साहित्य-संस्कृति

तबाही की भविष्यवाणी को झुठलाते हुए भारत में शान से फल-फूल रही उर्दू  

मोहम्मद अनस  

मौजूदा वक़्त की हताशा को दर्शाते हुए विश्व इतिहास के प्रतिष्ठित इतिहासकारों के हवाले से न्यूयॉर्क टाइम्स ने 1973 में भारत के बारे में एक निंदात्मक रिपोर्ट प्रकाशित की थी,इस रिपोर्ट का शीर्षक था- Decline of Urdu Feared in India,यानी भारत में उर्दू के पतन की आशंका। इस रिपोर्ट की पृष्ठभूमि 1971 के बांग्ला मुक्ति युद्ध के बाद के परिदृश्य और देश के उत्तरी हिस्सों में बढ़ रहे हिंदू-मुस्लिम तनाव पर आधारित थी। हालांकि, न्यूयॉर्क टाइम्स की क़यामत के दिन की भविष्यवाणी और कुछ हलकों से इसी तरह की चिंताओं के 50 साल बाद भी यह भाषा फल-फूल रही है,यह ज़बान कवि, उपन्यासकार, नाटककार और विद्वान पैदा कर रही है। इसका उफ़ाक (क्षितिज) वास्तव में अब तक अज्ञात अय्याम (आयाम) तक व्यापक हो गया है।

इस भाषा का सबसे चमकदार पहलू तो यही है कि उर्दू वह भाषा क़ायम है, जिसकी कविता भारतीय संसद में सबसे अधिक उद्धृत की गयी है। भारतीय फ़िल्म उद्योग, हिंदी सिनेमा या बॉलीवुड में अधिकांश गाने इसी ख़ूबसूरत भाषा में बनाये और गाये जाते हैं और फिर उन्हें पूरे भारत में गुनगुनाया जाता है।

ऐसे कई विश्वविद्यालय हैं, जिनकी स्थापना विशेष रूप से उर्दू को फलने-फूलने और उसकी शैक्षणिक और साहित्यिक बढ़त को बनाये रखने में मदद करने के लिए की गयी है।

अधिकांश भारतीय मुसलमानों की मातृभाषा उर्दू है, जो फ़ारसी, अरबी, तुर्की और संस्कृत से ली गयी भाषा है, यह उत्तरी भारत में लाखों हिंदुओं और सिखों द्वारा भी बोली जाती है।

कुल मिलाकर, लगभग 45 प्रतिशत भारतीय आबादी,जिसमें से ज़्यादातर उत्तरी राज्यों की आबादी उर्दू समझती है।

भारत में उर्दू के लगभग 71.29 मिलियन लोग बोलने वाले हैं । कुल जनसंख्या के प्रतिशत के रूप में सबसे बड़ा हिस्सा लगभग 8 प्रतिशत पाकिस्तान में है। वेबसाइट वर्ल्ड डेटा के अनुसार, दुनिया भर में कुल मिलाकर लगभग 89.7 मिलियन लोग अपनी मातृभाषा के रूप में उर्दू बोलते हैं।

वास्तव में उर्दू को भारत में व्यक्तिगत उर्दू प्रेमियों, कला के पेशेवरों, विद्वानों, विश्वविद्यालयों, अकादमियों, संस्थानों, दर्जियों, दुकानदारों, चायवालों, पुस्तकालयों द्वारा असंख्य रहस्यमय और अलग-अलग तरीक़ों से बढ़ावा दिया जा रहा है, और कभी-कभी समृद्ध मुशायरों (साहित्यिक गोष्ठियों) का तो उल्लेख ही नहीं किया जाता है।

 

