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Jammu-Kashmir में आतंकियों का नया तरीका- सरकार को उठाने होंगे और कड़े कदम

Jammu Kashmir Terrorism

Jammu Kashmir Terrorism: दुर्दांत आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैय्यबा के कुख्यात मुखौटे ‘द रेसिस्टेंस फ्रंट’ (टी.आर.एफ.) ने कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री पुनर्वास पैकेज के तहत घाटी में कार्यरत 56 कश्मीरी अल्पसंख्यकों (गैर-मुस्लिमों) की सूची जारी करते हुए उन्हें धमकी दी थी। उसने पिछले सप्ताह फिर से ऐसे ही दस और लोगों की सूची जारी की है। इससे पहले भी यह आतंकी संगठन ‘राइजिंग कश्मीर’ (Jammu Kashmir Terrorism) नामक अखबार में काम करने वाले आठ पत्रकारों की सूची जारी करके उन्हें धमका चुका है। टी आर एफ यह कारगुजारियां ‘कश्मीर फाइट्स’ नामक अपने ऑनलाइन मुखपत्र के माध्यम से करता है। टी आर एफ के द्वारा जारी सूची में कश्मीरी अल्पसंख्यकों के नाम के साथ-साथ उनके नए और पुराने कार्यस्थलों का पूरा विवरण है। यह तथ्य सर्वाधिक चौंकाने वाला और चिंताजनक है। यह सूची जारी होने के बाद से कश्मीरी विस्थापितों के जम्मू-कश्मीर पीपुल्स फोरम, कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति और पनुन कश्मीर जैसे तमाम संगठन इन कर्मियों की सुरक्षा की माँग कर रहे हैं। कुछेक महीने पहले हुई टारगेट किलिंग की घटनाओं के बाद से प्रधानमंत्री राहत पैकेज के तहत नौकरी पाये कश्मीरी विस्थापित काफी संख्या में कश्मीर से वापस जम्मू लौट आये हैं और खुद की जम्मू में नियुक्ति की माँग कर रहे हैं। उन्हें पिछले लगभग आठ माह से वेतन भी नहीं मिला है। दरअसल, यह सूची जम्मू-कश्मीर में हालात को सामान्य बनाने की केंद्र सरकार की कोशिशों को नाकाम करने की साजिश है। अब टी आर एफ जैसे आतंकी संगठन (Jammu Kashmir Terrorism) की खुलेआम धमकी का गंभीर संज्ञान लेने की आवश्यकता है। इन धमकियों के लिए जिम्मेदार चार टी.आर.एफ. आतंकियों को चिह्नित करते हुए उनकी खोज-खबर और आवभगत करने के लिए राष्ट्रीय जाँच एजेंसी ने घाटी में पोस्टर लगवाये हैं। निश्चय ही, यह टी.आर.एफ और उसके आकाओं की कमर तोड़ने का सही समय है।

कश्मीर से अब आतंकियों को उखाड़ फेंकने की बारी
आतंकियों की इस गीदड़ भभकी से डरकर मैदान छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। परंतु, कश्मीरी विस्थापितों की सुरक्षा और उनकी अन्यान्य मांगों पर तत्काल ध्यान दिया जाना चाहिए। क्योंकि सुरक्षित वातावरण में ही उनकी घर वापसी हो सकती है और तभी वे निश्चिंत होकर अपना काम कर सकते हैं। इसलिए उन्हें सुरक्षा और विश्वास दिलाना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। अगर कश्मीरी विस्थापित और प्रवासी घाटी से भाग खड़े होते हैं, तो आतंकियों और उनके आकाओं के मंसूबे पूरे हो जायेंगे। कश्मीर के हालात को सामान्य बनाने के लिए केंद्र सरकार, उपराज्यपाल प्रशासन और तमाम सुरक्षा एजेंसियां जुटे हुए हैं। लेकिन जिसप्रकार से यह सूची जारी हुई है और उसमें जिसप्रकार की गोपनीय सूचनाएं हैं, वे कान खड़े करने वाली हैं। इससे एकबार फिर यह स्पष्ट हो गया है कि आतंकियों के हमदर्द और हिमायतियों की शासन-प्रशासन में गहरी पैठ है। उनको चिह्नित करने और दण्डित किये जाने का जो काम किया गया है, वह नाकाफी है। इस काम को और भी तेजी और बारीकी से किया जाना चाहिए।

