मोहम्मद अनस
दुनिया भर में इस्लामी कट्टरवाद कम होता दिख रहा है। हिंसक उग्रवाद के घटते मामलों और सभी प्रकार के मीडिया प्लेटफ़ार्मों पर इसके विभिन्न तरह की ख़बरों के लिए घटती जगह को देखते हुए कम से कम ऐसा तो लगता ही है। दुनिया भर में सरकारों के प्रयासों के अलावा, संगठनों और व्यक्तियों द्वारा धार्मिक रूप से प्रसारित किए गए ढेर सारे जवाबी नैटेरिव द्वारा ज़हरीले इस्लामवाद की हार सुनिश्चित हो गयी है।
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति और प्रामाणिकता वाले इस तरह के दो प्रमुख संगठन हैं, जो इस मोर्चे पर सक्रिय हैं।ये संगठन हैं- लंदन स्थित क्विलियम फाउंडेशन (अब निष्क्रिय) और पाकिस्तान-मलेशिया स्थित अल-मावरिड संगठन। इसके अलावा, मुस्लिम छात्र संगठन (एमएसओ) जैसे कई सूफ़ी और युवा-उन्मुख संगठन, जो पूरे भारत में चल रहे हैं, वे लगातार सेमिनार और अन्य कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं ताकि युवाओं को कट्टरवाद से उत्पन्न ख़तरों के बारे में चेतावनी दी जा सके और इसके ज़हरीले जाल से कैसे बचा जा सके।
Appeal from MSO
Let's wear the Best Clothes, Not New Clothes This Eid.
Say “No To Eid Shopping” This Year.
Muslim Students Organisation (MSO) of India.@DewasMso @MSOBihar @msoofindia @MSO_Karnataka @mso_rajasthan pic.twitter.com/rcjCWFFPSL
— MSO AMU (@mso_amu_) May 3, 2020
भारत ने वैश्विक मंचों पर अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद को एक प्राथमिक मुद्दे के रूप में रखने की कोशिश की है, और G-20 के अध्यक्ष के रूप में नई दिल्ली ने आतंकवाद और इसके असंख्य घटनाओं को चिह्नित किया है।
संयुक्त राष्ट्र की अस्पष्टता और भारत की चिंतायें
9/11 के बाद के वर्षों में आतंकवाद के ख़तरों के बारे में नई दिल्ली की चेतावनियों ने नये सिरे से इस तरफ़ ध्यान को आकर्षित किया, और आम तौर पर इसमें पिछली भारतीय चिंताओं का समर्थन किया गया था। संयुक्त राष्ट्र में जो आतंकवाद है और इसका मुकाबला किस तरह से किया जाए, इस पर बुनियादी असहमति कई वर्षों से बनी हुई है। सदस्य राज्य एक मानक पर सहमत होने में असमर्थ रहे हैं, अस्पष्ट शब्दावली का उपयोग करना पसंद करते हैं और विद्वानों की व्याख्याओं और व्यावहारिक नीति कार्यान्वयन के बीच झूलते रहते हैं, जो मुख्य रूप से व्यक्तिगत राज्यों और उनके भू-राजनीतिक उद्देश्यों द्वारा संचालित होते हैं।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में आतंकवाद से निपटने पर सर्वसम्मति की कमी के परिणामस्वरूप भारत को महत्वपूर्ण आर्थिक और मानव पूंजी का नुकसान हुआ है। भारतीय सैनिक आज भी कश्मीर जैसी जगहों पर आतंकवाद से लड़ते हुए लगभग हर हफ़्ते अपनी जान गंवा देते हैं।
सुरक्षा-आधारित आतंकवाद-विरोधी उपाय आतंकवाद के प्रति अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की प्राथमिक प्रतिक्रिया रहे हैं। हालांकि, विदेशी लड़ाकों की घटनाओं, कट्टरपंथ या हिंसक उग्रवाद को बढ़ावा देने और अकेले भेड़िया आतंकवाद को ही ऐसे उपायों से पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया जा सका है।
