प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि हमने कम्युनिस्ट चीन और पाकिस्तान से अपने संबंधों की वास्तविकता को और भारत को निरंतर दी जा रही उनकी संयुक्त चुनौती को स्वीकार कर लिया है। इन दोनों देशों की सरकारें आरंभ से ही भारत के प्रति शत्रुता की भावना पाले रही हैं। पाकिस्तान का तो जन्म ही मुस्लिम लीग के नेताओं के मन में भारत के प्रति जो वैमनस्य का भाव था, उसके आधार पर हुआ था। चीन के कम्युनिस्ट नेता भी सत्ता में आने के बाद भारत के प्रति यही भाव प्रकट करते रहे हैं।
अक्टूबर 1949 में सत्ता में पहुंचने के लगभग दो महीने बाद माओ त्से तुंग मैत्री संधि का प्रस्ताव लेकर सोवियत रूस गए थे। मास्को में अपने प्रवास के दो महीने के बीच उन्होंने जोसेफ स्टालिन और अन्य सोवियत नेताओं से मिलकर इस बात पर घोर अप्रसन्नता व्यक्त की थी कि सोवियत रूस भारत के साथ मैत्री संबंध बना रहा है। सोवियत नेताओं की माओ के बारे में अच्छी धारणा नहीं थी। उन्होंने शुरू में यह कहते हुए मैत्री संधि करने से इनकार कर दिया था कि वे 1945 में च्यांग काई शेक के साथ यह संधि कर चुके हैं, पर बाद में मान गए। उसके साल भर बाद चीन ने भारत को बिना बताए दिसंबर 1950 में तिब्बत पर आक्रमण कर दिया। अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों की चेतावनी के बावजूद जवाहर लाल नेहरू ने तिब्बत पर चीन का अधिपत्य स्वीकार कर लिया।
1954 में चीन के अधिपत्य को औपचारिक स्वीकृति देते हुए आठ वर्ष के लिए पंचशील समझौता किया गया। उस समय जब भारतीय हिन्दी चीनी भाई-भाई के नारे लगा रहे थे चीन जम्मू-कश्मीर के भारतीय क्षेत्र से होकर सिक्यांग को तिब्बत से जोड़ने वाली सड़क बना रहा था। अपनी सीमा के अतिक्रमण और तिब्बतियों पर चीनियों की अत्याचार की अनदेखी करते हुए भी भारत-चीन संबंध सुधरने की आशा पाले रहा। अंततः 1959 में चीन ने घोषित कर दिया कि वह मैकमहोन रेखा को नहीं मानता। उससे पहले वह लगातार दोहराता रहा था कि भारत और चीन के बीच कोई सीमा विवाद नहीं है। 1959 में उसके बाद तिब्बत में विद्रोह हुआ और दलाईलामा को अपने 80 हजार देशवासियों के साथ विवश होकर भारत आना पड़ा। 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया।
चीन के साथ हमारे संबंधों के इस पहले अध्याय में चीन को लेकर हमारे नेताओं के मन में जो मोहग्रस्तता रही है, वह 1962 में कुछ समय के लिए खत्म हुई। पर 1979 में संबंध बहाली के बाद फिर उत्पन्न हो गई। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल तक हम चीन और पाकिस्तान दोनों से सद्भाव बढ़ाकर संबंध सुधारने की आशा करते रहे। चीन निरंतर हमें घेरने और कमजोर करने में लगा हुआ था। 1962 के बाद चीन और पाकिस्तान मिलकर हमें घेरने लग गए। हम रक्षात्मक बने रहे और उनके इस अभियान का कोई प्रभावी प्रतिकार नहीं कर पाए। यह स्थिति कुछ-कुछ अर्जुन के विषाद योग जैसी थी।