न्यूयॉर्क टाइम्स रिपोर्ट और तथ्यात्मक खंडन

इस रिपोर्ट में सीधे तौर पर घोषणा की गयी थी कि ख़ूबसूरत भाषा उर्दू अपनी ही मातृभूमि,भारत में अंधेरे के हवाले हो गयी है। इसस दैनिक समाचार पत्र ने इसका कारण धार्मिकता, अल्पसंख्यक राजनीति और पाकिस्तान के साथ भाषा के कथित संबंध के साथ हिंदू-मुस्लिम विभाजन को बताया था। न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी लगा था कि देश में बढ़ती असहिष्णुता के कारण इस भाषा में गिरावट आयी है।

असहिष्णुता का आह्वान हमें ऐसी ही “असहिष्णुता” की याद दिला सकता है, जो हाल के दिनों में प्रचलित मानी जाती है। उनके कांग्रेस शासन के दौरान असहिष्णुता कैसे व्याप्त थी, यह शायद केवल इंदिरा ही बता सकती हैं ? वैसे भी, यह भाषा फली-फूली, यहां तक कि इंदिरा और उनके सहयोगियों के शब्दों में भी फली-फूली, जिन्होंने लोकतंत्र के सदन में अपनी बात पहुंचाने के लिए प्रासंगिक उर्दू दोहे उद्धृत किए और अनगिनत चुनावी रैलियों को भी इसी भाषा में संबोधित किया।

1984 में इंदिरा गांधी का राष्ट्र के नाम एक प्रसारण

 

दिलचस्प बात यह है कि जिस समय प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी सहित भारत के कई राजनेता अपने भाषणों और राष्ट्रीय प्रसारणों में उर्दू शायरी का उपयोग बहुत ही सहजता से कर रहे थे,उस समय पाकिस्तानी राष्ट्रपति ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को सार्वजनिक रूप से उर्दू में बोलने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था। न्यूयॉर्क टाइम्स ने भुट्टो की इस विचित्र दुविधा के बारे में बताया था। लेकिन, यह बात इस भाषा की समस्या की जड़ पर भी ध्यान दिलाती है: “जब 1947 में इस उपमहाद्वीप का विभाजन हुआ था, तो पाकिस्तान ने उर्दू को अपनी आधिकारिक भाषा बनाया था और भारत ने हिंदी को चुना था… विभाजन के बाद हुए सांप्रदायिक आतंक में उर्दू अपने जन्मस्थान में एक अजनबी भाषा बनकर रह गयी है।”

इस रिपोर्ट में प्रसिद्ध उर्दू साहित्यिक आलोचक प्रोफ़ेसर आले अहमद सुरूर का हवाला दिया गया है, जिन्होंने उर्दू के ख़तरे पर चिंता जतायी थी। “उर्दू एक राष्ट्रीय प्रश्न है। उन्होंने एनवाईटी संवाददाता से कहा था, “सभी लोकतांत्रिक ताक़तों और धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाले लोगों को उर्दू के हित की वकालत जारी रखनी चाहिए।”

एक साल बाद ही 1974 में सुरूर को उनकी मौलिक कृति नज़र और नज़रिया (दृष्टि और परिप्रेक्ष्य) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

सुरूर ने उर्दू कवि मुहम्मद इक़बाल पर विस्तार से लिखा है, जो पाकिस्तान में एक राष्ट्रीय प्रतीक हैं। सुरूर कश्मीर विश्वविद्यालय में ‘इक़बाल संस्थान’ के संस्थापक निदेशक थे, जिसे अब ‘इकबाल इंस्टीट्यूट ऑफ़ कल्चर एंड फ़िलॉसफी’ के नाम से जाना जाता है। ‘इकबाल चेयर’ की स्थापना 1977 में कश्मीर विश्वविद्यालय में की गयी थी, जहां सुरूर को इक़बाल प्रोफ़ेसर के रूप में नियुक्त किया गया था।

विचारों में खोए मुहम्मद इक़बाल, या अल्लामा इक़बाल

 

सुरूर की सफलता और प्रशंसा (बाद में उन्हें 1991 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया) ने साबित कर दिया कि 1973 के बाद उर्दू को उतने ही जुनून के साथ बढ़ावा दिया गया, जितना इसके बर्बाद होने की आशंका जतायी गयी थी।

इक़बाल को पाकिस्तानी राष्ट्रीय कवि के रूप में सम्मान देते हैं (उनका जन्म और मृत्यु भारत में हुई थी),वह  विवादास्पद शख़्सियत रहे हैं। उनकी कविता या विभाजन-पूर्व की राजनीति में उनकी भूमिका के कुछ संदर्भ पिछले महीने दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम से हटा दिये गये थे। इसके बाद तो संशयवादी भारत में उर्दू और उसके उस्तादों के विनाश की भविष्यवाणी करने में तत्पर थे। लेकिन, सुरूर का इक़बाल पर काम, उनके शिल्प और विचारों पर लगातार लिखी जा रही कई पीएचडी थीसिस इस बात के प्रमाण हैं कि सुरूर की दार्शनिक-रहस्यवादी कविता भारत में साहित्य प्रेमियों और कविता पारखी लोगों को मंत्रमुग्ध करती रही है।

भारत में किसी भी कवि के काम के आधार पर उर्दू आलोचना पर दिए जाने वाले अधिकांश साहित्य अकादमी पुरस्कार उन लोगों को प्रदान किए गए हैं, जिन्होंने अल्लामा की कविता और दर्शन के विभिन्न रूपों पर रिसर्च किया गया है। इसी तरह दूसरे शायर मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ान ग़ालिब हैं,जिन पर इक़बाल के बाद सबसे ज़्यादा रिसर्च किये गये हैं।

इसके अलावा, इक़बाल भारतीय संसद में सबसे अधिक उद्धृत किये जाने वाले कवि अब भी बने हुए हैं।

कुछ साल पहले, देश में सबसे सक्रिय उर्दू प्रचार निकायों में से एक-पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी ने इक़बाल को मरणोपरांत अपना सर्वोच्च पुरस्कार दिया था। इक़बाल के पोते वालिद इक़बाल पुरस्कार प्राप्त करने के लिए कोलकाता आये थे और उन्होंने वह मशहूर बात कही थी कि उर्दू को भारत में भी उतना ही प्यार किया जाता है, जितना कि पाकिस्तान में किया जाता है।

शायद यही भावना हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व संपादक और उर्दू प्रेमी केएन सूद ने एनवाईटी रिपोर्टर को अपनी प्रतिक्रिया में व्यक्त की थी। सूद ने कहा था, “इस उपमहाद्वीप के देशों के बीच उर्दू सबसे प्राकृतिक और शक्तिशाली लिंक प्रदान करती है। इसकी सांस्कृतिक मुक्ति में इसकी भूमिका है। हमें वर्तमान राजनीतिक विवादों को हमारे साझा अतीत और भविष्य की नियति की वास्तविकता पर हावी नहीं होने देना चाहिए।”

हमारे समय की वास्तविकतायें अलग नहीं हैं और हमारी भावना एक ही होनी चाहिए।

 

रेख्ता: उर्दू का सबसे बड़ा अड्डा

उर्दू शायरी, कविता और शायरों की दुनिया के सबसे बड़े संग्रह का एक वेब एड्रेस है- रेख़्ता। 2013 में रेख़्ता फ़ाउंडेशन द्वारा एक वेबसाइट शुरू की गयी, यह किताबों का अब तक का सबसे बड़ा ऑनलाइन डेटाबेस बनाकर, ऑनलाइन लाइब्रेरी चलाकर, वार्षिक उत्सव (लोकप्रिय जश्न-ए-रेख़्ता) का आयोजन कर, सोशल मीडिया अभियान, साहित्यिक शाम या मुशायरे की मेज़बानी, और यहां तक ​​कि एक पाक्षिक पत्रिका, रेख़्ता रौज़ान भी चलाकर,यानी हर संभव तरीक़े से उर्दू को संरक्षित करने के लिए एक बड़ी परियोजना के रूप में विकसित हुई है।

