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Muharram Procession: 34 साल बाद श्रीनगर में मुहर्रम का जुलूस को मंज़ूरी,पाक को करारा जवाब

श्रीनगर में 34 साल बाद पहला मुहर्रम जुलूस

Muharram Procession: गुरुवार को 34 साल के लंबे अंतराल के बाद इराक़ के कर्बला की लड़ाई में पैग़म्बर मोहम्मद के पोते हजरत इमाम हुसैन के बलिदान को याद करने के लिए मुहर्रम की 8वीं तारीख़ को हज़ारों शिया मुस्लिम शोक मनाने वालों ने श्रीनगर में एक विशाल जुलूस निकाला।

अगस्त 1988 के बाद यह पहली बार है कि भारत सरकार के परामर्श के बाद उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के निर्देशों के तहत अधिकारियों ने सिविल सचिवालय के पास गुरुबाज़ार से डलगेट तक अपने पारंपरिक मार्ग पर श्रीनगर सिविल लाइन्स के से होते हुए 8वें मुहर्रम के शोक जुलूस की अनुमति दी। । यह जहांगीर चौक, बुदशाह चौक, सेंट्रल टेलीग्राफ ऑफिस, मौलाना आजाद रोड से होते हुए शांतिपूर्वक गुजरा और पर्यटन केंद्र डलगेट पर जाकर समाप्त हुआ।

काले कपड़े पहने, कर्बला के शहीदों की याद में झंडे लेकर और इमाम हुसैन और उनके साथियों के लिए श्रद्धांजलि पढ़ते हुए प्रतिभागियों ने 3 किलोमीटर की दूरी तय की और डलगेट पर जाकर फिर अपने-अपने घर चले गए। हालांकि, अधिकारियों ने जुलूस के लिए सुबह 6.00 बजे से 8.00 बजे तक का समय तय किया था, उन्होंने प्रतिबंधों में ढील दे दी और जुलूस को सुबह 11.00 बजे समाप्त होने दिया।

1988 से पहले गुरुबाज़ार में दोपहर दो बजे जुलूस निकलता था। उसी मार्ग से गुज़रते हुए रात्रि 10 बजे डलगेट पर समाप्त होती थी।

20वीं सदी की शुरुआत में महाराजा ने यादगार-ए-हुसैनी समिति के संस्थापक, गुरुबाज़ार के हाजी कुलु को जुलूस के लिए लाइसेंस जारी किया था। परमिट के मुताबिक़, 8वीं मुहर्रम का जुलूस गुरुबाज़ार से शुरू होता था, जो हरि सिंह हाई स्ट्रीट, लाल चौक, बरबरशाह, नवापोरा और खानयार से गुजरता था और हसनाबाद के इमामबाड़ा में समाप्त होता था। बाद में इसका मार्ग बदलकर एमए रोड होते हुए गुरुबाजार-डलगेट कर दिया गया।

17 अगस्त 1988 को पहली बार कर्फ़्यू लगाया गया था, जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति और सैन्य शासक जनरल जिया उल हक़ की एक हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी। अधिकारियों ने उस सप्ताह के अंत में क़ानून और व्यवस्था की समस्या के मद्देनज़र कर्फ़्यू लगा दिया और मुहर्रम जुलूस की अनुमति देने से इनकार कर दिया। इसके बाद एक सशस्त्र विद्रोह भड़क उठा और श्रीनगर में अपने पारंपरिक मार्गों पर 8वीं मुहर्रम और 10वीं मुहर्रम (आशूरा) के जुलूसों को अनुमति देने से इनकार कर दिया गया।

जहां 1988 से 2022 तक मुहर्रम की 8 तारीख़ को कोई जुलूस नहीं निकला, वहीं मुहर्रम की 10 तारीख़ को अबीगुज़ार-ज़दीबल से लालबाजार-ज़दीबल तक अपना मार्ग बदल दिया गया। प्रतिभागियों की कम संख्या के साथ मुहर्रम (आशूरा) का मुख्य 10वां जुलूस 3 किमी की छोटी दूरी से गुज़रता था और इमामबाड़ा ज़दीबल में जाकर समाप्त हो जाता था।

1990 के बाद लगभग हर साल अलगाववादी और उग्रवादी शोक मनाने वालों के भेष में जहांगीर चौक पर नज़र आते थे। वे अलग-अलग शिया शोक समूहों में शामिल होते थे और 8वीं मुहर्रम का जुलूस निकालने का प्रयास करते थे। पुलिस उन्हें गाड़ियों में भरकर एक-दो पुलिस स्टेशनों में हिरासत में लेती थी और शाम को छोड़ देती थी। ये फ़ोटो सेशन विश्व मीडिया में प्रसारित होते थे, जिससे यह धारणा बनती थी कि भारत सरकार कश्मीर घाटी में मुसलमानों की धार्मिक प्रथाओं और अनुष्ठानों की अनुमति नहीं दे रही है।

अधिकारियों को हमेशा यह आशंका रहती थी कि धार्मिक जुलूसों का इस्तेमाल अलगाववादी राजनीतिक एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है। ऐसे अधिकांश अवसरों पर अलगाववादियों से जुड़े उपद्रवी समूह, भारत के विरुद्ध और आज़ादी के पक्ष में नारे लगाते थे।

हालांकि, इस साल पहली बार अधिकारियों ने 8वें मुहर्रम शोक जुलूस की अनुमति देने और अलगाववादियों को फ़ोटो सेशन और प्रचार के नियमित अवसर से वंचित करने का फ़ैसला किया। 1988 के बाद यह पहली बार था कि लाइसेंसधारी ‘यादगार-ए-हुसैनी कमेटी गुरुबाज़ार’ को जुलूस की अनुमति दी गयी थी, हालांकि समय में कटौती कर दी गयी थी।

आयोजकों ने अधिकारियों के साथ सहयोग किया और कोई राजनीतिक नारे, बैनर या प्रदर्शन नहीं हुए। पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों की रिपोर्ट पर अनुमति जारी करने वाले श्रीनगर के डिप्टी कमिश्नर मोहम्मद ऐजाज़ असद को काले शोक पोशाक में जुलूस के साथ चलते देखा गया। उन्होंने कहा कि आयोजकों के साथ-साथ सभी प्रतिभागियों ने प्रशासन के साथ पूरा सहयोग किया और “एक भी समस्या नहीं हुई”।

यहां तक कि 1989 से श्रीनगर में अपने पारंपरिक मार्गों पर 8वीं और 10वीं मुहर्रम के जुलूसों पर प्रतिबंध लगा हुआ है, पिछले 34 वर्षों में राजधानी शहर और पूरी कश्मीर घाटी में अन्य सभी मुहर्रम जुलूसों की अनुमति दी गयी थी। हर साल हज़ारों शोक मनाने वाले लोग हज़रत इमाम हुसैन और उनके साथियों की प्रशंसा में मर्सिया और नोहा पढ़ते हुए ऐसे जुलूसों में भाग लेते हैं।