भारत में यह धारणा पाली-पोसी जाती रही कि पाकिस्तान के लोग 1947 के पहले तक भारतीय समाज का ही अंग थे। वे हमारे सहोदर ही हैं, उनसे हमारी शत्रुता कैसे हो सकती है? इसी तरह भारत में यह धारणा भी बनी रही कि चीन एक एशियाई देश है। उससे हमारे सुदीर्घ सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। हम उससे संबंध सुधरने की आशा कैसे छोड़ सकते हैं। इस विषाद योग में पड़े रहने के कारण हम कम्युनिस्ट चीन और पाकिस्तान दोनों के नेताओं के व्यवहार से देश की सुरक्षा को जो खतरा पैदा हो रहा था, उसकी अनदेखी करते रहे। उससे निपटने की कोई प्रभावी रणनीति नहीं बना पाए।
अब मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में यह रणनीति बनाने का संकल्प दिखाई दे रहा है। उसकी पहली बड़ी अभिव्यक्ति 5 अगस्त 2019 को संविधान की धारा 370 की समाप्ति और जम्मू-कश्मीर का दो केंद्रशासित क्षेत्र में विभाजन करके लद्दाख को सीधे केंद्र के नियंत्रण में लेने से हुई है। इससे केंद्र सरकार ने पाकिस्तान द्वारा कश्मीर को विवाद बनाए रखने का आधार समाप्त कर दिया है और दूसरी तरफ चीन और पाकिस्तान के नियंत्रण में पड़े जम्मू-कश्मीर के शेष भाग को वापस लेने का संकल्प दोहराकर यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत अब अपनी सीमाओं की अनुलंघनीयता के प्रति गंभीर हो गया है।
संविधान की धारा 370 समाप्त करके जम्मू-कश्मीर का विभाजन करने का निर्णय केवल पाकिस्तान के कारण नहीं किया गया था। उसका उतना ही महत्वपूर्ण कारण चीन भी था। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद चीन ने तिब्बत की ओर विशेष ध्यान देना आरंभ किया था। उसने 2015 में अपनी सेना की एक नई पश्चिमी कमान का गठन किया, जिसमें भारतीय सीमा से लगे इलाकों के साथ-साथ अक्साई चिन से आगे तक के इलाके को शामिल किया गया। इसके साथ ही तिब्बत में सामरिक तंत्र खड़ा करने के काम में तेजी लाई गई। सीमावर्ती क्षेत्रों तक सैनिक साज-सामान ढोने वाले भारी वाहनों को ले जाने लायक बारामासी सड़कों का निर्माण किया गया। तिब्बत में लड़ाकू विमानों से लगाकर लेजर और सेटेलाइट गाइडेड मिसाइलें तैनान की गईं। तिब्बत में तैनात चीनी सेना की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी की गई। सिक्यांग में लड़ाकू विमानों की संख्या बढ़ाई गई।
लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना की गतिविधियों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इस सबके बाद भारत असावधान नहीं रह सकता था। लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग करके केंद्र के सीधे नियंत्रण में लाने का यही कारण था। जम्मू-कश्मीर को लेकर किए गए इस निर्णय ने चीन और पाकिस्तान दोनों को हतप्रभ कर दिया। उसके बाद से पाकिस्तान सभी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर का सवाल उठाने की कोशिश करता रहा है। पर उसकी यह कोशिश न केवल पश्चिमी देशों के कारण विफल हुई, बल्कि मुस्लिम देशों ने भी उसका साथ नहीं दिया। चीन के सक्रिय समर्थन के बावजूद पाकिस्तान भारत पर कोई दबाव नहीं बना पाया। भारत पर दबाव बनाने के लिए अंततः चीन ने लद्दाख में नियंत्रण रेखा पर एक नया विवाद शुरू किया।
पिछले चार महीने में भारत और चीन की सेनाओं के बीच लद्दाख में जो सैनिक झड़पें हुई हैं, उन्हें इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। इस पूरी अवधि में सबके मन में यह आशंका बनी रही है कि क्या भारत और चीन के बीच युद्ध की नौबत आ सकती है? चीन के बारे में हमारा अब तक का जो अनुभव रहा है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता था कि चीन इस समय भारत से युद्ध छेड़ने की गलती नहीं करेगा। पर जब दो सेनाएं बिल्कुल आमने-सामने हों तो आप निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कह सकते। लद्दाख में चीन का उद्देश्य केवल पैंगाग सो के उत्तरी किनारे पर फिंगर 4 और 8 के बीच की पहाड़ी ऊंचाइयों का नियंत्रण नहीं था। उसका उद्देश्य भारत को दबाव में लाना, मोदी सरकार को कमजोर करना और पूरी दुनिया को यह दिखाना था कि भारत एक कमजोर देश है और वह किसी भी तरह चीन का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है। चीन की यह नीति अब बहुख्यात हो गई है कि वह बिना लड़े लड़ाई जीतने की कोशिश करता है।
पश्चिमी के विद्वानों ने सन जू की प्राचीन चीनी भाषा पुस्तक जिसका अंग्रेजी में नाम होगा द आर्ट ऑफ वॉर को काफी प्रचारित किया है और बताया है कि माओत्से तुंग ने उसी नीति को अपनाकर बिना लड़े लड़ाई जीतने का कौशल सिद्ध कर लिया था। इस नीति के आधार पर चीनी अपनी सेना और शस्त्र बल का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करते हैं और अपने प्रतिद्वंद्वी को आतंकित करके उस पर अपना दबाव बनाए रहते हैं। भारतीय सेना चीन की इस भभकी में नहीं आई, लेकिन अब तक हमारे राजनेता और रक्षा विशेषज्ञ चीन द्वारा अपनी शक्ति के बारे में किए गए प्रचार से प्रभावित होते रहे हैं और यह सोचकर दबाव में आते रहे हैं कि चीनी सेना भारतीय सेना से अधिक समर्थ है और युद्ध हुआ तो हम पराजित हो जाएंगे। पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब यह कहकर पासा पलट दिया है कि अगर चीन युद्ध चाहता है तो हम उसके लिए तैयार हैं और हम चीन और पाकिस्तान दोनों की संयुक्त चुनौती का सामना करने में समर्थ हैं।
अगर हमने 1950 में तिब्बत पर चीन के आक्रमण के समय चीन को यह जता दिया होता कि हमें तिब्बत पर उसका नियंत्रण स्वीकार नहीं है और आवश्यकता पड़ी तो भारतीय सेना ल्हासा की रक्षा के लिए भेज दी जाएंगी तो चीन ने हमसे समझौता भी किया होता और भविष्य में भारत से सहयोग के लिए विवश हो जाता। लेकिन जवाहर लाल नेहरू वामपंथियों के दबाव में थे और चीन से टकराने के उत्सुक नहीं थे। वे इतने राष्ट्रवादी थे कि वामपंथियों पर पूरी तरह भरोसा न करते। इसलिए उन्होंने जब जी पार्थसारथी चीन में भारतीय राजदूत थे तो उन्हें कहलवाया था कि वे चीन के संबंध में अपने संदेश उन्हें कृष्णमेनन के मार्फत भेजने के बजाय सीधे भेजें।
नेहरू की समस्या यह थी कि इस पूरी अवधि में वे अपने आपको एक गुटनिरपेक्ष और शांतिवादी अंतरराष्ट्रीय नेता के रूप में प्रतिष्ठित करने में लगे हुए थे। इसलिए वे माओत्से तुंग की चुनौती को अनदेखी करते रहे, जो उस दौरान अपने आपको एक युद्धकामी क्रांतिकारी नेता के रूप में प्रतिष्ठित करके अंतरराष्ट्रीय वामपंथियों का नेता बनने का सपना देख रहे थे। माओ चीन को जल्दी से जल्दी एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाना चाहते थे। इसी लक्ष्य को सामने रखकर उन्होंने सोवियत रूस की सहायता से चीन के सामरिक और औद्योगिक तंत्र की नींव डलवाई थी।
चीन को जल्दी से जल्दी पश्चिमी देशों के बराबर की सामरिक और औद्योगिक शक्ति बनाने की उतावली में उन्होंने अनेक मूर्खतापूर्ण काम किए। माओ ने 1958 में लंबी छलांग के नाम पर सारी कृषि भूमि को सरकारी नियंत्रण में ले लिया। निजी स्वामित्व समाप्त करके कृषि क्षेत्र में उस समय कम्यून स्थापित किए गए जब सोवित रूस में उनकी असफलता उजागर हो चुकी थी। माओ ने कल्पना की कि खेती पर नियंत्रण के द्वारा वे कृषि क्षेत्र की एक तिहाई से आधी आय औद्योगीकरण के लिए निकाल सकेंगी। अपने ग्रेट लीप फॉरवर्ड अभियान में उन्होंने कृषि के कम्यूनों से जबरन वसूली की और खेतिहर लोगों को खेती से निकालकर लोहा गलाने में लगा दिया। उन्हें गलतफहमी थी कि इससे स्टील बनाकर वे चीन के औद्योगीकरण की नींव डाल सकते हैं।
माओ के इस अभियान ने चीन की खेती को चैपट कर दिया, औद्योगीकरण नहीं हुआ और उसके कारण जो अकाल और भुखमरी की स्थिति पैदा हुई, उसमें लगभग तीन करोड़ से साढ़े पांच करोड़ चीनियों को अपने प्राण गंवाने पड़े। अपनी पूरे जीवन में माओ ने कोई वास्तविक युद्ध नहीं लड़ा था। जिस लाँग मार्च को लेकर माओ को काफी महिमामंडित किया जाता है, वह च्यांग काई शेख की सेनाओं से बचकर भाग निकलने का अभियान थी। नौ हजार किलोमीटर की इस लंबी और पहाड़ी यात्रा का नेतृत्व भी वास्तव में चाऊ-एन-लाइ ने किया था।
माओ की युद्धनीति और राजनीति दोनों में कल्पना, छलकपट और प्रोपेगेंडा से अधिक कुछ नहीं था। 1958 से 1962 के ग्रेट लीप फॉरवर्ड अभियान की असफलता के बाद माओ के सामने नेतृत्व छोड़ने की नौबत आ गई थी। पर 1966 में उनकी पत्नी और तीन अन्य नेताओं ने जिन्हें इतिहास में गैंग ऑफ फोर के नाम से जाना जाता है माओ के विरोधियों का सफाया करने के लिए तथाकथित सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत की थी, जो 1976 में उनकी मृत्यु तक चली। इसमें हुए उत्पीड़न की हृदय विदारक कथाएं किसी को भी ग्लानि से भर देंगी।
प्रसिद्ध चीनी लेखिका जुंग चॉन ने अपनी पुस्तक माओः द अनन¨न स्टोरी में बताया है कि किस तरह माओ की नीतियों से लगभग सात करोड़ चीनियों को अपने प्राण गंवाने पड़े थे। माओ काल में चीन ने केवल एक कोरिया युद्ध में भाग लिया था, उसमें भी चीन की गौण़ भूमिका ही थी। माओ की मृत्यु के बाद भी केवल 1979 में चीन ने वियतनाम पर आक्रमण किया था, जिसमें उसे असफलता और अपयश दोनों हासिल हुए। भारत के नेता चीन से जितने चमत्कृत और प्रभावित रहे हैं, उतनी भारतीय सेना नहीं रही।
1962 में चीन के हाथों हमारी पराजय सेना की दुर्बलता के कारण नहीं, हमारे राजनैतिक नेतृत्व की अदूरदर्शिता के कारण हुई थी। चीन से लगातार मिलती रही चुनौती के बावजूद हमने कोई सामरिक तैयारी नहीं की। बिना पर्याप्त साधनों और बिना योजना के नेहरू सरकार ने सेना को युद्ध में झोंक दिया। उस पराजय का घाव आज भी भारतीय सेना के मन पर है। 1967 में नाथू ला और चू ला की सीमित लड़ाई में भारतीय सेना ने अपना कौशल और पराक्रम दिखा दिया था। उसके बाद दोनों देशों की सेनाएं 1987 में एक-दूसरे के आमने-सामने हुईं थीं। चीनी सेना ने तवांग जिले की सुमदोरांग घाटी में घुसकर एक चैकी और एक हेलीपैड बना लिया था। इसका पता लगने पर भारत ने चीन से अपना विरोध जताया।
पर चीन ने अपने चिर-परिचित अंदाज में भारत को ही सीमा अतिक्रमण का दोषी ठहराते हुए पीछे लौटने से इनकार कर दिया। इतना ही नहीं चीन के उस समय के नेता देंग श्याओ पिंग ने भारत को धमकी दी थी कि अगर भारतीय सेना ने कोई कार्रवाई की तो चीनी सेना उसे हमेशा के लिए सबक सिखा देगी। उनकी इस धमकी से राजीव गांधी सरकार के माथे पर जरूर बल पड़ गए थे। लेकिन जनरल सुंदरजी ने एक पूरी बटालियन एयरलिफ्ट करके उस इलाके में भेज दी और घोषित कर दिया कि भारतीय सेना चीन की सेना को सबक सिखाने के लिए तैयार है। भारतीय सेना के इस दृढ़ संकल्प से चीनियों को विवाद बढ़ाने की हिम्मत नहीं हुई थी।
राजीव सरकार फिर भी टकराव बचाने की कोशिश करती रही। 1988 में केंद्र सरकार के कई मंत्री ही नहीं स्वयं राजीव गांधी भी चीन की यात्रा पर गए और चीन के नेताओं को शांत करने की कोशिश की। फिर भी विवाद समाप्त होने में नौ वर्ष लग गए थे। असल में भारतीय सेना जानती है कि चीनी सेना एक राजनैतिक सेना है। उसे जितनी विचारधारा की घुट्टी मिली है, उतना युद्ध का अनुभव नहीं मिला। हमारे सैनिक नेतृत्व के मन पर इस बात का कोई बोझ नहीं है कि चीनी सेना के पास अधिक सैनिक और अधिक शस्त्र बल है। चीन की सीमाएं बड़ी हैं और उसने चारों तरफ अपने शत्रु पैदा कर रखे हैं। वह हमारे साथ लड़ाई में अपनी पूरी सेना या शस्त्र बल नहीं झोंक सकता।
युद्ध हुआ तो उसका थियेटर उत्तरी सीमाएं और दक्षिणी समुद्र होगा। इस थियेटर में हमारी सेना और शस्त्र बल उससे इक्कीस ही बैठेगा। इसके अलावा इस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियां चीन के मुकाबले हमारे अधिक अनुकूल हैं। चीन यह जानता है इसलिए वह भारत से आसानी से युद्ध नहीं छेड़ेगा। अगर गलवान घाटी में हुई झड़प के बाद हम पैंगांग सो के उत्तरी किनारे पर फिंग 4 और 8 के बीच बैठे चीनी सैनिकों को खदेड़ने का निर्णय कर लेते तो चीन समझौते के लिए आतुर दिखाई देने लगता। हमारी सेना ने दूसरा रास्ता चुना और उसने दक्षिणी किनारे की पहाड़ी ऊंचाइयों पर अपना नियंत्रण कर लिया और इससे हमारी स्थिति रणनीतिक रूप से मजबूत हो गई है।
चीन की सामरिक और आर्थिक शक्ति का प्रचार अधिक है और इसमें बड़ी भूमिका पश्चिमी शिक्षा तंत्र में बैठे वामपंथी विद्वानों की है। चीन ने पिछले चार दशक में जो भी प्रगति की है, उसमें वास्तविक भूमिका पश्चिमी कंपनियों, पश्चिमी पूंजी और पश्चिमी प्रौद्योगिकी की है। इसके बाद भी चीन की जीडीपी 30 से 50 प्रतिशत तक बढ़ाकर दिखाई जाती रही है। उसकी सामरिक शक्ति संख्या में जितनी विशाल दिखती है, उतनी गुणवत्ता में नहीं है। पिछले दो दशक से चीन की अर्थव्यवस्था ढलान पर है और उसकी जनसंख्या घटने लगी है। 2018 में उसके यहां एक करोड़ तीन लाख बच्चे पैदा हुए थे जबकि मरने वालों की संख्या एक करोड़ 16 लाख थी। अमेरिका में बसे चीनी प्रोफेसर ली फूसियान के अनुसार चीन अपने आपको भारत से अधिक जनसंख्या वाला सिद्ध करने के लिए अपनी लगभग दस करोड़ आबादी अधिक दिखा रहा है।
