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हजारों साल पुरानी लोककला से महिलाओं की तस्वीर संग बदली तकदीर, यूनिक पेंटिंग की दुनिया में मांग

सोहराई कला 10 हजार से अधिक पुरानी

जहां एक समय में झारखंड (Jharkhand) की सोहराई और खोवर कला को कोई पूछने वाला नहीं था तो अब उनकी इसी कला का देश-दुनियाभर में डंका बज रहा है। तकरीबन 10 हजार साल पुरानी इस लोक कला में महिलाएं प्राकृतिक रंगों से पेटिंग तैयार करती है, जिसकी मांग आज देश में नहीं बल्कि विदेशों में भी होने लगी है। खास बात झारखंड की सोहराई कला में महिलाएं मुख्य रूप से प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करती है। सबसे पहले विभिन्न जनजातीय समूहों की ओर से अपने घरों की दीवारों में आकर्षक कलाकृतियां बनाई जाती थी, लेकिन बैग, टी-शर्ट, चादर, पर्दे और अन्य वस्तुओं में भी इस कला का बेहतरीन तरीके से उपयोग हो रहा है। जिसके कारण क्षेत्र में आने वाले पर्यटक उनके हस्तशिल्प उत्पाद की खरीदारी कर रहे है।

इस दौरान पद्म श्री बुलू इमाम ने दुनिया के कई देशों में प्रदर्शनी इसे न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वहीं अब उनके बेटे जस्टिन इमाम और बहु अलका इमाम की ओर से इस लोक कला को बढ़ावा देने के लिए एक सेंटर की भी स्थापना की गई है। हजारीबाग स्थित सेंटर में कई महिलाओं और युवतियों को सोहराई कला की बारीकियां से अवगत कराया जाता है। सोहराई कला सेंटर में नई और युवा पीढ़ी को प्रशिक्षण देने का जिम्मा अलका इमाम संभाल रही है। वे बताती हैं कि हजारीबाग के आसपास इलाके में रहने वाली ग्रामीण महिलाएं सोहराई और अन्य पर्व में अपने घरों की दीवारों पर सदियों से पेटिंग बनाती रही है।

कैसे लगता है प्राचीनता का अंदाजा

इसकी प्राचीनता के बारे में 1991 में बड़कागांव के निकट इस्को जंगल स्थित एक गुफा से मिली। पत्थरों में बने शैलचित्र का अध्ययन करने के पता चलता है कि यह करीब 10 हजार साल पुरानी है। शैलचित्र भी सोहराई कला एक उदाहरण है। रॉक आर्ट को देखने से पता चलता है कि इस इलाके में सोहराई कला भी हजारों साल पुरानी रही होगी। इसकी प्राचीनता और अन्य तथ्यों की जानकारी हासिल करने के लिए अध्ययन अभी चल रहा है।

सोहराई कला क्या है?

अलका इमाम बताती है कि सोहराई कला मुख्य रूप से लाल, काली, पीली और दूधी मिट्टी को मिलाकर बनाई जाती है, यह पूरी तरह से प्राकृतिक रंग है। झारखंड (Jharkhand) के विभिन्न इलाकों में ये मिट्टी आसानी से मिल जाती है। अलका इमाम बताती है कि सोहराई कला एक प्राचीन आर्ट है। इस कला में ऐसा नहीं होता है कि जो बन में आए, कुछ भी बना दिया जाए। बल्कि क्षेत्र में रहने वाले अलग-अलग समुदाय के लोग अपने तरीके से कलाकृतियां बनाते है। हजारीबाग और आसपास के इलाके में 13 समुदाय के लोग अलग-अलग स्टाइल में पेटिंग करते है।

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विवाह, पर्व-त्योहार के लिए अलग-अलग कलाकृतियां

क्षेत्र में आज भी घर की महिलाएं पर्व-त्योहार और शादी में अपने घरों में कलाकृतियां बना ती है।सोहराई कला को देश-विदेश में पहचान दिलाने वाले बुलू इमाम का कहना है कि सोहराई पर्व पालतू पशु और मानवता के बीच गहरा प्रेम स्थापित करता है। इस कला को किसी के घर में विवाह के बाद वंश वृद्धि के लिए और दीपावली के बाद फसल वृद्धि के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। ऐसी मान्यता है कि जिस घर की दीवार पर कोहबर और सोहराई की पेंटिंग होती है, उनके घर में वंश और फसल वृद्धि होती है। फसल वृद्धि के लिए लोग प्राकृतिक वस्तुओं के चित्र बनाते हैं। महिलाएं पेंटिंग बनाकर अब आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही है।