विचार

Manish Sisodia: केजरीवाल की ‘काली कोठरी’ से कारागार के कगार तक पहुंचे!

मनीष सिसोदिया (Manish Sisodia) की फिसलन इस खंदक में उन्हें गिरा देगी, इसकी कल्पना तो उनके शत्रुओं ने भी नहीं की। मनीष सिसोदिया (Manish Sisodia) की फिसलन का एक इतिहास है। ज्यादा पुराना नहीं है। राजनीति में भी मनीष सिसोदिया (Manish Sisodia) और उनकी मंडली कल ही तो आई थी। जिसका संबंध उस महान आंदोलन से है, जिसे अन्ना आंदोलन के नाम से जाना गया। वह आंदोलन उम्मीदों का था। उसने उस समय जिस खुले आकाश का सपना दिखाया था, वैसा कभी आजाद भारत ने नहीं देखा था।

भ्रष्टाचार से मुक्ति का सपना पुराना है। जिसे महात्मा गांधी ने स्वाधीनता संग्राम में जगाया था और एक नाम भी दिया था, राम राज्य। मंत्री पद पाते ही 1937 में कांग्रेसियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। शिकायतें गांधीजी के पास आती थी। आजादी के बाद पंडित नेहरू के रहते फिर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे। बात छठें दशक की है। कांग्रेस के मंच पर पंडित नेहरू भी थे। एक बड़े नेता ने खुलेआम आरोप लगाए।

भ्रष्टाचार का एक शब्द का मुहावरा लालू प्रसाद

लोकलाज थोड़ी सी तब बची हुई थी। पंडित नेहरू ने संथानम कमेटी बनाई। तब से अन्ना आंदोलन तक भ्रष्टाचार से मुक्ति के आंदोलनों की एक श्रृंखला है। अफसोस की बात है कि इन आंदोलनों से जो निकले उनमें कई लालू प्रसाद हैं। लालू प्रसाद एक मुहावरा है। भ्रष्टाचार को एक शब्द में जो समझा दे वह मुहावरा है। गुजरात में एक चिमन भाई पटेल होते थे। उन्हें उस राज्य ने ‘चिमन चोर’ कहा। आखिर क्यों चिमन के नए-नए संस्करण जमीन फाड़कर निकलते रहते हैं, कुकुरमुत्ते की तरह। क्या जिन छात्रों ने अपनी जान की बाजी लगाकर अन्ना आंदोलन को घर-घर पहुंचाया, वे फिर ठगे नहीं गए? यही सवाल वे अपने से पूछ रहे होंगे। उन्हें खुद से पूछना भी चाहिए। लेकिन निराश नहीं होना चाहिए।

Manish Sisodia के फिसलन का इतिहास पुराना है

केजरीवाल और मनीष सिसोदिया- तब का सच और कैलाश गोदुका

ठीक इसके उलट एक व्यक्ति है, जिसने अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया (Manish Sisodia) को सही ढंग से भांप लिया था। जिसे तब का सच जानना हो वह कैलाश गोदुका से मिले। यह कोई रहस्योद्घाटन नहीं है। यह तो सिर्फ निशान लगाकर बताने की एक कोशिश है। प्रज्ञा संस्थान के सचिव राकेश सिंह ने 2014 में एक किताब ‘केजरीकथा’ लिखी। वह ऐसी किताब है जो तब जितनी सच थी, उतनी आज भी है। किताब के अंत में एक खंड है-अभिमत। जिसमें शेखर गुप्त, तवलीन सिंह, अरुण अग्रवाल और रामबहादुर राय के प्रकाशित लेख हैं। लेकिन जो अंतिम पृष्ठ पर छपा हुआ है वह है छोटा, सिर्फ चार पैरे का, लेकिन आज उसे पढ़ना और उसकी पंक्तियों में छिपे चेहरे को पहचानना सबसे ज्यादा जरूरी है। वह चेहरा है, मनीष सिसोदिया का।

