रूस और युक्रेन युद्ध के बीच चल रहे युद्ध को शुरू हुए तक़रीबन एक साल से ज़्यादा समय हो चुका है। दोनों देशों के बीच युद्ध जितना लंबा खिंच रहा है, दुनियां में राजनीतिक लामबंदी उतनी ही साफ़ होती जा रही है। बीते सप्ताह जिस समय चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग रूस के राष्ट्रपति के साथ रूस में डिनर डिप्लोमेसी कर रहे थे, ठीक उसी समय जापान के प्रधानमंत्री फ़ुमियो किशीदा यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेन्सकी के साथ फ़ोटो खिंचवाने में व्यस्त थे।
रूस के साथ जो भी देश खड़े हैं,वो ज़्यादातर निरंकुश शासक नज़र आते हैं।
सीरिया के बशर अल असद,चीन के शी जिनपिंग,उत्तर कोरिया के किम जोंग उन से लेकर ईरान के अली ख़ामेनेई, सऊदी अरब के किंग अब्दुल्ला तक सब के सब निरंकुश शासक के रूप में देखे जाते हैं। यूक्रेन लड़ाई का ही असर कहेंगे की सभी दुश्मनी भुलाकर सऊदी अरब और ईरान एक मंच पर बातचीत के लिए तैयार हो गये हैं। इतना ही नहीं निकारागुआ, क्यूबा, एंरिट्रिया, सुडान, माली और बेलारूस जैसे जितने भी राष्ट्र हैं ,ये सभी देश भी किसी न किसी निरंकुश शासकों के अधीन हैं।
ऐसा पहली बार देखा जा रहा है, जब दुनिया के सभी तानाशाह एक साथ एक मंच पर एक साथ मिलकर काम करते हुए दिख रहे हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि ये सभी रूस की जीत में अपनी जीत और भविष्य देख रहे हैं। क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि रूस-यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध ,डेमोक्रेसी बनाम ऑटोक्रेसी होता जा रहा है।
दरअसल,रूस के समर्थन में खड़े ऐसे कई देश हैं,जिनके शासको के प्रति जनता में असंतोष है,लिहाजा देश की जनता के विरोधी स्वर को दबाने के लिए रूस की प्राइवेट आर्मी का सहारा ले रहे हैं। ब्लादिमीर पुतिन की प्राइवेट आर्मी रूस की पैरामिलिट्री कंपनी वैगनर है, जिसपर युक्रेन,अफ्रीका और मिडिल ईस्ट में मानवाधिकार उल्लंघन के कई बार आरोप भी लग चुके हैं। लेकिन, पुतिन के द्वारा की गई मदद का कर्ज़ चुकाने के लिए ये सभी निरंकुश शासक रूस के साथ दिख रहे हैं।
इन निरंकुश शासकों की सोच है कि यूक्रेन के साथ इस जंग में अगर रूस कमज़ोर दिखा और रूस में लोकतंत्र से स्वर तेज़ हुए, तो अन्य देशों में भी लोकतंत्र की मांग में आवाज़ मुखर हो जायेगा।
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इस बात के सुबूत 2010 की शुरुआत में ही तब मिल चुके थे,जब मिडिल ईस्ट के ट्यूनीशिया में निरंकुश शासक बेन अली के विरोथ में वहां की जनता सड़कों पर निकल आयी थी।और इस तरह के बग़ावती स्वर 2011 तक आते-आते मिडिल ईस्ट के कई राष्ट्रों में देखे गये। ये विरोधी स्वर इतना मुखर हो कर सामने आये थे कि देखते-देखते इस दौरान यमन के अब्दुल्ला सालेह,लीबिया के गद्दाफ़ी,मिस्र के होस्नी मुबारक और ट्यूनीशिया के बेन अली जैसे तानाशाह का तख़्ता पलट हो गया था। इस कालखंड को नाम दिया गया-अरब स्प्रिंग।
इस अरब स्प्रिंग का असर मास्को तक खदबदाने लगा था। यही वजह रही कि 2011 में रूस में जो चुनाव हुए और उसके बाद गड़बड़ियों की शिकायत मिली, तो वहां के चुनाव आयोग को कहना पड़ा था कि 12 प्रतिशत शिकायतें सही पायी गयीं। चुनाव में हुई उन गड़बड़ियों से हतास वहां की जनता सड़कों पर आ गयी थी,जिसे बाद पुतिन ने इसे पश्चिमी देशों की षडयंत्र बताकर खारिज कर दिया था और विरोधी स्वर को दबा दिया था।
इतना ही नहीं, डेमोक्रेसी बनाम ऑटोक्रेसी के इस लड़ाई में अब चीन को भी डर सताने लगा है कि अगर यूक्रेन औऱ रूस के इस जंग में अगर कहीं रूस कमज़ोर पड़ता है,और वहां की जनता का पुतिन के ख़िलाफ़ असंतोष बढ़ जाता है, तो रूस में लोकतंत्र के लिए आवाज़ मुखर हो जायेगी। और इसका सीधा असर चीन पर भी दिखायी दे सकता है। लिहाज़ा चीन के शासक शी जिनपिंग को डर सता रहा है और मजबूरी में ही सही, वह रूस के समर्थन में खुलकर सामने आ गये हैं।
अमेरिका की एक संस्था कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस ने चीन-रूस सम्बन्ध नाम के एक शोध पत्र को जारी करते हुए कहा है कि चीन रूस को क्रिटिकल टेक्नोलॉजी उपकरण बेच रही है। और तो और मिसाइल में लगने वाले सेमीकंडक्टर चिप्स भी रूस को पहुंचा रहा है।
ऑटोक्रेसी के लिए सभी तानाशाह देश एक दूसरे की पुलिस,सेना ,मीडिया और वित्तीय ताक़तों का आदान-प्रदान कर अपनी बादशाहत बरक़रार रखते हैं, क्योंकि इन तानाशाहों को अपने यहां मज़बूत दिखना और पूरी मज़बूती के साथ जनता पर हुक़ूमत करना न सिर्फ़ ज़रूरी हो जाता है,बल्कि मजबूरी भी है। ऐसे में यूक्रेन-रूस की जंग में रूस की जीत पर इन सबके भविष्य टिके हुए हैं।
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