आज पूरी दुनिया विश्व विश्व पर्यावरण दिवस (World Environment Day) मना रहा है। लेकिन, क्या आपको पता है आने वाले दिनों में अगर यही हाल रहा तो जिंदगी और भी बत्तर हो जाएगी। क्योंकि, प्रदूषण का स्तर बहुत ही तेजी से बढ़ रहा है। नदी, नालों में तब्दील होती जा रही है। गंगा-यमुना का निर्मल जल अब गंदगी से काला होता जा रहा है। प्रदूषण के चलते ओजोन लेयर में भी छेद बढ़ता जा रहा है जिसके चलते सूर्य की किरणें अब तेज चूभने लगी हैं। इसके साथ ही दुनिया के सामने एक और बढ़ा खतरा मंडरा रहा है। दरअसल, बढ़ रहे ग्लोबल वार्मिंग के चलते हिमालय में 40साल में 3.9लाख हेक्टेयर क्षेत्र से ग्लेशियर सिकुड़ गए हैं।
ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। खासकर छोटे ग्लेशियरों पर इसका असर अधिक देखा जा रहा है। चार दशक पहले तक हिमालय रेंज में ग्लेशियर का क्षेत्रफल 30लाख हेक्टेयर था। इसका खुलासा वर्ष 2002से हिमाचल प्रदेश के ग्लेशियरों पर शोध कर रहे केंद्रीय विश्वविद्यालय धर्मशाला में पर्यावरण विज्ञान विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अनुराग ने किया। उनका कहना है कि, ग्लोबल वार्मिंग का अधिक प्रभाव दो वर्ग किलोमीटर से कम दायरे में फैसले छोटे ग्लेशियरों पर पड़ रहा है।
ये ग्लेशियर टूट कर तेजी से पिघलने लगे हैं। पूरे हिमालय में सिक्किम से लेकर कश्मीर तक लगभग 9,575 ग्लेशियर हैं। सारे ग्लेशियर ह्लोबल वार्मिंग के चलते निगेटिव द्रव मान संतुलन दिखा रहे हैं। जिसके चलते ये अधिक पिघल रहे हैं। इससे इनका क्षेत्रफल घटता जा रहा है। हिमालय में चंबा जिले में 90 फीसदी तक छेटे ग्लेशियर हैं, जबकि जनजातीय जिला लाहौल-स्पीति और किन्नौर में भी छोटे-बड़े ग्लेशियरों की संख्या 50-50 है। भारत में हिमालयी क्षेत्रों में ही ग्लेशियर पाए जाते हैं। पूर्व में सिक्किम, मध्य में हिमाचल व उत्तराखंड और पश्चिम में कश्मीर में ये ग्लेशियर हैं। वहीं, पिघल रहे ज्यादातर ग्लेशियरों का पानी नदी-नालों में ही जाता है। लाहौल में 90 फीसदी पानी चंद्रा व भागा नदी के अलावा नालों में जा रहा है।