12 सितंबर को कतर की राजधानी दोहा में बड़ी आशाओं के साथ ऐतिहासिक अंतर-अफगान (Intra-Afghan) शांति वार्ता की शुरुआत हुई थी। अमेरिका और नाटो देशों के साथ-साथ भारत और दूसरे देशों के प्रतिनिधि वहां मौजूद थे। तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के प्रतिनिधिमंडलों की बातचीत शुरू होनी थी, लेकिन 10 दिनों बाद भी मामला वहीं का वहीं अटका पड़ा है।
दोनों पक्षों ने तय किया था कि औपचारिक बातचीत से पहले एक आम राय बनाई जाए लेकिन कोई आम राय नहीं बन पायी और हर अहम मुद्दे पर मतभेद बरकरार हैं। इस बीच अफगान सरकार के नेशनल कांउसिल फॉर रिकांउसीलेशन के अध्यक्ष अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने अमेरिका को बताया है कि रिहा किए गए तालिबानियों ने फिर से अफगानिस्तान सरकार के खिलाफ हथियार उठा लिया है। जो अमेरिका-तालिबान समझौते की शर्तों के सरासर खिलाफ है।
शांति की बातचीत अमेरिका-तालिबान के बीच फरवरी में हुए समझौते के तहत शुरू की गई थी, लेकिन पिछले 10 दिनों में तालिबान ने अफगान सरकार के खिलाफ लड़ाई और तेज कर दी है। तंग आकर अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने मंगलवार को अमेरिकी विदेश विभाग के आला अधिकारियों से वीडियो कांफ्रेस के जरिए कहा कि अगर इसी तरह चलता रहा तो अफगानिस्तान के लोग इस बातचीत के खिलाफ हो जाएंगे।
अमेरिकी मध्यस्थ ज़ल्मे ख़लीलज़ाद ने भी माना है कि "तालिबान में कुछ लोग ऐसे हैं जो बातचीत में बाधा डाल रहे हैं लेकिन हमें पता था कि ऐसा होगा। लेकिन निश्चिंत रहें हम अफगान के लोगों को अधर में नहीं छोड़ेंगे।"
अफगानिस्तान सरकार के लिए विषम स्थिति पैदा हो गई है। बातचीत से पहले ही तालिबान ने साफ कर दिया है कि वह अफगानिस्तान में लोकतंत्र के हक में नहीं है। वो चाहता कि इस्लामिक कानून और शरिया के तहत अफगानिस्तान में शासन हो। तालिबान ने कहा था कि वो इस मामले में लचीला रुख अपनाएगा, लेकिन उसने यह वादा भी तोड़ दिया। तालिबान ने अफगान सरकार की युद्धविराम की पेशकश को भी ठुकरा दिया है।
कतर की राजधानी दोहा में कई देशों की राजनयिक प्रतिनिधिमंडल, मीडिया टीमें और विशेषज्ञ डेरा जमाए बैठे हैं कि कब बातचीत शुरु हो। एक राजनयिक के मुताबिक तालिबान अपने पुराने रुख पर अड़ा हुआ है, उसमें कोई बदलाव नहीं है। सबसे अहम मुद्दा है कि भविष्य में सरकार कैसे बनेगी, शासक कौन होगा।
तालिबान का कहना है कि जिस तरह से 1996 में धार्मिक गुरुओं की सुप्रीम कांउंसिल ने मुल्ला उमर को तालिबान का अमीर बनाया था, उसी तर्ज पर ही अफगानिस्तान में राज चलेगा। तालिबान के प्रवक्ता जबीबुल्लाह मजाहिद का कहना है कि "यह एक ताकतवर काउंसिल होगा जो अफगानिस्तान के रहनुमा को नियुक्त करेगा। तालिबान मौजूदा अफगानी संविधान को नहीं मानता है न ही सरकार को। हमारी सरकार अभी भी है है जिसे अमेरिका ने जबर्दस्ती हटाया था।"
महिलाओं की भूमिका के बारे में तालिबान का कहना है कि महिलाओं का रोल सीमित होगा और वे सिर्फ शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर सकेंगी। इस्लामिक व्यवस्था के तहत बाकी क्षेत्रों में उनका कोई रोल नहीं होगा ।
कोई आश्चर्य नहीं कि अफगानिस्तान में आम लोगों के साथ साथ महिलाओं में खौफ का माहौल है। दो दिन पहले फरयाब राज्य के कई तलिबानी कब्जे वाले इलाकों में तालिबान ने संगीत पर पाबंदी लगा दी है। अफगानिस्तान के अल्ताफ राजा कहे जाने वाले गायक हेकमतुल्लाह अल्ताफ ने काबुल से प्रसारित होने वाले रेडियो फ्री अफगानिस्तान को बताया कि तालिबान के मुल्लाओं ने उन्हें शादियों और पार्टियों में गाने से मना कर दिया है और चेतावनी दी है कि गाने-बजाने का असर बुरा होता है। अल्ताफ का कहना है कि वो काफी डरे हुए हैं। उनका कहना है कि जश्न में सिर्फ डफ बजाने की इजाजत है, कोई दूसरा वाद्ययंत्र अब नहीं बजाया जा सकेगा।
तालिबान ने गजनी राज्य में भी अपने कब्जे वाले इलाकों में यही पाबंदी लगाई है। संगीतकार और गीतकार शहाबुद्दीन रबावनवाज का कहना है कि अफगानिस्तान में रबाब भी बजाना मुश्किल है और सरकार से प्रोटेक्शन की उम्मीद करना बेकार है।
"या गाना-बजाना छोड़ो या फिर जीना" यही हुकुम है तालिबानी कठमुल्लाओं का। फरयाब राज्य के सांस्कृतिक मंत्री गुलाम बयान के मुताबिक, "यह सब अचानक हो रहा है। इलाके के मौलवियों ने गाने बजाने पर रोक लगा दी है, कलाकारों को धमकियां दी जा रही हैं। कुछ तो देश छोड़ कर पड़ोसी देश चले गए हैं।"
इन कालाकारों में ज्यादातर नौजवान हैं जिन्होंने 2001 के बाद तालिबान मुक्त अफगानिस्तान में बेखौफ जिंदगी गुजारी है, लेकिन अपने बड़ों से और वीडियो में तालिबान की क्रूरता देखी-सुनी है। 2002 से अमेरिका में रह रही फैशन मॉडल साफिया का कहना है कि "मैं मार्डन अफगान जेनेरेशन की हूं। मेरे माता पिता ने बताया कि 1960-70 में अफगानिस्तान में फैशन इंडस्ट्री, म्युजिक सब कुछ फल-फूल रहा था। आज भी अफगानिस्तान के लोकल आर्ट्स अमेरिका और य़ूरोप में काफी पॉपुलर हैं। मेरे मां-बाप को डर है कि अगर तालिबान फिर से वापस आ गए तो मेरी जेनेरेशन का क्या होगा।"
अफगानिस्तान की जनता के साथ-साथ शांति प्रकिया में शामिल तीन माहिला प्रतिनिधियों को भी यही डर सता रहा है। एक प्रतिनिधि के मुताबिक, "अमेरिका और दूसरे देश कहते हैं कि महिलाओं की अधिकारों की रक्षा की जाएगी, दूसरी तरफ तालिबान के प्रवक्ता का बयान आता है कि महिलाओं को वही अधिकार मिलेंगे जो इस्लाम और शरिया में दिये गये हैं, वो तो महिलाओं की आजादी के खिलाफ हैं। फिर किस पर भरोसा करें।"
शांति प्रकिया से जुड़े एक राजनयिक का कहना है कि तालिबान और अफगानों के बीच यह एक लंबी लड़ाई है। बातचीत से पहले तालिबान हर तरफ से दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन हमारी कोशिश है कि बातचीत से वो पीछे न हटने पाए। अगर वो पीछे हटते हैं तो यह उनके लिए आत्मघाती होगा।
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने भी भरोसा दिलाया है कि अफगानी संविधान के अंतर्गत हर अधिकार की रक्षा की जाएगी और इस पर कोई समझौता नहीं होगा। गनी ने पिछले दिनों अफगानिस्तानी पासपोर्ट पर मां का नाम होना अनिवार्य कर दिया था। तालिबान इसका भी विरोध कर रहा है।
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