अरविंद केजरीवाल की पहचान उनकी परिवर्तन संस्था

इसे कृपया पढ़िए, ‘अरविंद केजरीवाल की पहचान उनकी परिवर्तन संस्था से होती रही है। सच्चाई यह है कि संस्था का नाम परिवर्तन नहीं था। परिवर्तन तो एक प्रोजेक्ट था। संस्था का नाम है संपूर्ण परिवर्तन। पहले हम लोगों ने परिवर्तन नाम से संस्था रजिस्टर्ड करवाने की कोशिश की। लेकिन उस नाम से पहले से ही एक संस्था रजिस्टर्ड थी। फिर हम लोगों ने संपूर्ण परिवर्तन नाम से संस्था रजिस्टर्ड करवाई। अरविंद केजरीवाल उस समय राजस्व विभाग में अधिकारी थे।’

फोर्ड फाउंडेशन और 80 हजार डॉलर का चंदा

‘2002 में हमारे यहां एक विवाद पैदा हुआ। वह विवाद विदेशी पैसे के सहारे अपनी सरकार के खिलाफ आंदोलन को लेकर था। इस विवाद की वजह बना फोर्ड फाउंडेशन की ओर से 80,000 डालर का सहयोग। अरविंद केजरीवाल और उनके साथी फोर्ड से पैसा मिलने के बाद नौकरी छोड़कर पूरी तरह संस्था का काम करने के लिए हमारे पास आए। हम लोगों ने पूछा कि आखिर आप नौकरी क्यों छोड़ना चाहते हैं तो उनका कहना था कि हम संपूर्ण परिवर्तन को पूरा समय देना चाहते हैं। इसके पहले वह स्टडी लीव यानी पढ़ने के लिए छुट्टी लेकर काम कर रहे थे। उस समय भी संस्था का मानना था कि यह तरीका गलत है।’ इसमें कहीं नहीं लिखा है कि ‘वह’ कौन थे। यह तो लिखा है कि ‘अरविंद केजरीवाल और उनके साथी’ थे। यहां उस साथी को जानिए। वे मनीष सिसोदिया थे।

केजरीवाल और उनके साथी काम के लिए संस्था से वेतन भी चाहते थे

‘एक और विवाद यह पैदा हुआ कि अरविंद केजरीवाल और उनके साथी काम के लिए संस्था से वेतन भी चाहते थे। इस बात पर भी संस्था के सदस्यों ने एतराज जताया। इन्हीं विषयों पर विवाद बढ़ता गया। फिर यह बात आई कि हमें भ्रष्टाचार को परिभाषित करना होगा। सिर्फ पैसे का भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार नहीं है। अपनी सुविधा के अनुसार भ्रष्टाचार की परिभाषा नहीं गढ़ी जानी चाहिए। कौन किस तरह का व्यवहार करता है, इस आधार पर भी भ्रष्टाचार को देखा जाना चाहिए। यही नहीं जब ये लोग सदस्य बनाने के लिए दबाव बना रहे थे तो इनका कहना था कि वेतन भी लेंगे और सदस्य भी बनेंगे। यह भी एक विवाद का विषय था। हमने कहा कि यह संस्था के नियम के हिसाब से सही नहीं है कि कोई सदस्य वेतन ले। इन लोगों ने कहा कि अगर आपको ऐसा लगता है तो हम किसी और के नाम से ले लेंगे। फिर बात आई कि यह भी भ्रष्टाचार ही है। इसकी अनुमति नहीं मिल सकती है। वहीं पर हम लोगों ने कहा कि हमारे कार्यकर्ता भ्रष्टाचार को अपने हिसाब से परिभाषित कर रहे हैं। इसलिए हमें सोचना पड़ेगा कि हमें संपूर्ण परिवर्तन को चलाना चाहिए या फिर नहीं। अरविंद केजरीवाल का सदस्य बनने का आवेदन हमने अस्वीकार कर दिया। बाद में इसके लिए उन्होंने बहुत लाबिइंग की। लेकिन उन्हें सदस्य नहीं बनाया गया।’

‘इस पूरे विवाद पर संपूर्ण परिवर्तन की गवर्निंग बॉडी की बैठक हुई। उस बैठक में निर्णय हुआ कि फोर्ड फाउंडेशन के पैसे को हम इस्तेमाल नहीं करेंगे। हमने फोर्ड फाउंडेशन को एक पत्र लिखा कि हमारी गवर्निंग बॉडी ने यह निर्णय लिया है कि विदेशी पैसों से हम अपनी सरकार के खिलाफ नहीं लड़ेंगे। हम अपने देश के लोगों से संस्था के लिए पैसा इकठ्ठा करेंगे। अपने लोगों से पैसा इकठ्ठा करके अपनी सरकार के खिलाफ लड़ेंगे।’

