'कभी सांंप्रदायिक सद्भाव का केंद्र रही खानकाहों से जहां सिर तन से जुदा के नारे निकल रहे हैं तो वहीं जामिया मिलिया इस्लामिया के असिस्टेंट प्रोफेसर आसिफ उमर अपनी कलम-खुत्बे से गंगा-जमुनी हिंदवी तहजीब को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। इसी प्रयास में उन्होंने खुसरो फाउंडेशन की प्रेरणा से एक किताब लिखी। आसिफ उमर, हिंदी में मुस्लिम विमर्श को फिर से लयवद्ध करना चाहते हैं।'
साहित्य समाज का दर्पण
कहा जाता है कि जैसा साहित्य होता है वैसा ही समाज बनता है। इसके उलट यह भी कहा जाता है कि जैसा समाज होता है वैसा ही साहित्य लिखा जाता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है। ऐसी पता नहीं कौन-कौन सी कहावते हैं जो प्रचलित हैं। आज हम एक नहीं कई कहावतों को चरितार्थ करने जा रहे हैं। जी हां, हम चर्चा कर रहे हैं, एक किताब के विमोचन की। किताब लिखी डॉक्टर आसिफ उमर ने और विमोचन किया डॉक्टर वेद प्रताप वैदिक सहित कई शोध-शिक्षा विशेषज्ञों ने। डॉक्टर वेद प्रताप वैदिक ने बहुत सारी किताबें लिखीं लेकिन उनकी किताब ‘भारतीय पत्रकारिता के विविध आयाम’ लगभग 42 साल पहले लिखी गई थी। उस समय यह किताब जर्नलिज्म की गीता-रामायण के तुल्य थी। डॉक्टर वैदिक ने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा जिस पर काफी बवाल भी हुआ था।
खुसरो फाउंडेशन की प्रेरणा से रची किताब
बहरहाल, डॉक्टर आसिफ उमर की नई किताब ‘हिंदी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान’की चर्चा कर रहे हैं। इस किताब का विमोचन ऐसे समय हुआ है जब दरगाहों से सिर कलम के नारे दिए जा रहे हैं। विपरीत परिस्थितियों में ‘हिंदी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान’पर चर्चा एक साहसपूर्ण काम है। इस किताब का प्रकाशन खुसरो फाउंडेशन ने किया है। खुसरो फाउंडेशन के चेयरपर्सन पद्मश्री प्रोफेसर अख्तरुल वासे हैं। प्रोफेसर अख्तरुल वासे और डॉक्टर आसिफ उमर दोनों यूपी की पृष्ठभूमि से हैं। जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी के नाते दोनों में गुरु-शिष्य का रिश्ता भी कहा जा सकता है। हालांकि, प्रोफेसर वासे का मूल विषय इस्लामिक स्ट़डी रहा है। यूपी की पृष्ठभूमि होने के नाते प्रोफेसर वासे और डॉक्टर उमर दोनों ही अच्छी तरह जानते हैं कि हिंदी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान कितना रहा है। डॉक्टर उमर ने हिंदी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों के काम पर पड़ी गर्द को हटाने का काम किया है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि आज हिंदी पढ़ने वालों को डॉक्टर आसिफ उमर ने मुस्लिम लेखकों की याद फिर से दिला दी है।
श्रेष्ठ साहित्यकारों के शहर से ताल्लुक रखते हैं आसिफ उमर
डॉक्टर आसिफ उमर, उत्तर प्रदेश के उसी आजमगढ़ के रहने वाले जहां बनारसी दास जैन, उरस्ट मिश्र, संत दाई दयाल, शेख नबी कुतबन और नूर मोहम्मद आलम ने अपनी कलम का लोहा मनवाया है।
भाषा का कोई धर्म नहीं होता
हिंदी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान’के विमोचन के अवसर पर पद्मश्री प्रोफेसर अख्तर उल वासे ने कहा कि भाषाओं का कोई धर्म नहीं होता, हर धर्म को भाषाओं की जरूरत होती है और भाषाएं विवाद के लिए नहीं संवाद के लिए होती हैं। डॉक्टर वेद प्रताप वेदिक ने कहा कि हिंदी साहित्य की नींव में रहीम, रसखान और कबीर हैं। हिंदी साहित्य में मुस्लिम लेखकों-कवियों और साहित्यकारों के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता।
मन तड़पत हरिदर्शन को आज
डॉक्टर आसिफ उमर की किताब के विमोचन अवसर पर हलीमा अजीज यूनिवर्सिटी, इम्फाल के कुलपति प्रोफेसर अफरोजुल हक ने बॉलीवुड में हिंदी साहित्य की नजीर पेश की। उन्होंने हिंदुओं का सदाबहार भजन, ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’का उदाहरण दिया। उन्होंने याद दिलाया कि इस भजन को लिखा शकील बदायुंनी ने, कंपोज किया यानी संगीत दिया नौशाद अली ने और गाया मोहम्मद रफी ने। 1952 में आई ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म बैजू बावरा के इस भजन को राग मालकौस में गाया गया और भारत भूषण पर फिल्माया गया था। प्रो अफरोज उल हक ने यह भी याद दिलाया यह परंपरा अभी तक चल रही है। उन्होंने आमिर खान की फिल्म ‘लगान’के गीत ‘ओ पालन हारे, निर्गुण और न्यारे तुम्हरे बिन हमरा कौनो नहीं’की भी याद दिलाई। आमिर खान की फिल्म के इस गीत को जावेद अख्तर ने लिखा और संगीतवद्ध एआर रहमान ने किया है। उनका संकेत था कि रहीम-रसखान की परंपरा आज भी जीवित है और समाज के ठेकेदारों को अपने चश्मों की धूल साफ करने की जरूरत है।
इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में विमोचन
हिंदी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों के योगदान पर विमर्श के दौरान डॉक्टर आसिफ उमर की किताब का विमोचन दिल्ली के लोधी रोध स्थित इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में डॉक्टर वेद प्रताप वेदिक, पद्मश्री प्रोफेसर अखतरुल वासे, प्रोफेसर अफरोजुल हक, सिराजुद्दीन कुरैशी, एयर कमोडोर रंजन मुकर्जी, मोहम्मद परवेज आलम और रोहित खेड़ा ने किया।