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Article 370 के हटने से पहले और बाद के 4 वर्षों में कश्मीर में बदलाव

पहली बार जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने घाटी में शांति लौटने के साथ इस साल 29 जुलाई को श्रीनगर के बीचोबीच मुहर्रम जुलूस में भाग लिया।

अहमद अली फ़ैयाज़  

(इस लेख के पहले भाग में हमारे श्रीनगर संवाददाता अहमद अली फ़ैयाज़ ने इस बात पर प्रकाश डाला था कि 2014 से पहले के वर्षों में राजनीतिक लाभ के तहत कांग्रेस और पीडीपी सरकारों के तहत राष्ट्रविरोधी ताक़तों को कैसे बढ़ने दिया गया था।)

Before And After Article 370: मार्च 2015-जुलाई 2016 में बुरहान वानी ने कश्मीर को उग्रवाद को पुनर्जीवित करने के लिए सबसे उर्बर भूमि के रूप में पाया। यह वह समय था, जब सेना और अर्धसैनिक बलों के जवानों के ख़िलाफ़ ‘अत्यधिक ताक़त का सहारा लेने’ और अन्य ‘मानवाधिकारों के दुरुपयोग’ के लिए अधिकांश एफआईआर दर्ज की गयी थीं; जब अधिकांश आतंकवाद विरोधी अभियान सेना पर पथराव और भीड़ के हमलों के कारण विफल हो गये थे; जब मुठभेड़ों में मारे गए आतंकवादियों के लिए अंतिम संस्कार जुलूस और बंदूक की सलामी एक दिनचर्या बन गयी थी।

जिन खेल स्टेडियमों में भारत सरकार के ‘खेलो इंडिया’ खेल खेले गए, उनका नाम बुरहान वानी के नाम पर रखा गया। उनके पिता, एक सरकारी स्कूल शिक्षक, स्थानीय खेल टूर्नामेंटों के उद्घाटन में मुख्य अतिथि हुआ करते थे। 1988 के बाद पहली बार स्थानीय कश्मीरी आतंकवादियों ने अपने चेहरे से मुखौटे हटा दिए और उनकी तस्वीरें और वीडियो फ़ेसबुक और यूट्यूब पर प्रकाशित किए।

अगस्त, 2015 में एक वीडियो के माध्यम से बुरवान वानी ने घोषणा की थी कि वह कश्मीर में इस्लामिक राज्य की स्थापना के लिए लड़ रहा है, इसके बाद भी वह घाटी के अलगाववादी आंदोलन में सबसे आगे रहा। सैयद अली गिलानी जैसे दिग्गजों ने वानी के उनके साथ गुप्त संबंध का श्रेय लेने का दावा करना शुरू कर दिया। अंतिम संस्कार जुलूस और बंदूक की सलामी, सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज करने के साथ घाटी के सैकड़ों युवाओं को किसी भी भारतीय के ख़िलाफ़ बंदूकें और पत्थर उठाने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

नवंबर 2015 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद के गृहनगर बिजबेहरा के आसपास दो आतंकवादियों के अंतिम संस्कार में 7,000 से अधिक लोगों ने भाग लिया था। दो महीने बाद जब मुफ़्ती की मृत्यु हुई तो उनके जनाज़े में भीड़ 1,500 से भी कम थी। बिजबेहरा में एक भी दुकान बंद नहीं हुई।

मुफ़्ती के अंतिम संस्कार ने यह स्पष्ट कर दिया कि उन्होंने नेशनल कॉन्फ्रेंस के किले को सफलतापूर्वक ध्वस्त कर दिया था, लेकिन उस खालीपन को मुफ्ती की पीडीपी नहीं, बल्कि गिलानी और उनके पाकिस्तान-समर्थक भर रहे थे। जब विपक्ष ने कश्मीरी पंडित प्रवासियों को कुछ सुरक्षित शिविरों में बसाने की भाजपा-पीडीपी सरकार की योजना के बारे में स्पष्टीकरण मांगा, तो मुफ्ती और उनके मंत्रियों ने बुरी तरह नकार दिया। इसने विस्थापित आबादी के लिए राहत और पुनर्वास की भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र की योजनाओं को विफल कर दिया।