इसकी पुस्तक संरक्षण पहल- रेख़्ता लाइब्रेरी प्रोजेक्ट ने दस वर्षों की अवधि में लगभग 200,000 पुस्तकों को सफलतापूर्वक डिजिटलीकृत कर दिया है। इन पुस्तकों में मुख्य रूप से उर्दू, हिंदी और फ़ारसी साहित्य शामिल है और कवियों की जीवनियां, उर्दू कविता, कथा और ग़ैर-काल्पनिक सहित शैलियों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है। इन्हें लखनऊ, भोपाल, हैदराबाद, अलीगढ़ और दिल्ली जैसे भारत के प्रमुख शहरों के पुस्तकालयों से एकत्र किया गया है।

जून 2023 तक इस साइट ने बत्तीस मिलियन पृष्ठों वाली 200,000 से अधिक ई-पुस्तकों को डिजिटल कर दिया है, जिन्हें स्पष्ट रूप से डायरी, बच्चों के साहित्य, कवितायें, प्रतिबंधित किताबें और उर्दू कविता से जुड़े अनुवाद जैसे विभिन्न वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। इसे (दुनिया भर के)7,000 कवियों की जीवनियां, 70,000 ग़ज़लें, 28,000 दोहे, 12,000 नज़्म, 6,836 साहित्यिक वीडियो, 2,127 ऑडियो फ़ाइलें, 140,000 ई-पुस्तकें पांडुलिपियां और पॉप पत्रिकायें संरक्षित करने का श्रेय भी दिया जाता है।

रेख़्ता ने हर मशहूर उर्दू शायर को मंच दिया है, चाहे उन्होंने किसी मुशायरे में हिस्सा लिया हो या नहीं। कुछ मदरसा स्नातक, जो कविता में उत्कृष्ट हैं और ग़ैर-मशहूर पत्रिकाओं में लिख रहे हैं, उन्होंने अपने काम को रेख़्ता में सूचीबद्ध पाया है और इसे कभी भी ब्राउज़ किया जा सकता है।

उर्दू कविता, या अधिक उपयुक्त रूप से कहा जाये,तो हिंदुस्तानी कविता को कभी-कभी इसके अर्थ समझने के लिए भाषाई मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है। युवा पीढ़ी या ग़ैर-उर्दू और हिंदी पृष्ठभूमि के लोगों को ऐसे सहयोगी की ज़रूरत पड़ती है। ऐसे पाठकों के लिए रेख़्ता वेबसाइट ने त्रिभाषी शब्दकोश सॉफ़्टवेयर विकसित किया है। एक पाठक कठिन शब्द पर क्लिक कर सकता है और उसके लिए तीन भाषाओं – हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी  में उसके अर्थ दिखायी देंगे।

यहां तक कि कोविड लॉकडाउन के दौरान भी रेख़्ता ने अपनी गतिविधियों को नहीं रोका और अपने सोशल चैनलों पर साहित्य, संगीत और कविता का एक “ऑनलाइन महफ़िल” (लाइव सीज़न) लॉन्च किया।

अमोज़िश नामक इसकी एक अन्य पहल उर्दू लिपि को बढ़ावा देने के लिए ई-लर्निंग का आयोजन करती है।

उ र्दू के बड़े समर्थक रेख्ता के मालिक संजीव सराफ़

रेख़्ता के मालिक उद्योगपति और उर्दू प्रेमी संजीव सराफ़ हैं, जिन्होंने यह भाषा सीखी है और इसके प्रचार-प्रसार को अपना जुनून बना लिया है। हालांकि, यह कहने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन चूंकि सांप्रदायिक रंग उर्दू के कुछ रंगों को छीन लेता है, इसलिए उर्दू का सबसे कट्टर सेवक सराफ ख़ुद ही एक हिंदू हैं।

 

रेख़्ता द्वारा उर्दू की सेवा करने को लेकर कई बातें लिखी गई हैं। रेख़्ता द्वारा उर्दू को बढ़ावा देने को लेकर कुछ विवाद भी उठे हैं। कुछ लोग कहते हैं कि सराफ़ प्रेम की भाषा के विक्रेता हैं और उर्दू की बिक्री उनके व्यवसाय में इज़ाफ़ा कर रही है। कई शुद्धतावादियों ने रेख़्ता द्वारा अपने एक उत्सव में उर्दू को हिंदुस्तानी लिखने से इन्कार कर दिया है। लेकिन, कोई भी किसी ऐसे अन्य मंच का उल्लेख नहीं करता है, जो विनम्रतापूर्वक और कठोरता से उर्दू की सेवा कर रहा हो, किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा भाषा को संरक्षित और बढ़ावा देने की योजना की तो बात ही छोड़ दें, जैसा कि रेख़्ता कर रहा है।

 

जश्न-ए-अदब, पुरानी दिल्ली

रेख़्ता के संजीव सराफ़ के बाद उर्दू का झंडा एक और हिंदू की हवेली-पुरानी दिल्ली के कूचा घासीराम में रामस्वरूप राय की हवेली से फहराया जा रहा है। जश्न-ए-अदब सोसाइटी फ़ॉर उर्दू पोएट्री एंड लिटरेचर के साहित्यकार कुंवर रणजीत चौहान उर्दू और इसकी शायरी का जश्न मनाने के लिए यहां और राजधानी के अन्य प्रमुख स्थानों पर जश्न-ए-अदब का आयोजन कर रहे हैं।

जश्न-ए-अदब उत्सव में साहित्यिक सभा का संचालन कुंवर रणजीत चौहान ने किया।इसमें फिल्मी हस्तियां पंकज त्रिपाठी और मुजफ्फर अली भी उपस्थित थे।

 

रेख़्ता के त्यौहार की तरह जश्न भी उर्दू को लोकप्रिय बनाने के लिए साहित्य और प्रदर्शन कला से प्रसिद्ध हस्तियों को आमंत्रित करता है, जो चौहान के अनुसार, लोगों की भाषा है और वे इसके जश्न में आनंद लेने के लायक़ हैं। यह उत्सव पाकिस्तान और विदेशों से उन उर्दू प्रेमियों को भी आकर्षित करता है, जो यह देखने के लिए आते हैं कि यह भाषा भारत के दिल में कैसे सांस ले रही है और अपने प्रेमियों को उसी तरह मोहित कर रही है, जैसे लौकिक शमा (लौ) परवाना (पतंगे) को मोहित करती है।

 

मंच पर उर्दू

उर्दू की लौ को प्रज्वलित रखने वाली एक और एकमात्र शक्ति एएमयू के पूर्व छात्र एम. सईद आलम हैं। सईद कई पात्रों को स्वंय में समेटे हुए हैं – वह नाटककार हैं, अभिनेता हैं, व्यंग्य कवि हैं, और यहां तक कि नाटककार और इतिहासकार भी हैं। वह नई दिल्ली में ग़ालिब में महान ग़ालिब को वापस दिल्ली ले आये। 21वीं सदी की दिल्ली में पुनर्जन्म ले रहे 19वीं सदी के इस प्रतिभाशाली कवि का हास्य अवतार आलम का सबसे अधिक मंचित नाटक है। दिल्ली के थिएटरों में इसका सीज़न कभी ख़त्म नहीं होता।

ग़ालिब के अलावा, आलम ने मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे महान लोगों को मंच पर पुनर्जीवित किया है। इन तीनों का किरदार दिवंगत अभिनेता टॉम ऑल्टर ने निभाया था। उर्दू के भक्त ऑल्टर ने अपनी आत्मकथा भी उर्दू में ही लिखी है।

आलम ने एक साक्षात्कार में कहा था, “थिएटर किसी संस्कृति और उसके साहित्य की रक्षा करता है और साथ ही इसे जनता के लिए सुलभ भी बनाता है।” उनके थिएटर ग्रुप को पियरोट ट्रूप कहा जाता है।

बिग बी, केएल सहगल आलम के अन्य उल्लेखनीय नाटक हैं।

 

चायख़ाना, वलीउल्लाह लाइब्रेरी और न्यू पोएटिक चम्स

शाम ढलते ही पुरानी दिल्ली की सड़कों पर रौनक़ आ जाती है। मज़दूर और साहित्यकार दोनों ही चायख़ानों में उमड़ पड़ते हैं। यहीं पर मज़दूर दिन भर के समाचार पत्र पाते हैं और सेलफ़ोन की जानकारी की लत वाले युग के बावजूद, छपे हुए सुर्ख़ियों को पढ़कर और चीनी चाय के बीच-बीच में भ्रमित करने वाली चर्चाओं को पढ़कर दुनिया में होने वाली घटनाओं के प्रति जागते हैं। ऐसे चायख़ाने और उनकी चर्चायें रात के खाने तक और उसके बाद भी चलती रहती हैं।

इन्हीं चायखानों में एक है चायख़ाना ख़ास है। यह बाज़ार की भीड़ की नज़र से कुछ हद तक छिपा हुआ है। चितली क़बार की एक गली में छिपा हुआ यह साहित्यिक बौद्धिकों का एक पसंदीदा मिलन बिंदु है। इसकी पुरानी शैली की लकड़ी की कुर्सियाँ और मेज़ें उन बोद्धिकों से अटी-पड़ी रहती हैं, जो राजनीति पर नहीं, बल्कि कविता पर चर्चा करते हैं। पुरानी दिल्ली के मशहूर आरजे और व्यंग्य कवि मोहम्मद अनस फ़ैज़ी इस संवाददाता को आस्ताना-ए-सुखन (पत्रों की दहलीज़) से परिचित कराते हुए कहते हैं, “दुनिया के किसी भी शहर में इतने साहित्यिक आयोजन नहीं होते, जितने कि दिल्ली में होते हैं । यह शब्दों को बुनने का एक नायाब ठौर है।”

चायख़ाना से ऐतिहासिक जामा मस्जिद की ओर कुछ कदम की दूरी पर ऐतिहासिक शाह वलीउल्लाह लाइब्रेरी है, जो राजधानी में साहित्यिक आत्माओं के सबसे पुराने ठौर में से एक है। साहित्यिक उत्साही, ज़्यादातर नवोदित कवि और कुछ मशहूर लोग अपनी शाम की चाय और सिगरेट के कश के बाद रात की शुरुआती नशिस्त (साहित्यिक बैठक) को जीवंत करने के लिए वलीउल्लाह लाइब्रेरी की चटायी पर आते हैं और यहीं बैठते हैं। यहां, महफ़िल केवल शेर सुनाने और सुरीली आवाज़ में कुछ मनोरम गद्य प्रस्तुत करने तक ही सीमित नहीं रहती, प्रतिभागी अक्सर पुस्तकालय से किताबें उठाते हैं (पुस्तकालय में उर्दू साहित्य की सभी प्रमुख और प्रासंगिक किताबें, जिनमें रामायण और महाभारत के अनुवाद भी शामिल हैं)) और फिर उन्हें साहित्यिक आधार पर तौलते हैं।

शाह वलीउल्लाह लाइब्रेरी में मौलाना आज़ाद जैसे पुराने उर्दू कवियों और लेखकों को याद करते हुए एक नैशिस्त

 

एक प्रतिभागी का कहना है कि वलीउल्लाह लाइब्रेरी में एक सत्र, यदि अधिक नहीं तो लगभग उर्दू साहित्य पर एक विश्वविद्यालय की कक्षा जैसा है।

फ़ैज़ी बताते हैं कि इन ठिकानों पर सभी उम्र और रंग के कवि एकत्र होते हैं। फ़ैज़ी कहते हैं, “मैं कुछ नाम गिनाऊं,तो ये नाम हैं: नितिन कबीर, सावन शुक्ला, राजीव रेयाज़, राज़ देहलवी और अन्य।” हिंदू कवि, और वह भी युवा ? वह अनावश्यक आश्चर्य से कन्नी काट लेते हैं।

फ़ैज़ी कहते हैं,“अगर ईसाई, यहूदी, पारसी, बौद्ध और अन्य लोग हमारे साथ जुड़ें, तो हमें ख़ुशी होगी। हमारे यहां पहले से ही कवियों में कुछ अज्ञेयवादी मौजूद हैं। अक्षरों की यह दहलीज़, मैख़ाना (मदिरा) की तरह सभी का स्वागत करती है और सभी द्वारा इसकी इबादत की जाती है। आपकी इस ग़लतफ़हमी को दूर कर दूं कि ग़ैर-मुसलमान उर्दू लिपि नहीं जानते और देवनागरी में लिखते हैं, इनमें से अधिकांश हिंदू कवि लिपि जानते हैं या वे इसे सीख रहे हैं।”

वह कहते हैं कि विविधता भारतीय कविता को अद्वितीय बनाती है। फ़ैज़ी बताते हैं, “आपको अन्य देशों की कविता को सजाने वाले रूपकों और अलंकारों की इतनी विविधता नहीं मिलेगी, जितनी भारतीय कवियों की कविताओं में मिलती है। भारत विविधता से भरा हुआ है, और इस प्रकार इसकी कविता उस सुंदरता को दर्शाती है।”

उर्दू और नये जमाने की शायरी की ख़ूबसूरती पर फ़ैजी ने अपनी नज़म सुनाते हैं।

 

वो लिख कर ख़ूब शरमाया हमारा नाम उर्दू में

मोहब्बत कर रही थी चोरी चोरी काम उर्दू में

(उर्दू में मेरा नाम लिखने के बाद मेरा प्रिय शरमा गया और इस तरह प्यार को उसके दिल तक पहुंचने का गुप्त रास्ता मिल गया उर्दू में)

 

 

संसद, दुकानों और कपड़ों में उर्दू

हापुड के अज़ीज़ अहमद ख़ान उर्दू के प्रेमी-रक्षक रहे हैं। वह उर्दू के प्रचार और संरक्षण के लिए समर्पित संस्था अल-अमीन उर्दू मरकज़ के निदेशक थे। उन्होंने भारतीय संसद में उर्दू पर बहस से संबंधित सभी दस्तावेज़ों को संकलित किया था और एक मिशनरी उत्साह के साथ उन्होंने 1980 के दशक के बाद आने वाली सभी सरकारों के साथ अपनी पसंदीदा भाषा का मामला उठाया था। कई मंत्रियों ने उनकी दलीलें सुनीं और उर्दू को बढ़ावा देने वाले संस्थानों के अनुदान में वृद्धि करने और भाषा से संबंधित कोर्स करने वाले छात्रों के लिए छात्रवृत्ति देने के लिए धन आवंटित करने का वादा किया। अन्य प्रयासों के बीच उनकी दलीलें वह उत्प्रेरक थीं, जिसने देश में उर्दू विश्वविद्यालयों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया।

इसके अलावा, उन्होंने दुकानदारों, नाई और रेस्तरां मालिकों जैसे आम लोगों को यह सुनिश्चित करने के लिए एक प्रेरक अभियान शुरू किया कि वे अपने प्रतिष्ठानों के नाम अन्य भाषाओं के अलावा उर्दू में भी रखें। कई लोगों ने उनकी सलाह का पालन किया और हापुड, गजरौला, अलीगढ़, बदायूं और यहां तक कि मुंबई जैसे शहरों में लोगों ने यह सुनिश्चित किया कि उनके परिसर में बोर्ड या होर्डिंग पर उर्दू में नाम अंकित हों।

