कला

औरंगजेब तारीख़ में दर्ज है,दारा संस्कृति में बहता है

”मजमा उल बहरीन”,यानी दो समुद्रों या नदियों का मिलन। यह उस किताब का नाम है,जिसे दाराशिकोह ने लिखी थी। शाहजहां दाराशिकोह को अपना सहज उत्तराधिकारी मानता था,और औरंगज़ेब हिंदुस्तान के बादशाह बनने की राह में उसे अपना सबसे बड़ा कांटा समझता था।ओरंगज़ेब सुन्नी था और दाराशिकोह को अपनी मां के शिया मत में भी यक़ीन नहीं था।ओरंगज़ेब (Aurangzeb) व्यावहारिक था और दाराशिकोह का जीवन आदर्शवाद से ओतप्रोत था।औरंगज़ेब को लड़ना पसंद था,मगर दाराशिकोह जंग को बेकार मानता था।हालांकि,तब भी उत्तराधिकार के दावे को दुरुस्त जताने-बताने के लिए उसे युद्ध में जाना होता था।ज़ाहिर है,दाराशिकोह अपने जंग का जौहर कभी नहीं दिखा पाया,जबकि ओरंगज़ेब इस फ़न में हमेशा माहिर रहा।शाहजहां दाराशिकोह को सैन्य अभियान पर भेजने से हमेशा कतराता रहता था,जबकि औरंगज़ेब बहुत ही कम उम्र से सैन्य अभियान पर जाने का आदी था। दाराशिकोह लोगों को पहचाने में हमेशा ग़लती करता था,औरंगज़ेब इस फ़न में माहिर था। दाराशिकोह उच्च कोटि का विचारक, कवि, अध्येता, उच्च कोटि का धर्मशास्त्री था और उसे सूफ़ी और ललित कलाओं का अच्छा ख़ासा ज्ञान था,जबकि ओरंगज़ेब की दिलचस्पी सबसे ज़्यादा जंग और हुक़ूमत में थी।

दाराशिकोह का आदर्शवाद उसे दरबार और मुल्क की तिकड़म से उदासीन करता था,औरंगज़ेब की पैंतरेबाज़ी उसे अपनी बादशाहत के लिए तैयार कर रही थी।आख़िरकार ओरंगज़ेब की पैंतरेबाज़ी और युद्ध कौशल काम आया और उत्तराधिकार के युद्ध को जीतते हुए औरंगज़ेब बादशाहत के सिंहासन पर जा बिराजा।उसने अपने पिता शाहजहां और भाई दाराशिकोह,दोनों को क़ैद कर लिया।शाहजहां की मौत अपने महबूब के मकबरे,यानी ताजमहल को निहारते हुए सालों बाद हुई और दाराशिकोह की हत्या जिल्लत के साथ हुई।मगर उसकी हत्या इतनी आसान नहीं थी,क्योंकि दाराशिकोह दिल्ली के आम लोगों के दिल में थे।इसके लिए सबसे पहले औरंगज़ेब ने एक पृष्ठभूमि बनायी।

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दाराशिकोह पर आरोप लगाया गया कि वह इस्लाम विरोधी है।दारा को दिल्ली की सड़कों पर बेइज्ज़त करके घुमाया गया।फिर उसकी गर्दन उड़ा दी गयी और सिर को हाथी पर रखकर पूरी दिल्ली घुमायी गयी,ताकि बताया जा सके कि औरंगेज़ेब और इस्लाम के साथ गड़बड़ करने वालों का अंजाम ऐसा ही होना है।मगर,औरंगज़ेब का दिल इतना से ही नहीं भरा,उसने दाराशिकोह का सर सजी हुई थाली में परोसकर क़ैद शाहजहां के सामने पेश कर दिया। बाद में उस सर को ताजमहल के परिसर में ही दफ़ाना दिया गया,ताकि औरंगज़ेब को इस बात की तसल्ली मिल सके कि उसका पिता,यानी शाहजहां अपनी प्रिय बेगम के साथ-साथ अपने प्रिय बेटे की याद में हर पल बेज़ार रह सके।

कहा जाता है कि दाराशिकोह अगर हिंदुस्तान का शासक होता,तो हिंदुस्तान का इतिहास कुछ और होता।मगर,कहा तो यह भी जाता है कि उस दौर की बादशाहत के लिए जो कुछ भी चाहिए था,वह दाराशिकोह में नहीं था।मगर,दाराशिकोह की विरासत इतनी समृद्ध है कि आज भी हम भारत की अंदरुनी और ख़ासकर सांप्रदायिक समस्याओं को उसी मजमा उल बहरीन में तलाशते हैं,जिसका मतलब दो समंदर या नदियों का मिलन है।यही वह धारणा है,जिससे गंगा-जमुनी,यानी नदियों के मिलन वाली तहज़ीब निकली है।गंगा न हिंदुओं की है और यमुना न मुसलमानों की है।मगर दोनों की धारा जब आपस में मिलती है,तो संस्कृतियों का संगम बनता है।इस संगम वाली जगह को आप चाहे प्रयागराज कह लीजिए,या इलाहाबद,दोनों धारओं का मिलन तब भी वहां होता है।भारतीय संस्कृति में सरस्वती ज्ञान और कला की देवी है और यह नदी इस बात का प्रतीक है कि जब धारायें मिलती है,तो सरस्वती अप्रकट होकर भी प्रकट होती है और ज्ञान की परंपरा समृद्ध होती है।

Upendra Chaudhary

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