सिर्फ कश्मीरी विस्थापितों को घाटी में नौकरी या घर वापसी काफी नहीं
अनुच्छेद 370 और 35 ए की समाप्ति हुए 3 वर्ष से अधिक समय बीत गया है। इस दौरान केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में जमीनी बदलाव के लिए और हालात को सामान्य बनाने के लिए अनेक काम किये हैं। उनका सुखद और सकारात्मक परिणाम भी दिखाई-सुनाई पड़ रहा है। फिर भी स्थिति को सामान्य बनाने के लिए और इस सिरदर्द की समाप्ति के लिए कुछ सर्जिकल कार्रवाई करने की आवश्यकता को नज़रन्दाज नहीं किया जा सकता है। सिर्फ कश्मीरी विस्थापितों को घाटी में नौकरी देना या उनकी घर वापसी कराना काफी नहीं है। वे वास्तविक अल्पसंख्यक हैं। इसीलिए दांतों के बीच जीभ की तरह दबे-कुचले और असुरक्षित हैं।

कश्मीरी विस्थापितों को साधनों, संसाधनों और सुविधाओं से लैस किया जाना चाहिए
उत्तर प्रदेश आवास विकास परिषद् और हरियाणा अर्बन डवलपमेंट अथॉरिटी की तर्ज पर जम्मू-कश्मीर डवलपमेंट अथॉरिटी का गठन करके कश्मीर के प्रत्येक जिले में सर्वसुविधासम्पन्न बड़े-बड़े रिहायशी और व्यावसायिक परिसर बनाये जाने चाहिए। इन परिसरों में न सिर्फ कश्मीरी विस्थापितों को भूखंड आबंटित किये जाएं, बल्कि सेना और अर्ध-सैनिक बलों के पूर्व-कर्मियों को भी रियायती दर पर भूखंड आबंटित किये जाने चाहिए। इन परिसरों में किसी भी भारतीय को रियायती दर पर भूखंड खरीदने का अधिकार दिया जाना चाहिए। इसीप्रकार कश्मीर में बड़े-छोटे उद्योग स्थापित करने वालों और अपना रोजगार शुरू करने वाले दुकानदारों, रेहड़ी-ठेले वालों आदि को रियायती ब्याज पर ऋण और सब्सिडी दी जानी चाहिए। उन्हें काम-धंधे/व्यवसाय के मुफ्त बीमे के अलावा जीवन बीमा की सुविधा भी दी जानी चाहिए। आसानी से लाइसेंस मुहैय्या कराते हुए सस्ते दाम पर शस्त्र उपलब्ध कराये जाने चाहिए। इससे इन परिसरों में बसने वाले लोग अपनी सुरक्षा के लिए सिर्फ सुरक्षा बलों पर ही निर्भर नहीं रहेंगे। पिछली सदी के आखिरी दशक में आतंक अपने चरम पर था। उस वक्त लालकृष्ण आडवाणी जी के प्रयासों से प्रत्येक गाँव के स्थानीय नागरिक समाज को जोड़कर विलेज डिफेंस कमेटियों (वी डी सी) का गठन किया गया था। कश्मीर संभाग में इन कमेटियों का पुनर्गठन करने की आवश्यकता है। इन्हें साधनों, संसाधनों और सुविधाओं से भी लैस किया जाना चाहिए। ये कमेटियां आतंकियों को मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम होंगी और विश्वास बहाली का आधार बनेंगी।

जम्मू-कश्मीर की युवा पीढ़ी को बर्बाद करने का आतंकियों का नया तरीका
सीमापार से घुसपैठ को भारतीय सुरक्षा बलों की मुस्तैदी ने काफी कम कर दिया है। सरकार ने हवाला फंडिंग की भी कमर तोड़ दी है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से एक नयी समस्या उभर रही है। यह समस्या मादक पदार्थों की तस्करी है। पंजाब के रास्ते जम्मू-कश्मीर में नशे का कारोबार दिन दूना रात चौगुना फल-फूल रहा है। नशे के इस कारोबार के तार आतंकियों से जुड़े हुए हैं। यह आतंकी फंडिंग और जम्मू-कश्मीर की युवा पीढ़ी को बर्बाद करने का नया तरीका है। समय रहते इसकी नकेल कसना जरूरी है। अन्यथा यह असाध्य रोग बन जाएगा।