कट्टरवाद के नैरेटिव
हाल ही में कुछ मुस्लिम संगठनों द्वारा अपनाये गये चरमपंथी रास्तों और ऐसे संगठनों से जुड़ी हिंसक घटनाओं के कारण दुनिया भर में इस्लाम और मुसलमानों को काफी क्रोध का सामना करना पड़ा है। जबकि मुस्लिम विद्वानों ने इन आरोपों को ख़ारिज कर दिया है कि इस तरह के अतिवाद, या कट्टरवाद, या अधिक उचित रूप से आतंक की घटनायें मुख्यधारा के इस्लामी तक़रीर का परिणाम हैं। सच्चाई तो यही है कि चरमपंथी विचारधारायें मदरसों में सिखायी जाने वाली धार्मिकता, इस्लामवादियों द्वारा अपनायी गयी नीतियों, राजनीतिक दलों द्वारा दी गयी हवाओं और प्रसिद्ध मौलवियों द्वारा दिये गये उपदेशों का प्रत्यक्ष परिणाम हैं। ।
ऐसे अधिकांश कट्टरपंथी आख्यान पश्चिम एशियाई देशों, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में प्रचलित रहे हैं। भारत पाकिस्तान के क़रीब है, यहां भी उग्रवाद के ख़तरे का सामना करना पड़ा है। जैश-ए-मुहम्मद (JeM), लश्कर-ए-तैयबा (LeT) जैसे पाकिस्तान के कट्टरपंथी संगठन और अल क़ायदा से अलग हुए कुछ तत्व भारत में कट्टरपंथी विचार फैला रहे हैं।
समझने की सुविधा के लिए ऐसे क्रांतिकारी आख्यानों के कुछ प्रमुख बिंदुओं को निम्नलिखित रूप में संक्षेप में रखा जा सकता है:
1) ख़िलाफ़त या इस्लामवादी विश्व सरकार की स्थापना करना सभी मुसलमानों का धार्मिक कर्तव्य है। इसे पूरा करने के लिए उन्हें हर संभव तरीक़े से प्रयास करना होगा।
2) मुसलमान एक राष्ट्र बनाते हैं और वे दुनिया के किसी भी हिस्से में रह रहे हों, वे इस्लाम के प्रति अपने कर्तव्य से बंधे हैं।
3) यदि मुसलमान इस्लाम और उसके सिद्धांतों का पालन करना छोड़ देते हैं, तो वे मुसलमान नहीं रह जाते हैं और इस प्रकार दंड के लिए उत्तरदायी होते हैं।
4) बहुदेववाद, अविश्वास और धर्मत्याग को दंडित किया जाना चाहिए।
5) कुरान अपने अनुयायियों से अपेक्षा करता है कि यदि उनके पास ताक़त है, तो उन्हें उत्पीड़न और अन्याय के ख़िलाफ़ युद्ध (जिहाद) छेड़ना चाहिए।
6) लोकतंत्र और राष्ट्र राज्य के पश्चिमी रूप बुरे हैं।
7) यदि किसी स्थान पर मुस्लिम सरकार मौजूद है, तो उसे (जैसे पाकिस्तान के मामले में) शरीयत लागू करने के लिए कहा जाना चाहिए।
कट्टरपंथी नैरेटिव का प्रतिकार
अल-मावरिड इंस्टीट्यूट का नेतृत्व एक प्रमुख पाकिस्तानी विद्वान जावेद अहमद गामिदी कर रहे हैं, जो अपने ऊपर हत्या के प्रयास के बाद पहले मलेशिया और फिर ऑस्ट्रेलिया भाग गये थे।वह कट्टरपंथी संगठनों द्वारा प्रस्तुत नैरेटिव का मुक़ाबला करने के लिए एक अभियान चला रहे हैं। गामिदी के अनुसार, कट्टरपंथी नैरेटिव का जवाब धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों की वकालत नहीं होना चाहिए; बल्कि धार्मिक आदेशों के आलोक में उनका प्रतिकार किया जाना चाहिए। उन्होंने कट्टरपंथी आख्यानों का बिंदुवार खंडन किया है।