‘परिवर्तन का सच’

जो आपने पढ़ा वह किताब में ‘परिवर्तन का सच’ शीर्षक से कैलाश गोदुका के नाम से छपा है। वे संपूर्ण परिवर्तन के सचिव थे। कैलाश गोदुका ईमानदार चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं। मेरी उनसे पिछले दिनों भेंट हुई। वे मेरे घर आए थे। आंदोलन के प्रारभिंक दिनों में अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया (Manish Sisodia) भी मेरे घर बहुत बार आए हैं। अपनी भी उस आंदोलन में दिलचस्पी थी। थोड़ी सक्रियता भी थी। लेकिन एक चरण के बाद जब मुझे लगा कि अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया एक गैंग है। इनका मकसद आंदोलन नहीं है, इन लोगों ने ईमानदारी का चोला पहन रखा है। इनका मकसद तो सत्ता की राजनीति है। इसे बहुत पहले मैंने भाप लिया और दूरी बना ली। तभी राकेश सिंह और संदीप देव ने छानबीन कर इनका मुखैटा उतारा। संदीप देव की किताब-‘केजरीवाल: सच्चाई या साजिश’ है।

सीबीआई ने मधुशाला के मनीष पर छापा डाला

भारत सरकार के केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने दो बातें पते की कही हैं। पहली, सीबीआई ने मधुशाला के मनीष पर छापा डाला है। दूसरी, मनीष सिसोदिया का नाम होना चाहिए, ‘मनी-श्श’। सीबीआई के छापे के बाद अगर किसी तरह की नैतिकता होती तो अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को त्यागपत्र देकर सरकार से बाहर आ जाना चाहिए। जो व्यक्ति एक आंदोलन से राजनीति में आया। एक राजनीतिक मंच को लूटेरों के गैंग में बदला उससे संभवतः ऐसी आशा नहीं की जा सकती। सीबीआई के आरोप, उसकी जांच-पड़ताल और फिर अदालती कार्रवाई का सिलसिला अभी तो शुरू हुआ है। क्या-क्या राज खुलेंगे, इसका किसी को अभी अंदाज नहीं है। लेकिन हद तो यह हो गई कि मनीष सिसोदिया रंग बदलने लगे। न्यूयार्क टाइम्स में छपे रिपोर्ट को अपनी योग्यता का सबूत मानते हैं। असल में, इसी का जवाब अनुराग ठाकुर ने दिया है।

शिक्षा में सुधार से शराब के धंधे में रिश्वतखोरी तक

पहली नजर में मनीष सिसोदिया गले तक भ्रष्टाचार में रंगे हाथ पकड़े गए हैं। अगर ऐसा न होता तो आबकारी नीति को वे वापस नहीं लेते। घटनाओं का सिलसिला जैसे बढ़ा है वह कोई अचानक छापेमारी की घटना नहीं है। एक प्रक्रिया का मात्र उसे अंश कहेंगे। सवाल जांच की प्रक्रिया और उसकी राजनीति का नहीं है। जो व्यक्ति शिक्षा में सुधार का दावा करता है वह शराब के धंधे में रिश्वतखोरी करेगा, यह सोचकर ही किसी का भी मन कितना खिन्न हो सकता है, क्या इसकी कोई कल्पना कर पाएगा? रिश्वतखोरी की चर्चा आम है। उसके सबूत मिले या नहीं, यह अलग बात है। लेकिन जिसने गांधीजी का नाम लिया और उन्हें भुनाया, वह अपनी फिसलन में अरविंद केजरीवाल की काली कोठरी में फिसलते-फिसलते जहां पहुंचा है, वहां अब सीबीआई भी पहुंच रही है। एक समय के अपने मित्र मनीष सिसोदिया पर प्रभु दया करें। मैं तो यही प्रार्थना करता हूं।

इसे भी पढ़ेंः लाल किले से इशारा, भ्रष्टाचारियों पर ब्रह्मास्त्र

Rajeev Sharma

Rajeev Sharma, writes on National-International issues, Radicalization, Pakistan-China & Indian Socio- Politics.

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