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श्रीनगर में 34 साल बाद मुहर्रम का जुलूस: शिया मुसलमानों और हिंदुओं के बीच एकता का नायाब प्रतीक

श्रीनगर में 34 साल बाद पहला मुहर्रम जुलूस

याना मीर

Procession After 34 Years:34 साल के अंतराल के बाद कश्मीर में शिया समुदाय ने गुरुवार को श्रीनगर में अपने पारंपरिक मार्ग पर मुहर्रम जुलूस निकाला। जुलूस गुरुबाज़ार से शुरू हुआ और डलगेट पर समाप्त हुआ, इसमें हज़ारों शोक मनाने वालों ने भाग लिया।इन्होंने नारे लगाए और हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में अपनी छातियां पीटीं।

इस क्षेत्र में आतंकवाद फैलने के बाद 1989 में कश्मीर में जुलूस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। हालांकि, बीजेपी सरकार ने पिछले साल यह प्रतिबंध हटा दिया था।

सरकार का दावा है कि यह क़दम कश्मीर में शांति और सामान्य स्थिति को बढ़ावा देने की पहल के तहत उठाया गया है। लेकिन, यह क़दम दो समुदायों- शिया मुसलमानों और हिंदुओं के बीच लंबे समय से चले आ रहे बंधन को भी उजागर करता है।

इस बंधन का सबसे ज्वलंत उदाहरण नासिक, महाराष्ट्र में हलोक ताज़िया की परंपरा है। हर साल मुहर्रम के महीने के दौरान नासिक में शिया मुसलमान उन इमाम हुसैन की क़ब्र की प्रतिकृति बनाते हैं, जो 680 ईस्वी में कर्बला की लड़ाई में शहीद हुए थे। फिर हलोक ताज़िया को नासिक की सड़कों पर एक जुलूस के रूप में ले जाया जाता है, और इसे पारंपरिक रूप से हिंदू अनुयायियों द्वारा उठाया जाता है। यह परंपरा इमाम हुसैन की शहादत पर शिया मुसलमानों और हिंदुओं के साझा दुख का प्रतीक है और दोनों समुदायों के बीच सहयोग के लंबे इतिहास की याद दिलाती है।

लखनऊ शहर में शिया और हिंदू समुदायों ने संयुक्त रूप से मस्जिदों, मंदिरों और अन्य ऐतिहासिक स्थलों का जीर्णोद्धार किया है, और उन्होंने शहर में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए भी मिलकर काम किया है।

वाराणसी में सदियों से काशी विश्वनाथ मंदिर का प्रबंधन शिया और हिंदू समुदाय मिलकर करते आए हैं।

गुजरात में बोहरा समुदाय शिया इस्लाम की एक शाखा है, और महाराष्ट्र में इस्माइली समुदाय शिया इस्लाम की एक और शाखा है।इन दोनों ने शिक्षा और सामाजिक विकास को बढ़ावा देने के लिए बहुसंख्यक हिंदू के साथ काम किया है।

जब हिंदू-शिया एकजुटता की बात की जाती है, तो कोई भी हिंदू व्यक्ति राहब सिद्ध दत्त की कहानी को आसानी से खारिज नहीं कर सकता है। वह भारत के पंजाब के मोहयाल ब्राह्मण समुदाय से थे। वह एक सैनिक थे और 680 ई में कर्बला की लड़ाई के समय बगदाद में रह रहे थे। जब उन्होंने उस लड़ाई के बारे में सुना, तो उन्होंने इमाम हुसैन की सेना में शामिल होने का फ़ैसला कर लिया, हालांकि वह हिंदू थे।

राहब सिद्ध दत्त ने उस युद्ध में बहादुरी से लड़ाई लड़ी और अंततः मारे गये।

किंवदंती के अनुसार, राहब सिद्ध दत्त ने शहीद हने से पहले उस युद्ध में यजीद-1 के सात सैनिकों को हरा दिया था। अंततः उनका सिर दमिश्क ले जाया गया, लेकिन वह उनके परिवार को कभी नहीं लौटाया गया।

ऐसा कहा जाता है कि उनकी कहानी ने मोहयाल समुदाय को इमाम हुसैन और उनके बलिदान के प्रति सम्मान के संकेत के रूप में उपनाम “हुसैनी” अपनाने के लिए प्रेरित किया। उनके बलिदान को मोहयाल समुदाय आज भी याद करता है। उनका मानना है कि वह एक सच्चे नायक थे, और वे धार्मिक सहिष्णुता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के प्रतीक के रूप में उनका सम्मान करते हैं।

राहब सिद्ध दत्त की कहानी इस बात की याद दिलाती है कि विभिन्न धर्मों के लोग जिस चीज़ में विश्वास करते हैं, उसके लिए लड़ने के लिए एक साथ आ सकते हैं। यह इस बात की भी याद दिलाती है कि मृत्यु के सामने भी हमेशा आशा बनी रहती है।

जहां हिंदुओं के बीच शिया मुसलमान हमेशा सुरक्षित और संरक्षित महसूस करते रहे है, वहीं कई सुन्नी मुस्लिम बहुल देशों में उनकी स्थिति यहूदियों से कम नहीं रहे हैं।

कश्मीर के इतिहास की धारा में शिया मुसलमानों से लूट, उनके साथ डकैती और नरसंहार के 10 घातक चरणों का पता चलता है, जिन्हें ताराजस के नाम से जाना जाता है। मुग़ल काल के दौरान 1548 से 1872 तक 300 वर्षों तक फैले ताराजस काल के दौरान शिया मुसलमानों का दमन किया गया, उनकी बस्तियों को लूटा गया, लोगों का क़त्लेआम किया गया, पुस्तकालय जला दिए गए और उनके पवित्र स्थलों को अपवित्र किया गया।

