नब्बे के दशक में मिल मजदूर के बेटे राबिन ली बीजिंग में तकनीकि के विद्यार्थी थे। वो जिस बीजिंग विश्वविद्यालय में पढ़ते थे, उस विश्वविद्यालय पर आरोप लगा कि वहां चीन को लोकतांत्रिक देश बनाने की साजिश रची जा रही है। इसी आरोप के कारण विश्वविद्यालय पर कुछ समय के लिए रोक लग गयी और उन्हें अमेरिका जाकर अपनी पढ़ाई पूरी करनी पड़ी। अमेरिका में पढ़ाई पूरी करने के बाद वहीं उन्होंने डॉउ जोन्स की एक सह-कंपनी में नौकरी भी की और एलेक्सा रैंकिंग जैसी एक वेबसाइट बनायी रैन्क डेक्स।
लेकिन 1999 में चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने अपने 50 साल पूरा होने के समारोह में शामिल होने के लिए उन्हें बुलाया। चीन लौटने के बाद ली लौटकर अमेरिका नहीं गये। यहां उन्होंने एक स्थानीय व्यक्ति वू के साथ मिलकर सन् 2000 में बैदू का गठन किया जो कि शुरुआती तौर पर वेबसाइटों की इन्डेक्सिंग करती थी। उस दौर में सर्च बहुत प्रचलित नहीं था और अमेरिका में भी याहू वेबसाइटों की इंडेक्सिंग ही किया करती थी। अपने इस नये प्रोजेक्ट के लिए ली ने अमेरिका की दो कंपनियों इंटेग्रिटी पार्टनर्स और पेन्सिलुना कैपिटल से 1.2 मिलियन डॉलर निवेश भी हासिल किया।
लेकिन जल्द ही बैदू एक सर्च इंजिन में परिवर्तित हो गया और देखते ही देखते वह कंपनी आसमान की ऊंचाइयां छूने लगी। गूगल ने भी 2006 में चीन में दस्तक दिया लेकिन चीन ने गूगल को प्रतिबंधित कर दिया। यह प्रतिबंध बैदू के लिये वरदान साबित हुआ और आज 2020 में बैदू एक अरब लोगों का सर्च इंजन है। चीन में इंटरनेट सर्च के 90 प्रतिशत सर्च बैदू पर ही होते हैं। आज सितंबर 2020 में बैदू 42 अरब डॉलर की बाजार मूल्य वाली कंपनी है। 2 सितंबर को भारत सरकार ने जिन 118 एप्प और अप्लीकेशन को बैन किया है, उसमें एक नाम बैदू सर्च का भी है।
बैदू अकेली ऐसी कंपनी नहीं है जिसे भारत ने बैन किया है। करीब ढाई सौ से ऊपर अप्लीकेशन ऐसे हैं जिन्हें चीन से सीमा तनाव के बाद भारत सरकार प्रतिबंधित कर चुकी है। इसमें मशहूर शार्ट वीडियो अप्लीकेशन टिक-टॉक और गेमिंग अप्लीकेशन पब जी के अलावा वी चैट भी शामिल है।
वी चैट वैसे तो भारत में अभी पॉपुलर नहीं हुआ था लेकिन चीन में यह इकलौती ऐसी कंपनी है जो फेसबुक, ट्विटर और वाट्स एप्प का मिला-जुला संस्करण प्रस्तुत करती है। जैसे सर्च इंजन में बैदू चीन की नंबर वन कंपनी है वैसे ही वीचैट नंबर वन सोशल मीडिया साइट है। इंटरनेट ट्रेन्ड्स की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की बीस सबसे बड़ी तकनीकि कंपनियों में 11 अमेरिका में हैं तो 9 चीन में हैं। अमेरिका की एप्पल दुनिया की सबसे बड़ी बाजार मूल्य वाली कंपनी है तो इस लिस्ट में अलीबाबा, टेनसेन्ट, बैदू, शाओमी जैसी चाइजीन कंपनियां हैं, जो तकनीकि की दुनिया में चीन का भविष्य उज्ज्वल कर रही हैं।
ऐसे में एक स्वाभाविक सवाल उठता है कि बीस सालों में चीन ने ऐसा क्या किया कि तकनीकि जगत में विश्व की दूसरी महाशक्ति के तौर पर उभर आया। चीन ने न सिर्फ हार्डवेयर बल्कि सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भी अपने आप को स्थापित किया है। ऐसा कैसे संभव हो सका कि दुनिया की सबसे जटिल भाषा बोलने वाला चीन बिना अंग्रेजी की मदद के तकनीकि की दुनिया में इतनी तरक्की कर गया?