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महबूबा मुफ़्ती आतंकियों और अलगाववादियों की सबसे बड़ी हमदर्द
अब्दुल्ला-मुफ़्ती खानदान से इतर राजनीतिक नेतृत्व खड़ा करने की भी कोशिश होनी चाहिए। ये दोनों परिवार लोगों को बरगलाने और भड़काने में माहिर हैं। झूठ और लूट की राजनीति ही उनका वास्तविक एजेंडा है। पिछले 70 साल से जम्मू-कश्मीर इसी भय, भ्रम और भ्रष्टाचार की राजनीति का शिकार रहा है। जम्मू-कश्मीर के पुराने और पके हुए नेता घाघ हैं और उनमें से कई शीर्षस्थ नेताओं का गठजोड़ आतंकियों और अलगाववादियों के साथ गठजोड़ जगजाहिर है। आतंकियों और अलगाववादियों की सबसे बड़ी हमदर्द महबूबा मुफ़्ती हैं। अब इस परम्परागत नेतृत्व के बरक्स विकास और बदलाव की बात करने वाले नए नेतृत्व को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसप्रकार का वैकल्पिक और विकासोन्मुख नेतृत्व ग्राम पंचायतों, खंड/जिला विकास परिषदों और नगर निकायों में से चिह्नित करके प्रोत्साहित किया जा सकता है। सकारात्मक सोच ही विकास और बदलाव की संवाहक हो सकती है। जम्मू-कश्मीर में इसकी विशेष आवश्यकता है। ‘बैक टू विलेज’ और ‘माय टाउन, माय प्राइड’ कार्यक्रमों के दौरान नागरिकों और जनप्रतिनिधियों की अत्यंत निराशाजनक भागीदारी और नकारात्मक प्रतिक्रिया चिंताजनक है। यह प्रतिक्रिया दर्शाती है कि उपराज्यपाल शासन को और अधिक पारदर्शी, जवाबदेह, संवेदनशील, त्वरित और परिणामोन्मुख होने की आवश्यकता है। नौकरशाही पर अति-निर्भरता स्थानीय समाज में अलगाव और अन्यमनस्कता पैदा करती है। जम्मू-कश्मीर पब्लिक यूनिवर्सिटी बिल-2022 इसका एक उदाहरण है। इस प्रकार का कोई कानून बनाने से पहले छात्रों-प्राध्यापकों और नागरिक समाज आदि सभी स्टेकहोल्डर्स के साथ व्यापक विचार-विमर्श करके उन्हें विश्वास में लिया जाना चाहिए था। व्यवस्था में जड़ जमाये बैठे घाघ कानून पारित होने के बावजूद अन्य प्रान्तवासियों को अभी भी जम्मू-कश्मीर में रिहाइशी भूखंड/घर नहीं खरीदने दे रहे हैं। तन्त्र में ऐसे अनेक राष्ट्रद्रोही तत्त्व हैं, जो सरकार को ‘फेल’ करना चाहते हैं।

जम्मू-कश्मीर के हजारों वीर और वीरांगनाएं घाटी के युवा पीढ़ी के आइकॉन होने चाहिए
भारत की स्वतंत्रता और एकता-अखंडता के लिए अपने प्राण गंवाने वाले जम्मू-कश्मीर के हजारों वीरों और वीरांगनाओं के नाम पर विद्यालयों, महाविद्यालयों, चौकों, मार्गों, पुलों, बस अड्डों, रेलवे-स्टेशनों आदि के नाम रखने की पहल सराहनीय है। यही लोग जम्मू-कश्मीर की युवा पीढ़ी के आइकॉन होने चाहिए। पिछली सरकारों ने बिट्टा कराटे और वुरहान वानी जैसे आतंकियों को हीरो बनाने/बताने की कारस्तानी की है। अब इतिहास को ठीक करने और ठीक से पढ़ने-पढ़ाने का भी अवसर है, ताकि स्थानीय समाज की भ्रांतियां दूर की जा सकें और उन्हें राष्ट्रीय धारा से जोड़ा जा सके। धीरे-धीरे ही सही पर स्थानीय लोग इस सत्य को स्वीकारने लगे हैं कि राष्ट्रीय धारा से जुड़कर ही घाटी में अमन-चैन और खुशहाली आ सकती है।

अब Pok के लोगों के बारे में सोचने का समय आ गया है
पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर और चीन अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के लाखों विस्थापित अभी तक न्याय की बाट जोह रहे हैं। उनकी समस्याओं और मांगों पर भी सहानुभूतिपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। वे आजतक अपने नागरिक अधिकारों से ही नहीं, बल्कि मानव अधिकारों तक से वंचित हैं। उनकी सुनवाई जरूरी है, ताकि वे भी शेष भारतवासियों की तरह सुख, शांति और सम्मान से जीवनयापन कर सकें। उनकी शासन-प्रशासन और विधान-सभा में समुचित भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। जब तक एक-एक कश्मीरी विस्थापित की सुरक्षित ‘घर वापसी’ नहीं हो जाती, तबतक विधानसभा चुनाव कराने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। जम्मू-कश्मीर के प्रत्येक नागरिक के मन में निडर होकर मतदान करने का विश्वास पैदा करके ही वहाँ वास्तविक लोकतंत्र की बहाली हो सकती है।

(लेखक प्रो. रसाल सिंह जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं)