। यही कारण है कि अहोम सेना द्वारा घेराबंदी करने के बाद भी महीनों तक गोहाटी के किले को स्वतंत्र नहीं कराया जा सका जिसकी रक्षा इटाकुली का किला कर रहा था। अंत में लाचित बरफूकन ने दूसरी योजना बनाई, जिसके अनुसार दस-बारह सिपाहियों ने रात के अँधेरे का फायदा उठाते हुए चुपके से किले में प्रवेश कर लिया और मुग़ल सेना की तोपों में पानी डाल दिया। अगली सुबह ही लाचित ने इटाकुली किले पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।
इस विजय के साथ ही एक बार फिर गोहाटी ने आजादी की साँस ली। लेकिन यह आजादी ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह पायी। जब औरंगजेब को इसके बारे में पता चला तब वह गुस्से से तिलमिला उठा। उसने मिर्जा राजा जयसिंह के बेटे रामसिंह को सत्तर हजार सैनिकों की बड़ी सेना के साथ अहोम से लड़ने के लिए असम भेजा। रोचक बात यह है कि रामसिंह के साथ सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर भी असम आए थे, किंतु उन्होंने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए लाचित के विरुद्ध होने वाले इस युद्ध में भाग नहीं लिया। उधर लाचित ने बिना एक पल व्यर्थ किए किलों की सुरक्षा मजबूत करने के लिए सभी आवश्यक तैयारियाँ प्रारंभ कर दीं।
अपनी भूल से अहोम सेना के प्राण संकट में डालने वाले अपने मामा को प्राणदंड देने की घटना ने लाचित बरफूकन को अपने ही सैनिकों की दृष्टि में बहुत ऊँचा उठा दिया। अब सबको यह विश्वास होने लगा कि मुगलों का सामना करना और उनका मुकाबला करना असंभव नहीं है। इस युद्ध में अहोम सेना जब तक छापामार या गुरिल्ला युद्ध कर रही थी, तब तक रामसिंह पर भारी पड़ रही थी। लेकिन फिर कुछ ही समय बाद रामसिंह ने युद्ध-नैतिकता का उल्लंघन करते हुए छल-कपट शुरू कर दिया। लाचित से रुष्ट कुछ टुकड़ी प्रमुखों को लालच देकर रामसिंह अपनी ओर करने में भी सफल हो गया। फिर उसने अहोम सेना को मैदानी युद्ध के लिए उकसाया। लाचित को पता था कि खुले युद्ध में मुगलों से जीत पाना असंभव है, क्योंकि उनके पास बेहतरीन घुड़सेना थी। लेकिन राजा चक्रध्वज सिंघा ने आवेश में आकर मैदानी युद्ध का आदेश दे दिया। इस प्रकार सोलह सौ उनहत्तर के अलाबोई के इस मैदानी युद्ध में अहोम सेना की भयानक हार हुयी और लाचित के दस हजार से ज्यादा सैनिकों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी।
दुर्भाग्य से सोलह सौ सत्तर में राजा चक्रध्वज सिंघा का देहांत हो गया और उदयादित्य सिंघा नए राजा बने। सन सोलह सौ इकहत्तर के आरंभ में रामसिंह को अपने गुप्तचरों से पता चला कि अन्दुराबली के किनारे पर रक्षा इंतजामों को भेदा जा सकता है और गोहाटी को फिर से हथियाया जा सकता है। उसने इस अवसर का फायदा उठाने के उद्देश्य से मुग़ल नौसेना खड़ी कर दी। उसके पास चालीस जहाज थे जो सोलह तोपों और छोटी नौकाओं को ले जाने में समर्थ थे। दुर्भाग्यवश लाचित इस समय इतने अस्वस्थ हो गए कि उनका चलना-फिरना भी अत्यंत कठिन हो गया। सन सोलह सौ इकहत्तर के मार्च महीने में सरायघाट का युद्ध आरंभ हुआ। यह युद्ध उस यात्रा का चरमोत्कर्ष था जो यात्रा आठ वर्ष पहले मीर जुमला के आक्रमण से आरंभ हुई थी। भारतवर्ष के इतिहास में कदाचित् यह पहला महत्त्वपूर्ण युद्ध था जो पूर्णतया नदी में लड़ा गया। ब्रह्मपुत्र नदी का सरायघाट इस ऐतिहासिक युद्ध का साक्षी बना । इस युद्ध में ब्रह्मपुत्र नदी में एक प्रकार का त्रिभुज बन गया था जिसमें एक ओर कामख्या मंदिर, दूसरी ओर अश्वक्लान्ता का विष्णु मंदिर और तीसरी ओर इटाकुली किले की दीवारें थीं। यह भीषण युद्ध जलस्थिति इसी त्रिभुजाकार सेना-संरचना में लड़ा गया।