चीनी नेताओं ने 1958 में लोगों के ग्रामीण इलाकों से शहरी इलाकों में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। 1979 में उसने एक से अधिक बच्चा पैदा करने पर रोक लगा दी। भारत में कोई सरकार ऐसे बर्बर प्रावधान लागू करती तो उसे उखाड़कर फेंक दिया गया होता। चीनी सेना की शक्ति पर ही वहां के कम्युनिस्ट शासक अपने लोगों पर ऐसे उत्पीड़क नियम लादते रहे हैं। शी जिनपिंग अपने स्वभाव और महत्वाकांक्षा में माओ होने की कोशिश कर रहे हैं। वे वैसे भी तथाकथित सांस्कृतिक क्रांति की ही देन हैं। चीन में वे एक ऐसे राजनैतिक ज्वालामुखी पर बैठे हैं जो जब सक्रिय होगा, समूचे कम्युनिस्ट सत्ता प्रतिष्ठान को भस्म कर देगा। अच्छा है कि हम ऐसे देश से अपने संबंध सीमित करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। अपनी नीतियों के कारण चीन आज दुनियाभर में अकेला पड़ता जा रहा है।
चीन पर दुनियाभर को कोरोना महामारी में झोंकने का दोष भी आने ही वाला है। लद्दाख में अभी वह तनाव न बढ़ाने पर ही सहमत हुआ है। वैसे भी अगले कुछ सप्ताह के बाद इस क्षेत्र में शीतकालीन परिस्थितियां किसी नए तनाव की गुंजाइश नहीं छोड़ेंगी। पर हमें यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि लद्दाख में चीन आसानी से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं होगा।
भारत ने उसका आर्थिक बहिष्कार करने का निर्णय करते हुए उसे अपना शत्रु घोषित कर ही दिया है। चीन भारत को युद्ध की धमकी देता रहेगा। अगर निकट भविष्य में चीन विवश करे तो एक बार हमें उससे युद्ध लड़ ही लेना चाहिए। वैसे भी एक न एक दिन वह भारत के साथ युद्ध छेड़ने ही वाला है। वह अमेरिका को धमकी भले देता रहता है, पर उसमें अमेरिका से उलझने की शक्ति नहीं है। 1959 में वह ताइवान पर हमले की योजना बना रहा था। अमेरिकियों के नाभिकीय हमले की धमकी देते ही उसने अपने पैर पीछे लौटा लिए। 1969 में वह सोवियत रूस की पूर्वी सीमाओं पर उत्पात मचा रहा था।
ब्रझनेव के नाभिकीय आक्रमण की धमकी मिलते ही माओ समेत सभी चीनी नेता पेइचिंग के बंकरों में जा छिपे थे। चीन जानता है कि वह सामरिक शक्ति के मामले में अमेरिका और रूस से पीछे है और अभी पीछे ही रहने वाला है। उनसे उलझने के बजाय वह भारत को निशाना बनाने की कोशिश कर सकता है। अगर भारतीय नेता मन से कमजोर रहे तो चीन युद्ध छेड़ेगा। अगर हमने आगे बढ़कर चीन को चुनौती दी तो चीन यह दुस्साहस नहीं करेगा। पश्चिमी देशों ने चीन का जो प्रभामंडल बना दिया है और चीन के कम्युनिस्ट नेता अपने प्रोपेगेंडा तंत्र के द्वारा उसका जो प्रचार करते रहते हैं, उसे भारत ही समाप्त कर सकता है। मोदी सरकार ने इसकी कुछ पहल की है, उसे लक्ष्य तक ले जाने की आवश्यकता है। चीन की शक्ति का यह घटातोप अपने आप दूर हो जाएगा।
<strong>(यह लेख थिंकटैंक 'लोकनीति केंद्र' की वेबसाइट से विशेष कंटेंट साझेदारी के तहत अनुमति से लिया गया है।)</strong>.
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