यह कश्मीर में भारत विरोधी उस अलगाववादी आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लेने के प्रति शिया समुदाय की अनिच्छा को स्पष्ट करता है, जिन्हें पाकिस्तान द्वारा वित्त पोषित किया जाता था। सुन्नी मुसलमानों के प्रभुत्व वाली हर जगह पर शिया मुसलमानों के प्रति असहिष्णुता व्याप्त है।

पाकिस्तान में शिया समाज की स्थिति अन्य वर्गों की स्थिति के ‘लगभग बराबर’ हैं।लेकिन, उन्हें पाकिस्तान के हर कोने में विशेष रूप से पाराचिनार, डेरा इस्माइल खान, क्वेटा और कराची में ‘लक्ष्यगत हत्याओं’ का सामना करना पड़ता है। पढ़े-लिखे लोगों को ज़्यादा निशाना बनाया जाता है।

सभी आतंकवादी संगठन किसी भी अन्य चीज़ से अधिक शियाओं से घृणा करते हैं। वे उन्हें एक आसन्न ख़तरा मानते हैं और उनका वर्णन “आंगन के साँप” के रूप में करते हैं।हालांकि, उनमें से कुछ पाकिस्तान के अंदर शियाओं की हत्या को उचित रणनीति नहीं मानते हैं। पाकिस्तान के अंदर शियाओं की हत्या में शामिल लोग ज़्यादातर ‘देवबंदी’ संगठन से हैं।

“अहल-ए-हदीस”, जिन्हें सलाफ़ी भी कहा जाता है, जो जमात उद दावा (हाफ़िज़ सईद) के कारण भारतीयों के बीच अच्छी तरह से जाने जाते हैं,वे ‘पाकिस्तान के अंदर शियाओं को मारने’ में विश्वास नहीं करते हैं और भारत पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं। बरेलवी सुन्नी शायद सबसे शांतिपूर्ण हैं, क्योंकि पाकिस्तान के अंदर उनकी कोई सशस्त्र उपस्थिति नहीं है। दूसरे, उनकी धार्मिक मान्यतायें शियाओं के क़रीब हैं।

किसी भी पाकिस्तानी समाचार मीडिया ने सैयद हसन अली की हत्या पर रिपोर्ट नहीं की, जिनकी जनवरी 2018 में डेरा इस्माइल ख़ान में गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। वह एक साधारण युवा लड़का था। उसकी हत्या सिर्फ़ इसलिए कर दी गयी थी,क्योंकि वह “शिया था।” इस शहर में ऐसी एक नहीं,बल्कि ऐसी सैकड़ों कहानियां हैं।

पाकिस्तान की आर्थिक राजधानी कराची, शिया डॉक्टरों की प्रमुख हत्यास्थली है। लाहौर (2013) में एक नेत्र सर्जन डॉ. अली हैदर की उनके बेटे के साथ हत्या कर दी गयी। सामाजिक कार्यकर्ता और कवि सिब्त-ए-जाफ़र को सोज़ खवान भी कहा जाता था और वे वंचित लोगों,ख़ासकर हिंदुओं को शिक्षा प्रदान करने में गहरी रुचि लेते थे। वह मानवतावादी थे। इस शिया उपदेशक की 2013 में हत्या कर दी गयी थी।

जब तालिबान ने पाकिस्तानी सेना के कुछ सैनिकों को पकड़ लिया था, तो उन्होंने लईक हुसैन को छोड़कर सभी को जाने दिया। उन्होंने चाकू से उसकी हत्या कर दी, सिर काटने का वीडियो बनाया और उसके परिवार को भेज दिया।

ऐतज़ाज़ हुसैन ने अपनी जान की बाज़ी लगाकर एक आत्मघाती हमलावर को स्कूल में प्रवेश करने से रोक दिया था। लेकिन,सवाल है कि हमलावर ने इस गांव को ही क्यों चुना ? इसका जवाब बस इतना ही है कि वह वह शिया बहुल गांव था। इसी तरह,अप्रैल 2022 में मज़ार-ए-शरीफ़, मार्च 2023 में अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के पेशावर जैसे सुन्नी बहुल शहरों में शियाओं की मस्जिदों पर बमबारी की गयी थी,जिसमें सैकड़ों शिया प्रार्थना करते समय मारे गये थे।

शियाओं के ख़िलाफ़ सामाजिक और आर्थिक भेदभाव पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान  एक हक़ीक़त है, जहां सुन्नी मुसलमानों को कार्यस्थल या सामाजिक समारोहों में अपनी पहचान छिपाते हुए कभी नहीं देखा जाता, लेकिन कई शिया अपनी नौकरी खोने के डर से लोगों को अपनी आस्था के बारे में बताने से हिचकते हैं।

पाकिस्तान में शियाओं को सता रहे इस ”छिपे खतरे” की भावना ”समावेशिता और बिना शर्त प्यार” की उस भावना से बिल्कुल विपरीत है, जो वे भारत में महसूस करते हैं। यही कारण है कि भारत में शिया मुसलमानों को हमेशा महत्व दिया जाता रहा है और वे भारत और इसकी संप्रभुता के लिए सबसे बड़ी ताक़तों में से एक हैं। कथित हिंदू राष्ट्रवादी सरकार द्वारा 34 वर्षों के बाद कश्मीर में मुहर्रम जुलूस की अनुमति, हिंदू-शिया संबंधों के समृद्ध इतिहास की एक और याद दिलाती है।