ऐसी ही पहल से प्रेरणा लेते हुए जामिया नगर के एक युवा फ़ैशन डिज़ाइनर ने विशेष रूप से उर्दू नक़्क़ाशी के साथ कपड़े तैयार करना शुरू कर दिया है। वह न केवल साधारण उर्दू अक्षर, बल्कि मशहूर शायरों के पूरे शेर पोशाकों पर लिख देते हैं।

 

अब तक का पहला अनुवाद

राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, इतिहास और लोक प्रशासन जैसे सामाजिक विज्ञान विषय लगभग सभी उर्दू-माध्यम कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर पर अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाये जाते हैं, जिनमें वह पाकिस्तान भी शामिल है, जहां की राष्ट्रीय और शैक्षणिक भाषा उर्दू है। हाल ही में मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद ऐसे विषयों का अनुवाद करने का बीड़ा उठा रही है।इस विश्वविद्यालय के दूरस्थ शिक्षा निदेशालय ने कुछ सेमेस्टर पेपरों के पाठ्यक्रम को उर्दू में प्रस्तुत किया है। सहायक प्रोफ़ेसर डॉ. नावेद अशरफ़ी के अनुसार, यह कार्य कठिन और दिलचस्प रहा है।

अशरफ़ी ने इंडिया नैरेटिव को बताया, “हालाँकि सरल है, यह अब तक बहुत कम ज्ञात था कि लोक प्रशासन जिसे अवामी इंतेज़ामिया कहा जाता था, पूरी तरह से नज़्म-ओ-नस्क-ए-अम्मा होना चाहिए। कई स्थानों पर इसे उर्दू में भी लोक प्रशासन के रूप में लिखा और पढ़ाया जाता था। इसी तरह, पाठ्यक्रम पर अधिक काम करते समय हमें इस बात की कठिनाई का सामना करना पड़ा कि संविधान, राज्य, प्रबंधन, शासन, प्रशासन आदि जैसी क्लासिक शब्दावली का अनुवाद कैसे किया जाए। उदाहरण के लिए, राज्य के लिए, रियासत, ममलेकत, सूबा आदि जैसे उर्दू शब्दों का उपयोग किया जाता है। संविधान के लिए हमारे पास आईने और दस्तूर हैं। बेहतर उपयोग संदर्भ द्वारा परिभाषित किये जाते हैं। काफी विचार-विमर्श के बाद हम इस नतीजे पर पहुंच पाये हैं।”

उन्होंने कहा कि शायद ऐसे अनुवाद जब पूरे हो जायेंगे, तो पाकिस्तानी विश्वविद्यालयों द्वारा वहां पढ़ाये जाने के लिए उधार लिए जा सकते हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर ख़ालिक़ अंजुम ने न्यूयॉर्क टाइम्स के संवाददाता को जो बताया, उसमें अशरफ़ी के इन्हीं शब्दों की अनुगूंज अनायास ही मिल जाती है।

“भारत में ब्रिटिश शासन के दिनों में विदेशी सरकार ने हर उस युक्ति का सहारा लिया था, जो हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई पैदा कर सकती थी। ब्रिटिशों द्वारा गुप्त रूप से समर्थित मुस्लिम लीग के सांप्रदायिक नेतृत्व ने यह धारणा बनानी शुरू कर दी थी कि उर्दू भारत में मुसलमानों की भाषा है; लेकिन,सच्चाई बिल्कुल अलग थी। उर्दू व्यापक क्षेत्र में सभी समुदायों द्वारा व्यापक रूप से बोली और समझी जाती थी।”

50 साल बाद अंजुम और उर्दू एकदम सही साबित हुए।

अनुवाद: उपेन्द्र चौधरी

आईएन ब्यूरो

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