पहला बैशाख से एक सप्ताह पूर्व, बंगाली नव वर्ष का पहला दिन, ढाका में एक वकील ने बांग्लादेश उच्च न्यायालय के सामने नोटिस दिया और उस दिन के समारोहों के एक महत्वपूर्ण हिस्से पर प्रतिबंध लगाने के लिए कहा। वकील ने कहा कि मंगल शोभायात्रा बंगाली परंपरा का हिस्सा नहीं रही है। मंगल शोभायात्रा वैसे ही एक ऐसा उत्सव जुलूस है, जो हाल के दिनों में ढाका विश्वविद्यालय के ललित कला संस्थान के छात्रों द्वारा बैशाख के आगमन को मनाने के लिए निकाला गया है। इसमें हज़ारों अन्य छात्रों के साथ-साथ नागरिक भी शामिल होते हैं और देश भर के लोगों द्वारा इसकी सराहना की जाती है।
जब यह स्पष्ट हो गया कि मंगल शोभायात्रा पर प्रतिबंध लगाने के लिए दक्षिणपंथी तत्वों द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं, तो सोशल मीडिया और इसके बाहर फैले एक सार्वजनिक आक्रोश ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी, जहां सरकार ने इस समारोह को लेकर स्पष्ट समर्थन का अपना क़दम बढ़ा दिया। एक से अधिक तरीक़ों से दक्षिणपंथी उपद्रवियों का यह तर्क था कि मंगल शोभायात्रा में बंगाली चरित्र का अभाव है,यह भी कि यह तो हिंदू संस्कृति का हिस्सा है और इसलिए, इसका इस्लाम के साथ भिन्नता है,यही बात बांग्लादेश के धर्मनिरपेक्ष वर्गों को अपनी एकता के शक्तिशाली प्रदर्शन में एक साथ ले आयी।
और फिर भी यह बड़ा सवाल बना हुआ है कि आज बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्ष राजनीति किस हद तक संकटग्रस्त स्थिति में है। बावन साल पहले, जब बांग्लादेश के संस्थापक जनक शेख मुजीबुर्रहमान की सरकार ने धर्मनिरपेक्षता को राज्य की नीति के चार प्रमुख सिद्धांतों में से एक के रूप में घोषित किया था, ये वही सिद्धांत थे, जिन्हें दिसंबर 1972 में अपनाये गये देश के संविधान में स्थापित किया जाना था। बांग्लादेश ने राजनीतिक उदारवाद के रास्ते पर औपचारिक रूप से चलना शुरू कर दिया था । यह देश एक बंगाली देश था, ऐसा माना गया था कि ये मूल्य धर्म को राजनीति के पीछे कर देंगे।दरअस्ल यह, यही गणतंत्र की नींव थी।
काश कि राजनीति का यह आधुनिक दृष्टिकोण लंबे समय तक बना रहता। अगस्त 1975 में बंगबंधु शेख़ मुजीबुर्रहमान की हत्या के साथ बांग्लादेश एक ऐसे अंधेरे दौर में चला गया, जो सही मायने में 1971 में बंगाली मुक्ति संग्राम तक चौबीस वर्षों तक पाकिस्तान पर शासन करने वाली राजनीति की वापसी थी। खोंडोकर द्वारा सत्ता पर पकड़ मोश्ताक़ अहमद और उनके मेजर और कर्नल का गिरोह बांग्लादेश को अतीत में धकेले जाने का पहला भद्दा संकेत थी। पुराने पाकिस्तान ज़िंदाबाद की स्पष्ट नकल में जोय बांग्ला के राष्ट्रवादी नारे को बांग्लादेश ज़िंदाबाद से बदल दिया गया।
नवंबर 1975 में जनरल जियाउर्रहमान का उदय और मार्च 1982 में जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद का नाजायज़ सैन्य साधनों के माध्यम से सत्ता में आना देश में धर्मनिरपेक्ष राजनीति के और क्षरण में शामिल हो गया। जिया ने अपनी तानाशाही फ़रमान से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को ख़त्मकर संविधान से बाहर कर दिया। उन्होंने राज्य की बंगाली प्रकृति को दूर करके और देश पर बंगाली राष्ट्रवाद की निंदा करने के लिए एक तथाकथित बांग्लादेशी राष्ट्रवाद थोपकर और भी बहुत कुछ किया।
जिया शासन ने जमात-ए-इस्लामी और मुस्लिम लीग के पाकिस्तान समर्थक उन राजनेताओं की राजनीति में फिर से प्रवेश की सुविधा प्रदान की, जिन्होंने 1971 में अपने साथी बंगालियों के नरसंहार में पाकिस्तानी कब्ज़े वाली सेना के साथ खुले तौर पर सहयोग किया था। इस प्रकार, देश की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति पर प्रतिगामी राजनीति द्वारा भयावह अतिक्रमण हुआ। इरशाद सैन्य शासन के वर्षों में धर्मनिरपेक्ष राजनीति को एक और झटका तब लगा, जब इस्लाम को राज्य के धर्म के रूप में देश पर थोप दिया गया।
जनरल इरशाद ने अपनी सार्वजनिक घोषणा के साथ स्पष्ट कर दिया कि उनका शासन बांग्लादेश को एक इस्लामिक गणराज्य बनाने के लिए आगे बढ़ेगा। बेशक, बांग्लादेश इस्लामिक राज्य के दायरे से बाहर रहा है, लेकिन कई अन्य तरीक़ों से बांग्लादेश राज्य को सांप्रदायिक व्यवस्था में बदलने के लिए हर संभव प्रयास किया गया। बेगम ख़ालिदा जिया की सरकार ने 1990 के दशक और 2000 के दशक की शुरुआत में इस्लामी तत्व को आगे बढ़ाया।