1) इस्लाम का संदेश मुख्य रूप से एक व्यक्ति को संबोधित है। यह लोगों के दिलो-दिमाग़ पर राज करना चाहती है।’ इसने समाज को जो निर्देश दिए हैं, वे उन व्यक्तियों को भी संबोधित हैं, जो मुसलमानों के शासक के रूप में अपनी ज़िम्मेदारियां निभा रहे हैं। अतः यह सोचना बेबुनियाद है कि राज्य का भी एक धर्म होता है और उसका इस्लामीकरण करने की आवश्यकता है।
2) न तो ख़िलाफ़त कोई धार्मिक शब्द है और न ही वैश्विक स्तर पर इसकी स्थापना इस्लाम का निर्देश है। पहली हिजरी शताब्दी के बाद जब मुसलमानों के प्रसिद्ध न्यायविद उनमें से थे, दो अलग-अलग मुस्लिम राज्य, बगदाद में अब्बासिद साम्राज्य और स्पेन में उमय्यद साम्राज्य की स्थापना हुई और कई शताब्दियों तक स्थापित रहे। हालांकि, इनमें से किसी भी न्यायविद ने इस स्थिति को इस्लामी शरीयत के विरुद्ध नहीं माना। कारण यह है कि कुरान और हदीस में इस मुद्दे पर एक भी निर्देश नहीं मिलता है।
3) इस्लाम में राष्ट्रीयता का आधार स्वयं इस्लाम नहीं है, जैसा कि आम तौर पर समझा जाता है। कुरान और हदीस में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि मुसलमानों को एक राष्ट्र बनना चाहिए। इसके विपरीत, कुरान ने जो कहा है वह है: (49:10) اِنَّمَا الْمُؤْمِنُوْنَ اِخْوَةٌ (सभी मुसलमान एक दूसरे के भाई हैं, (49:10))। इस प्रकार मुसलमानों के बीच संबंध राष्ट्रीयता पर आधारित नहीं है; बल्कि यह भाईचारे पर आधारित है।
4) बहुदेववाद, अविश्वास और धर्मत्याग वास्तव में गंभीर अपराध हैं; हालांकि, कोई भी इंसान इन अपराधों के लिए दूसरे इंसान को सज़ा नहीं दे सकता। यह तो ईश्वर का ही अधिकार है। आख़िरत में भी वह उन्हें इन अपराधों के लिए सज़ा देगा और इस दुनिया में वही है, जो ऐसा करता है, यदि वह चाहता है।
5) इस्लाम द्वारा दिया गया जिहाद का निर्देश ईश्वर के लिए युद्ध है; इसलिए, इसे नैतिक प्रतिबंधों की उपेक्षा करते हुए नहीं चलाया जा सकता। नैतिकता सभी परिस्थितियों में सब कुछ से ऊपर है और यहां तक कि युद्ध और सशस्त्र हमलों के मामलों में भी, सर्वशक्तिमान ने मुसलमानों को नैतिक सिद्धांतों से विचलित होने की अनुमति नहीं दी है। इसलिए, यह बिल्कुल निश्चित है कि जिहाद केवल लड़ाकों के ख़िलाफ़ ही छेड़ा जा सकता है।
6) वर्तमान युग के विचारकों से सदियों पहले कुरान ने घोषणा कर दी थी: اَمْرُهُم شُوْرٰی بَينَهُمْ (42:38) (मुसलमानों के मामले उनके आपसी परामर्श के आधार पर चलते हैं, (42:38))। स्पष्ट रूप से इसका मतलब यही था कि उनके परामर्श के माध्यम से एक इस्लामी सरकार की स्थापना की जायेगी, इस परामर्श में सभी को समान अधिकार होंगे, परामर्श के माध्यम से जो कुछ भी किया जायेगा, उसे परामर्श के माध्यम से ही पूर्ववत किया जा सकता है और प्रत्येक व्यक्ति परामर्श प्रक्रिया का हिस्सा बन जायेगा। वास्तव में लोकतंत्र तो यही है।