सुरक्षा बलों द्वारा उग्रवाद विरोधी अभियानों के बावजूद आतंकवादियों, अलगाववादियों और राजनीति और शासन संस्थानों में उनके शुभचिंतकों ने 2016 में एक शानदार दिन की तरह उत्सव मनाया। 8 जुलाई 2016 को एक मुठभेड़ में जब बुरहान वानी की मौत हुई, तब तक पूरी घाटी में युद्ध सा माहौल था। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि अगर उन्हें कोकेरनाग में वानी के ठिकाने पर मौजूदगी के बारे में सूचित किया गया होता, तो वह सेना हटा लेतीं और उस आतंकवादी को भागने देतीं।

वानी की मौत के बाद चार महीनों के दौरान कश्मीर में अब तक की सबसे ख़राब स्थिति बनी रही,सड़क पर उपद्रव, आगजनी और सुरक्षा बलों के साथ झड़पें देखी गयीं। त्राल में वानी के अंतिम संस्कार में 2 लाख से अधिक लोगों को भाग लेने की अनुमति दी गयी।

अलगाववादियों ने वानी के लिए बड़े पैमाने पर रैलियां कीं। इससे पुलिस और प्रशासनिक मशीनरी लगभग पूरी तरह से चरमरा गयी। सुरक्षा बलों के साथ झड़पों में सौ से अधिक लोग मारे गये। इन झड़पों में 8,000 से अधिक नागरिक और 4,000 पुलिस और अर्धसैनिक बल के जवान घायल हुए। उरी और कुपवाड़ा से लेकर भद्रवाह और राजौरी तक पूरी घाटी में पाकिस्तानी झंडे लहराये गये।

गिलानी के लगातार भड़काये जाने से हुए पथराव में 18,000 से अधिक नागरिक और सरकारी वाहन क्षतिग्रस्त हो गए। सड़कों पर उपद्रवी युवकों ने पुलिसकर्मियों और सरकारी कर्मचारियों के साथ मारपीट की। सड़कों पर महिला यात्रियों की जांच की गयी ताकि यह सत्यापित किया जा सके कि क्या वे वास्तव में गर्भवती हैं और डॉक्टर के पास जा रही हैं या नहीं।

दूसरी ओर मुख्यमंत्री ने समय से लंबित पंचायत और नगर निगम चुनाव कराने के दिल्ली के संकेत को बार-बार अस्वीकार कर दिया। यह वह समय था, जब कुछ शीर्ष अलगाववादी और उग्रवादी नेता अपने रिश्तेदारों को पिछले दरवाज़े से सरकारी सेवाओं में प्रवेश दिलाने में कामयाब रहे। गिलानी सहित कुछ शीर्ष पाकिस्तान समर्थक नेताओं के तुष्टीकरण में सभी नियमों को धता बताया गया।

जैसे-जैसे अलगाववादी और उग्रवादी अपने सबसे अनुकूल माहौल में अपनी पकड़ बनाते गए, पाकिस्तान वस्तुतः उस सरकार में भागीदार बनता गया, जिसने कश्मीर में सभी भारतीयों को मिटा दिया। क्रिकेट टूर्नामेंट की शुरुआत पाकिस्तानी राष्ट्रगान से हुई। उग्रवादी, अलगाववादी और उनका पूरा तंत्र सोशल मीडिया पर हावी रहा और हर भारतीय समर्थक आवाज़ को ट्रोल, गाली और धमकी दिया जा रहा था।

अंततः श्रीनगर के प्रेस एन्क्लेव में आतंकवादियों द्वारा पत्रकार शुजात बुखारी की दिनदहाड़े हत्या वास्तव में गठबंधन के ताबूत में आखिरी कील के रूप में सामने आयी। चार दिनों के भीतर भाजपा ने पीडीपी से समर्थन वापस ले लिया, महबूबा मुफ्ती की सरकार गिरा दी और राज्यपाल/राष्ट्रपति शासन के लिए मंच तैयार किया। यह उस पारिस्थितिकी तंत्र के लिए पहला बड़ा झटका था, जिसने कश्मीर में अलगाववादी भावना और पाकिस्तान समर्थक माहौल को क़ायम रखा था।