इस निर्णायक युद्ध में अहोम सेना ने महान योद्धा लाचित बरफूकन के नेतृत्व में अपने वर्षों के युद्धाभ्यास से अर्जित रणकौशल का अद्भुत प्रदर्शन किया। इस युद्ध में अहोम सेना ने अनेक आधुनिक युक्तियों का उपयोग किया। यथा– पनगढ़ बनाने की युक्ति। युद्ध के दौरान ही बनाया गया नौका-पुल छोटे किले की तरह काम आया। अहोम की बच्छारिना (जो अपने आकार में मुगलों की नाव से छोटी थी) अत्यंत तीव्र और घातक सिद्ध हुई। इन सभी आधुनिक युक्तियों ने लाचित बरफूकन की अहोम सेना को मुग़ल सेना से अधिक सबल और प्रभावी बना दिया। दो दिशाओं से हुए प्रहार से मुग़ल सेना में हडकंप मच गया और सांयकाल तक उसके तीन अमीर और चार हजार सैनिक मारे गए। इसके बाद मुग़ल सेना पूरी तरह तबाह होकर मानस नदी के पार भाग खड़ी हुयी। दुर्भाग्यवश इस युद्ध में घायल लाचित बरफूकन ने कुछ दिन बाद ही प्राण त्याग दिए। वीर सपूत लाचित बरफूकन के नेतृत्व में अहोम सेना द्वारा अर्जित की गई सरायघाट की इस अभूतपूर्व विजय ने असम के आर्थिक विकास और सांस्कृतिक समृद्धि की आधारशिला रखी। आगे चलकर असम में अनेक भव्य मंदिरों आदि का निर्माण हुआ। यदि सरायघाट के युद्ध में मुगलों की विजय होती, तो वह असम के लिए सांस्कृतिक विनाश और पराधीनता लेकर आती। लेकिन लाचित बरफूकन जैसे भारत माँ के वीर सपूत के अदम्य साहस और असाधारण नेतृत्व क्षमता के कारण ही मुग़ल साम्राज्य के दुष्प्रभाव से अहोम साम्राज्य बच सका। मरणोपरांत भी लाचित असम के लोगों और अहोम सेना के ह्रदय में अग्नि की ज्वाला बनकर धधकते रहे और उनके प्राणों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। लाचित बरफूकन द्वारा संगठित सेना ने सन सोलह सौ बयासी में मुगलों से एक और निर्णायक युद्ध लड़ा, जिसमें उसने अपने सेनापति लाचित को श्रधांजलि अर्पित करते हुए इटाकुली किले से मुगलों को खदेड़ दिया। परिणामस्वरूप, मुग़ल फिर कभी असम की ओर नहीं आए।
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मुगल आक्रांताओं को पराजित करके स्वराष्ट्र के स्वाभिमान और गौरव की रक्षा करने वाले लाचित बरफूकन जैसे प्रेरणास्पद पूर्वजों से प्रभावित होकर ही तिरोत सिंह, नंगबाह, पा तागम संगमा, वीरांगना रानी रुपलियानी, रानी गाइदिन्ल्यू, मनीराम दीवान, गोपीनाथ बारदोलोई, कुशल कुँवर, कनकलता बरुआ आदि स्वाधीनता सेनानियों ने आगे चलकर अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध भी आजीवन संघर्ष किया। उत्तर-पूर्व भूमि की पवित्रता और स्वाधीनता की रक्षा में लाचित बरफूकन के शौर्य और बलिदान का अप्रतिम और आदि महत्व है। उनका जीवन-आदर्श और जीवन-मूल्य ही परवर्ती स्वाधीनता सेनानियों का पाथेय और प्रेरणा बने। यही कारण है कि माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने 24 नवम्बर 2015 को “लाचित दिवस” के अवसर पर उनकी वीरता को रेखांकित करते हुए कहा था कि “लाचित भारत के गौरव हैं। सरायघाट के युद्ध में उनके द्वारा प्रदर्शित अभूतपूर्व साहस को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है।” इसवर्ष असम सरकार द्वारा दिल्ली के विज्ञान भवन में उनकी जन्मजयंती को बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा है। आज़ादी की अमृत महोत्सव बेला में इतिहास के उपेक्षित नायकों की पुनर्प्रतिष्ठा सराहनीय पहल है।
(लेखक प्रो. रसाल सिंह जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं)
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