7) यदि किसी स्थान पर मुस्लिम सरकार मौजूद है, तो आम तौर पर उसे शरीयत लागू करने के लिए कहा जाता है। यह अभिव्यक्ति भ्रामक है, क्योंकि इससे यह आभास होता है कि इस्लाम ने सरकार को शरीयत के सभी निर्देशों को लोगों पर जबरन लागू करने का अधिकार दिया है। सच तो यह है कि कुरान और हदीस किसी सरकार को यह अधिकार नहीं देते।
एक अन्य संगठन, जो कट्टरपंथ का मुकाबला करने के लिए सक्रिय है, वह है- मुस्लिम स्टूडेंट ऑर्गनाइजेशन ऑफ़ इंडिया। सूफ़ी रुझान वाले एमएसओ का दावा है कि इसकी स्थापना 70 के दशक के अंत और 80 के दशक की शुरुआत में स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया (सिमी) जैसे संगठनों द्वारा फैलाए जा रहे कट्टरपंथ का मुक़ाबला करने के लिए की गयी थी। हाल के वर्षों में यह संगठन भारतीय युवाओं द्वारा सबसे अधिक जाना जाने वाला और व्यापक रूप से अनुसरण किया जाने वाला संगठन बन गया है। यह युवाओं को जागरूक करने के लिए समर्पित रूप से सेमिनार, चर्चा और कार्यशालाओं का आयोजन करता है कि कैसे कट्टरपंथी संगठनों द्वारा हिंसक और राज्य विरोधी तत्वों को तैयार करने के लिए इस्लामी विचारों को विकृत किया जाता है। इस संगठन ने विशेष रूप से युवाओं को धार्मिक संयम और सामाजिक रूप से ज़िम्मेदार जीवन के मार्ग पर चलने के लिए जागृत करने के लिए भारत की सूफ़ी विरासत के ख़ज़ाने पर ज़ोर दिया है। एमएसओ अध्यक्ष ने इंडिया नैरेटिव को बताया, “हमने चरमपंथ का समान रूप से दृढ़ता से मुक़ाबला किया है। सूफ़ीवाद हमारे विचारों और व्यवहार की आत्मा है। अल्लाह की रहमत से हमारा नेटवर्क भारत में बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है और हमसे जुड़े युवा शिक्षा, प्रौद्योगिकी और सार्वजनिक जीवन जैसे क्षेत्रों में प्रगति कर रहे हैं। आप स्वयं देख सकते हैं कि हाल के दिनों में कट्टरवाद और उसके समर्थक कैसे पीछे हट गये हैं।”
ब्रिटेन स्थित क्विलियम फ़ाउंडेशन 2021 में अपने उन्मूलन तक चरमपंथ विरोधी तक़रीर के निर्माण और प्रचार के लिए पूरी तरह से समर्पित था। इसने ऑनलाइन चरमपंथी प्रचार का मुक़ाबला करने के लिए एक व्यावहारिक मार्गदर्शिका प्रकाशित की थी। इसके अलावा, इस फ़ाउंडेशन से जुड़े लेखकों ने इस विषय पर कई लोकप्रिय किताबें लिखी हैं, जिनमें एद हुसैन द्वारा लिखित “द हाउस ऑफ़ इस्लाम: ए ग्लोबल हिस्ट्री” भी शामिल है।
क्विलियम की स्थापना 2007 में इस्लामवादी समूह हिज़्ब उत-तहरीर के तीन पूर्व सदस्य- एद हुसैन, माजिद नवाज़ और रशद ज़मान अली द्वारा की गयी थी। इसका नाम 19वीं सदी में इस्लाम अपनाने वाले ब्रिटिश अब्दुल्ला क्विलियम के नाम पर रखा गया था, जिन्होंने ब्रिटेन की पहली मस्जिद की स्थापना की थी।
क्विलियम ने तर्क दिया था कि इस्लाम एक आस्था है, विचारधारा नहीं, और “इस्लाम इस्लामवाद नहीं है”। यह भी तर्क दिया गया कि “इस्लामवादी राजनीति को समझ पाने में अपनी बेलचीलेपन के कारण ही अतिवादी हैं”। इस संगठन ने किसी भी इस्लामी विचारधारा का विरोध किया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन किया।