2019 में दो महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुए। फ़रवरी 2019 में एक अभूतपूर्व फिदायीन हमले में 40 सीआरपीएफ़ जवानों की हत्या के कारण जेकेएलएफ, जमात-ए-इस्लामी और अन्य अलगाववादी समूहों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यासीन मलिक सहित अधिकांश अलगाववादी और पूर्व उग्रवादी नेताओं को गिरफ्तार कर तिहाड़ और अन्य जेलों में बंद कर दिया गया। सभी अलगाववादी नेताओं से सुरक्षा कवर और वीवीआईपी दर्जा वापस ले लिया गया। उनमें से कई को घर में नजरबंद कर दिया गया। 1971 के बाद पहली बार भारतीय वायुसेना के विमानों ने सीमा पार कर पाकिस्तान की धरती पर बम गिराये गये।

लोकसभा चुनाव जीतने के कुछ ही हफ्तों में भाजपा और उसकी सरकार ने अनुच्छेद 370 और 35-ए को निरस्त कर दिया, जम्मू-कश्मीर की विशेष संवैधानिक स्थिति को वापस ले लिया और तत्कालीन राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया। करीब दो महीने तक कर्फ्यू और प्रतिबंध लागू रहे। हालांकि, तमाम अटकलों, आशंकाओं और भविष्यवाणियों के विपरीत, कश्मीर के लोगों की कहीं भी सेनाओं से झड़प नहीं हुई। नतीजतन, गोलियां, छर्रे और आंसू गैस के गोले नहीं छोड़े गये।

टेलीफोन और इंटरनेट सेवाओं को कुछ महीनों के लिए निलंबित कर दिया गया था, लेकिन यह स्पष्ट हो जाने के बाद कि नियमों का उल्लंघन करने वाले सभी लोगों पर आपराधिक मामले दर्ज किए जायेंगे, सबकुछ फिर से बहाल कर दिये गये। 2020 में कोविड-19 महामारी ने अधिकारियों को लॉकडाउन के कार्यान्वयन के हिस्से के रूप में सभी अंतिम संस्कार जुलूसों से इनकार कर दिये जाने में सक्षम बना दिया। जल्द ही सभी बंदूकों की सलामी ग़ायब हो गयी। इसने नई उग्रवादी भर्ती को अब तक के सबसे निचले स्तर पर ला दिया।

5 अगस्त 2019 के चार साल बाद स्थिति मार्च 2015 से अगस्त 2019 तक देखी गयी स्थिति से बिल्कुल अलग है। पिछले तीन वर्षों में सभी अलगाववादी आवाज़ें खामोश कर दी गयी हैं। शीर्ष अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी और अशरफ सेहराई, साथ ही गिलानी के संभावित उत्तराधिकारी अल्ताफ फंटूश की प्राकृतिक रूप से मौत हो चुकी है।

अब 2019 में लगाये गये सभी प्रतिबंध हटा दिए गए हैं। कर्फ्यू और हड़ताल अतीत बन गये हैं। कोई भारत-विरोधी, आज़ादी-समर्थक या पाकिस्तान-समर्थक प्रदर्शन या पुलिस या सुरक्षा बलों के साथ झड़प नहीं है। सरकारी सेवाओं में उग्रवादियों के समर्थकों को बाहर किया जा रहा है। व्यापार और पर्यटन अपने चरम पर है। स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, सरकारी कार्यालय, निजी व्यवसाय और बैंक बिना किसी व्यवधान के चल कर रहे हैं। उपराज्यपाल को श्रीनगर शहर में धार्मिक जुलूसों के साथ चलते देखा गया है।

विडंबना यह है कि भारतीय समर्थक इस माहौल से एकमात्र खतरा उन कुछ मुख्यधारा के राजनीतिक नेताओं को है, जो भारतीय लोकतांत्रिक संस्थानों को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ते, जो घाटी में अपने अनुयायियों के बीच पीड़ित और अशक्त होने की भावना पैदा करते हैं और जिन्हें मकबूल भट और अन्य उग्रवादियों को ‘कश्मीरियों का मसीहा’ बताने में कोई झिझक नहीं होती।