इसका जवाब भी इसी सवाल में ही निहित है। क्योंकि चीन ने तकनीकि विकास अपनी भाषा में किया, इसलिए व्यापक स्तर पर उसने अपने लोगों को तकनीकि के विकास का हिस्सेदार बनाया। दूसरा उसने उपभोक्ता बनने की बजाय उत्पादक होने पर जोर दिया, भले ही इसके लिए उसे अमेरिकी सॉफ्टवेयर कंपनियों को बैन ही क्यों न करना पड़ा हो।
सदी के पहले दशक में जब चीन ये सारी कोशिश कर रहा था तो अर्थशास्त्र की मशहूर पत्रिका <strong>द इकोनॉमिस्ट</strong> ने उसका ये कहते हुए मजाक उड़ाया था कि आईफोन का क्लोन तैयार करके चीन समझता है कि वह अमेरिकी कंपनियों की बराबरी कर लेगा। लेकिन क्लोन से चीन में जो शुरुआत हुई, अंतत: वह अमेरिकी कंपनियों के अधिग्रहण तक पहुंच गयी। अमेरिका की मशहूर मोबाइल कंपनी मोटोरोला को चीन की लेनोवो ने खरीद लिया।
इसके अलावा आईबीएम का लैपटॉप बिजनेस भी लेनेवो ने खरीदा और उसे लेनेवो नाम से दुनिया भर में बेचना शुरु कर दिया। आज मोबाइल हार्डवेयर में चीन का परचम लहरा रहा है और सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि यूरोप और अमेरिका के देशों में चाइनीज मोबाइल कंपनियां अपना कारोबार फैला रही हैं। एप्पल और सैंमसंग को छोड़कर आज संसार के लगभग सभी मोबाइल ब्रांड किसी न किसी चाइनीज कंपनी के हाथ में हैं।
चीन का ये तकनीकि विस्तारवाद चीन के लिए जितना सुखद है बाकी दुनिया के लिए उतना ही दुखद। मसलन, चीन की मोबाइल कंपनी शाओमी ने 2015 में बैदू और टेनसेन्ट की तर्ज पर अपने यहां कम्युनिस्ट सेन्ट्रल कमेटी का गठन किया। चीन की हर बड़ी कंपनी के लिए अघोषित नियम है कि वह अपने यहां कम्युनिस्ट पार्टी की शाखा का गठन करे और निश्चित समय पर चीन के सेन्ट्रल कमेटी से सलाह मशविरा करे।
चीन में या चीन से बाहर कोई कंपनी क्या विस्तार कर रही है, कौन सा उत्पाद या सेवा वो अपने कारोबार में जोड़ रही है, इसकी जानकारी कंपनियों को सेन्ट्रल कमेटी को देनी होती है। अगर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सेन्ट्रल कमेटी किसी प्रस्ताव को मंजूर करे तभी वो उत्पाद, सेवा या नीति कंपनी लागू कर कर सकती है। इसका सीधा सा मतलब है कि चीन की तकनीकि कंपनियों पर भी परोक्ष रूप से चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और सरकार का नियंत्रण है। यह स्थिति न तो चीन की कंपनियों के लिए सुखद है और न ही उन देशों के लिए जहां चीन की ये कंपनियां कारोबार करती हैं।
2017 में जापान टाइम्स ने एक रिपोर्ट प्रकाशित किया था, जिसमें कहा गया था कि सीसीपी की इस नीति के कारण वहां की निजी कंपनियों और सरकार के बीच टकराव की स्थिति बनी रहती है। यही वह कारण है जिसके कारण हुवेई को अमेरिका में और ढाई सौ से ज्यादा सॉफ्टवेयर अप्लीकेशन को भारत में प्रतिबंध का सामना करना पड़ा।
निश्चित रूप से ये खतरनाक स्थिति है जो चीन के विस्तारवादी स्वरूप को गहरे रूप में सामने लाता है। चीन की कंपनियां सिर्फ वस्तु और सेवाओं का व्यापार ही नहीं करतीं बल्कि उन पर तकनीकि के जरिए जासूसी का शक भी बना रहता है। दुनिया के हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर बाजार पर तेजी से काबिज होते चीन की तकनीकि कंपनियां इसी कारण संदेह के घेरे में आ जाती हैं।
तकनीकि की दुनिया में चीन की प्रत्यक्ष चुनौती से ये परोक्ष चुनौती ज्यादा परेशान करने वाली है। जिसका रास्ता भारत ने चीन के अप्लीकेशन्स को बैन करके दिखाया है। लेकिन यहां सवाल भारत जैसे देश के सामने ये भी है कि इन चुनौतियों के सामने वो विकल्प क्या प्रस्तुत कर रहे हैं। इस लिहाज से हार्डवेयर और साफ्टवेयर दोनों ही क्षेत्र में भारत को लंबा सफर तय करना है। नयी तकनीकि में पूंजी निवेश और सरकारी प्रोत्साहन ये दो ऐसे रास्ते हैं जिस पर अमल करके देर से ही सही भारत सही शुरुआत कर सकता है। वरना, हम उपभोक्ता से आगे कभी बढ़ ही नहीं पायेंगे। तकनीकि की दुनिया में चीन की चुनौती का सामना करने के लिए भारत को अपने वैश्विक विकल्प प्रस्तुत करने होंगे। क्योंकि इक्कीसवीं सदी तकनीकि की सदी है। जो इसमें आगे रहेगा, वही विश्व की अगुवाई करेगा।.
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