तो क्या शेख़ हसीना की सरकार के नेतृत्व में बांग्लादेश अपने धर्मनिरपेक्ष बंधन में लौट आया है ? सही कहा जाए,तो नहीं, क्योंकि जनवरी 2009 से चौदह वर्षों तक सत्ता में रहने के बावजूद अवामी लीग राज्य की साम्प्रदायिक प्रकृति को वापस लाने में असमर्थ रही है। सरकार निश्चित रूप से बंगाली राष्ट्रवाद पर ज़ोर देती है और महत्वपूर्ण अवसरों पर गणतंत्र की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को रेखांकित करती है।
हालांकि,औपचारिक रूप से और संसद पर भारी नियंत्रण के बावजूद सरकार 1975 और 1996 के बीच और फिर 2001 और 2006 के बीच की अवधि में गतिमान परंपराओं को उलटने में सक्षम नहीं रही है। शुक्रवार को साप्ताहिक अवकाश की घोषणा से शुरू हुआ इरशाद शासन अपनी झूठी इस्लामी साख को चमकाने के लिए आज भी यह दिन अवकाश का बना हुआ है। आज भी सप्ताह की शुरुआत रविवार की छुट्टी के साथ होने का विचार नहीं दिखता है। सरकार स्पष्ट रूप से धार्मिक अधिकार की प्रतिक्रिया से सावधान है, उसे वैश्विक सम्मेलन के अनुरूप रविवार को अवकाश के रूप में बहाल करने के लिए कोई क़दम अवश्य उठाना चाहिए।
धर्मनिरपेक्ष राजनीति में वापसी का मामला आज ऐसा है, जो सरकार में नीति निर्माताओं की ओर से गंभीर विचार-विमर्श की मांग करता है। सांप्रदायिक ताक़तों द्वारा पाठ्यपुस्तकों पर किए जा रहे हमलों के साथ-साथ उदारवादी स्वरों को सोशल मीडिया पर ट्रोल किया जा रहा है। बंगाली विरासत के सदियों पुराने पहलुओं को हिंदू धर्म के हिस्से के रूप में उपहास किया जा रहा है, देश के ग़ैर-सांप्रदायिक लोकाचार को बदलने के लिए बहुसंख्यक आस्था की अपनी मांग में मौलवियों के एक वर्ग के साथ यह बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि धर्मनिरपेक्ष ताक़तें उस लौ को फिर से स्थापित करे, जिसने ऐतिहासिक रूप से बंगाली राष्ट्रवाद की भावना को नियंत्रित किया है।
सरकार को पुराने मूल्यों को फिर से स्थापित करने के लिए कार्य करने की आवश्यकता है। बहुसंख्यक धर्म के सुसंगठित वहाबी समुदाय के धार्मिक अल्पसंख्यकों-हिंदू, बौद्ध और अहमदिया पर हमले के भयानक रिकॉर्ड रहा है। अब समय आ गया है कि उन तत्वों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की जाए, जो देश में सांप्रदायिक कलह को बढ़ावा देते हुए फले-फूले हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि चरमपंथी इस्लामी राजनीतिक समूहों के साथ-साथ अन्य दक्षिणपंथी तत्व- जैसे कि हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम और ख़ात्मे नबुवत जैसे अन्य तत्वों के लिए बांग्लादेश में धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ावा देने की बेहतर स्थिति रही है।लेकिन, अल्पसंख्यकों और उदारता की उपेक्षा करने या कट्टरपंथियों को ख़ुश करने के गंभीर परिणाम होंगे।
हालांकि,बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्षता को फिर से स्थापित करने के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि बांग्लादेश की कम्युनिस्ट पार्टी, वर्कर्स पार्टी और पुराने जातीय समाजतांत्रिक दल के विभिन्न गुटों जैसे उदार राजनीतिक संगठन देश के पुराने संदेश के साथ एक दूसरे के साथ आयें। धर्मनिरपेक्षता ही गणतंत्र की नींव होती है। अपनी नीतियों के लिए जनता का समर्थन हासिल करने के मामले में ये पार्टियां दशकों से पिछड़ती जा रही हैं। कुछ को तो अपनी कमज़ोर होने का भी ख़तरा।
एक व्यापक अर्थ में, जिन मूल्यों ने 1971 में बांग्लादेश को आज़ादी की लड़ाई के लिए प्रेरित किया था, उन्हें संविधान में एक गहन संशोधन के माध्यम से ठीक से और मजबूती से बहाल किया जा सकता है, क्योंकि संविधान को वर्षों से मान्यता से परे रखा गया है। बांग्लादेश में सभी जातीय समूहों के लिए अधिकारों की सुरक्षित गारंटी के साथ 1972 में बनाये गये संविधान की वापसी बंगाली राष्ट्रवाद के पुनर्निमाण के आवश्यक घटक होंगे, क्योंकि यह बांग्लादेश की अवधारणा पर आधारित था, चाहे वह अपने सभी नागरिकों का आश्रय हो जाति, समुदाय, विश्वास या पंथ का आश्रय।
अप्रैल 1971 में अवामी लीग नेतृत्व द्वारा गठित देश की पहली सरकार की स्थापना की वर्षगांठ मना रहे बांग्लादेश के लोगों के साथ-साथ आज देश पर शासन करने वाली अवामी लीग के राजनेताओं की इस पीढ़ी के लिए यही होना चाहिए कि वे अपने देश में उस युद्धकालीन प्रशासन द्वारा सन्निहित राष्ट्रवादी भावना को वापस लौटाने की इच्छा व्यक्त करें। । इससे कुछ भी कम भविष्य को लेकर अनिश्चितता का कारण बनेगा।
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